अध्यक्ष
महोदय
-शरद
जोशी
हर
शहर में कुछ अध्यक्ष किस्म के लोग पाए जाते हैं. यह शहर के साइज़ पर निर्भर करता है
कि वहां कितने अध्यक्ष हों. छोटे शहरों में एक या दो व्यक्ति ऐसे होते हैं जो हर
कहीं अध्यक्षता में लगे रहते हैं. इसका कारण शायद यह हो कि शेरवानी हर आदमी नहीं
सिलवा पाता. जो सिलवा लेते हैं, उनकी अध्यक्षता
चल निकलती है. पेशेवर अध्यक्षों के पास प्राय: दो शेरवानियां होती हैं. दो
शेरवानियों से लाभ यह है कि अगर एक धुलने चली गई है तो भी वे अध्यक्षता से इंकार
नहीं करते. दूसरी पहनकर चले जाते हैं. सड़े टमाटर और अंडे फेंककर दाद देने का रिवाज
जब से चल पड़ा है, शेरवानियां धुलवाना हर मीटिंग के बाद आवश्यक
हो गया है.
अध्यक्ष
प्राय: गंभीर किस्म का प्राणी होता है या उसमें यह भ्रम बनाए रखने की शक्ति होती
है कि वह गंभीर है. जिस शाम उसे अध्यक्षता करनी होती है,
वह तीन-साढ़े तीन बजे से गंभीर हो जाता है. कुछ तो सुबह नौ बजे से ही
गंभीर हो जाते हैं. ठीक भी है. नौ बजे सुबह से गंभीर हो जाने वाला व्यक्ति रात के
आठ बजे तक मनहूस हो जाता है जो कि अच्छे अध्यक्ष होने की पहली शर्त है. अच्छा
अध्यक्ष मनहूस होता है, बल्कि कहना होगा कि मनहूस ही अच्छे
अध्यक्ष होते हैं.
अध्यक्ष
बनने वाले कई तरह से अध्यक्ष बनते हैं. कुछ चौंककर अध्यक्ष बनते हैं,
कुछ सहज ही अध्यक्ष बन जाते हैं, कुछ दूल्हे
की तरह लजाते-मुस्कुराते हुए अध्यक्ष बनते हैं. कुछ यों अध्यक्ष बनते हैं, जैसे शहीद होने जा रहे हों. कुछ हेडमास्टर की अदा से अध्यक्ष बनते हैं