Sunday, October 26, 2014

प्रकाश जाधव और उनकी कविता


खो गए कवि की कविता
- गोपाल नायडू
(‘पहल’ – ९२ से साभार)

मराठी के कवि प्रकाश जाधव का जन्म 3 नवम्बर 1951 को मूळ गांव खेड, रत्नागिरी में हुआ. कक्षा आठवीं से ही कविता लिखने लगे थे. बेहद गरीब परिवार था. अखबार बांट कर मैट्रिक पास किया और घर खर्च के लिए हाथ बंटाया. 1978 में पहला काव्य संग्रह 'दस्तक' प्रकाशित हुआ. 'असा ही एक हिंदुस्थान', 'नाटक', शाखा क्रमांक 120, दो उपन्यास, बड़ी संख्या में मराठी और हिंदी की खो गई कविताओं की तलाश जारी है. लम्बे अर्से से मानसिक बीमारी से जूझ रहे थे. ब्रेनहॅमरेज की वजह से अंतत: पत्नी निशा, कबीर, फैज और बूढ़ी अम्मा को छोड़ विदा हो गए.

जाने-जाने मराठी के कवि श्रीधर पवार ने प्रकाश जाधव के संदर्भ में एक अनुभव सुनाया –

सामाजिक कार्यकर्ता सुबोध मोरे और कवि तुलसी परब के साथ वे खुद प्रकाश जाधव के घर पहुँचे. प्रकाश के घर तनाव फैला हुआ था. वह घर के सभी लोगों से झगड़कर कहीं और चला गया. घर से उसका संपर्क नहीं के बराबर था. वहीं 1985-86 से साहित्य की दुनिया और मित्रों से भी संपर्क नहीं बचा था. वैसे भी मुंबई के भीड़ में संबंधों को बनाये रखना बेहद मुश्किल है. इसी भीड़ में उसके कवि मित्र, दोस्त, कॉमरेड, परिवार के सदस्य और रिश्तेदारों का भी संबंध न के बराबर था.
कहने-सुनने को तो अच्छा लगता है. अरे तुम तो सृजन से जुड़े हुए हो - नहीं लिख पा रहे हो - यह सामाजिक अपराध है. साथियों के बुरे दिनों में उसे संभालना चाहिए. हौसला अफ़जाई करना चाहिए. जिस कवि का एक महत्वपूर्ण कविता संकलन 'दस्तक' आठवें दशक में मराठी दलित कविता के केन्द्र में रहा वह अपनी हालातों की वजह से मुंबई की भीड़ में अनजानी और अनचाही जिंदगी जी रहा था. यह हमें सोचने के लिए विवश करता है कि 'सामाजिक अपराध' किसका है - गुमनामी में खो गए लेखक का या सृजनशील लोगों का - जिन्होंने प्रकाश की सुध नहीं ली और एक लम्बे अर्से तक उसके अर्थपूर्ण साहित्य को सामने नहीं ला पाए. प्रकाश की संवेदनशीलता इस निर्मम सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक ढांचे का भार सहन नहीं कर पाई. 

मनुष्य के साथ
ना उठने-बैठने की सजा है

तो होने दो
होने दो यह 

मैं बनाता हूं
दो शब्दों के खाली जगह के बीच
अभिव्यक्ति का घर
और ढह जाता है

इस टूटन भरी जिंदगी में उनका लेखन गुमनामी के अंधेरे में छटपटाता रहा. इसी छटपटाहट की सुध लेने ये तीनो साथी उसके घर की ओर मुखातिब हुए थे. इन तीनो ने दलित साहित्य के सबसे चर्चित कवि नामदेव ढसाळ और कवि-नाटककार कॉमरेड मनोहर वाकडे के समकालीन प्रकाश जाधव के साहित्य को संजोने का काम किया. जो साहित्य उपलब्ध हो सका उसे इकट्ठा किया. पहले प्रकाशित काव्य संग्रह 'दस्तक' के तर्ज पर 'दस्तक के बाद की कविताएं', प्रकाशित करने की योजना हाथ में ली गई. फिलहाल यह काम भी प्रकाश की जिंदगी की तरह हिचकोले ले रहा है.

मराठी के दलित साहित्य आंदोलन में कविता बड़ी तादाद में लिखी जा रही है. आज तक दलित कवियों के काव्य संग्रह से गुजरने से ऐसा महसूस होता है कि इन कवियों ने मराठी कविता के चेहरे और रंग-रूप को ही बदल डाला है. उपेक्षित नारकीय जीवन को शब्दबद्ध करने का आविष्कार दलित कवियों की ही देन है. उपेक्षित जीवन, शोषितों के उत्पीडऩ को, प्रकाश की कविताएं सामने लेकर आई हैं. वहीं कुलीन अकादमियों के मूल्यों को तोड़कर उन्होंने खुद का एक अलग रचना संसार गढ़कर नई इबारत खड़ी की है. सबसे बड़ी बात है कि पारम्परिक मराठी कविता के कवियों द्वारा फैलाए गए कूड़ा-करकटों के ढेर को आज के दलित कवियों ने बुहारने का काम बहुत ही शिद्दत के साथ किया है. इस कतार में प्रकाश भी हैं. इस कूड़े-करकट से अलग एक और दुनिया है. इन कवियों का अपना संसार है, उस दुनिया का अपना भाव-विश्व है, उसका शब्द भंडार है, शोषण-उत्पीडऩ है, दुख-दर्द और संघर्ष है. इसे आविष्कार का बाल्यकाल भी कहा जा सकता है. बाल्यकाल का अर्थ बचपने से हैं. बचपन का रोना-धोना, प्रेम और क्रोध, मासूमियत भरी हंसी, दिल में महामानव बुद्ध की करुणा और नक्सलवादियों जैसा आक्रोश, आदि के स्वर कविता में देखे जा सकते हैं. इस संघर्ष की राह में प्रकाश जाधव की कविताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

कुछ अपवाद को छोड़कर दलित कविता के अनुभव जगत में साधारणत: गांव के बाहर दलितों पर होने वाले अन्याय, अत्याचार और चातुर्वण व्यवस्था की वजह से मानहानि, नाकेबंदी की उपस्थिति है. इन सब की परिणति के स्वरुप उभरा संघर्ष एक लड़ाकू प्रवृति का ठोस पवित्र दर्शन है. गांव से परे, शहर के दलितों के जीवन का अनुभव और संदर्भ अलग-अलग रूपों में रुपाकार होता है. आखिरकार दोनों के दुख:दर्द की यातना की अंतिम परिणति का रुपाकार एक जैसा है. प्रकाश की कविताओं में गली-कूचे, दासता, छूआ-छूत, वेश्या, झगड़े-फसाद, रामपुरी, दादा लोग, मवाली लोग, हिजड़े, मौला, फकीर, अघौरी भिखारी, महारोगी, सत्ता, मस्जिद, मंदिर, चर्च, हड़ताल, मोर्चे, तालाबंदी, लाठीचार्ज, अश्रुगैस, कफ्र्यू, तस्करी, कालाबाजारी, पुलिस यंत्रणा, आदि, शब्द कविता की संरचना में मानवीय धड़कन पैदा करते हैं. इसकी वजह साफ है. उनकी पृष्ठभूमि महात्मा फुले और डाक्टर अंबेडकर की थी, लेकिन उनके जीवन में मार्क्सवाद का प्रभाव भी गहरा था इसलिए उनके जीवन में फुले, अंबेडकर और मार्क्स की विचारधारा का अंतरंग संबंध साहित्यिक कृति में उभरकर सहजता से दाखिल हो जाता है.

वहीं मुंबई महानगर के लुम्पेन प्रोलेतेरित वर्ग की स्थानीय बोली, फुटपाथ पर गुजर-बसर करते लोगों की बहुस्तरीय विशिष्टता याने लगातार असुरक्षा में जीना, बीमारी के आलम में पड़े रहने वालों की बोली को पहली बार मराठी साहित्य में प्रकाश ने एक नया आयाम दिया. उनके इसी अश्लील बोली के चलते उनकी अभिव्यक्ति रांगळी और बिंदास है.

मैं समझ सकता हूँ
वट-फुट-हटेली-कटेली-चोर-चिटर,
धर्म के पाखंडियों के
बैल-बाजार में चूतियों से भरे लोगों को
वहीं
मेहनत की रूखी-सूखी रोटी के लिए
गरीब-गुरबों के बीच
चल रही भयानक मारामारी को

चलते-चलते
और एक बात -
यह देश
जितना तुम्हारा है - उतना मेरा भी,

सुप्रसिद्ध समीक्षक डॉक्टर होमी भाभा ने उनकी विख्यात समीक्षा की पुस्तक ''लोकेशन ऑफ कल्चर'' की भूमिका में प्रकाश की कविताओं में भाषा की सादगी, स्थानीय लोगों की संवेदना और इर्द-गिर्द की हकीकत पर गहरी पकड़ का जिक्र किया है. प्रकाश के विश्लेषण करने की क्षमता से प्रभावित होकर उनकी कविता का विश्लेषण भी किया. भाषा की गतिशीलता और सक्रियता की वजह से उनकी कविताओं के आशय और भाषा की तुलना ब्लॅक पैंथर कवियों की कविता के साथ किया है. उनकी कविता की भाषा समाज के अत्यधिक गरीब वर्ग की भाषा होने के बावजूद कविता के गुंफन की विशिष्टता का अंदाज अलग है. इस भाषा में वर्गीय हित दर्ज है. सत्ताधीशों और वर्चस्ववादी भाषा को चुनौती देती है और वैकल्पिक दुनिया के स्वरों को मुक्त करने की छटपटाहट से कविता एक नई भाषा को जन्म देती है. कविता की यह प्रसव पीड़ा सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक शक्तियों से उनकी टकराहट की इच्छा शक्तियों का प्रतिफलन है. इस संदर्भ में ''दादर के पुल के नीचे'' कविता को डॉक्टर होमी भाभा उल्लेख भी करते हैं.

'अ नाईट ऑफ प्रोफेसी' फिल्म का चित्रण ''दादर के पुल के नीचे'' कविता पर है. इस फिल्म के निर्माता अमर कंवर के दक्षिण अफ्रीका में पत्रकारों से एक भेंटवार्ता में प्रकाश के काव्य जगत पर भाष्य करते हुए कहा, ''प्रकाश जाधव की कविताएं न्याय की अनुपस्थिति का कथन हैं. भविष्य में जारी युद्ध अपराध के लिए न्याय की गुहार और गवाह है. न खत्म होने वाली कहानियों की शुरुआत है.''

बार-बार निर्वासित होने से तंग आकर
मनुष्य अराजकता की ओर बढ़ता है
इस संदर्भ में
शब्द भी नहीं बच पाए हैं.

अणु अस्त्र के प्रकाश में
बिनदास्त रचे जा रहे हैं महाकाव्य

प्रत्येक प्रदेश एक-दूसरे से 
दूर फेंके जा रहे हैं :

और मनुष्य की 
बची-खुची सहनशीलता को
ठेला जा रहा है

लोगों के विस्थापन और भयानक दहशत के नीचे गुजर-बसर करने की महाजटिल हालातों को लादने वालों से वह ठेठ प्रश्न करता है –

दहशत की भयानक यातना के
नीचे पिस रहे हैं लोग
और धांसू हो गए हैं ये शब्द
उथली संकल्पना की
दुकान को ठोकर मार कर पूछो

और -
पूछो मजदूरों से,
कारखानदारों से,
दार्शनिकों से,

जिस-किसी नर-माता ने
समागम जैसे अश्लीलता के आड़ में
सृजनशीलता का उदात्त इमला रचा था
उन लोगों के महान नाम बताओ
उनकी राष्ट्रीयता बताओ

बताओ.... बताओ....

आठवें दशक में यह प्रखर कवि ज़िंदा था और नौवें दशक में मानसिक बीमारी की वजह से गुमनामी की जिंदगी में चला गया. उनका यह काल बहुत भयावह दौर से गुजरा. प्रकाश ने कविता के साथ-साथ सभी सामाजिक प्राणियों को अलविदा कर दिया था. बदनसीबी है कि मराठी के कवि और समीक्षकों ने उनकी दखल नहीं ली. लेकिन विश्व पटल पर उनकी खो गयी कविताओं पर समीक्षा और फिल्मकार की दखलअंदाजी ने उनके साहित्य की ठंडी पड़ गई आग के नीचे दबी हुई चिनगिओं की आंच की गरमाहट महसूस की.

और इसी आंच को तलाशने वाले सुबोध मोरे, तुलसी परब और श्रीधर पवार ने प्रकाश की बची-खुची कविताओं को खोजा और एक पांडुलिपि तैयार की. संकलन आने वाले समय में एक बार फिर से कवि को उस पृष्ठभूमि में दाखिल होने का अवसर देगा.



1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुंदर पोस्ट !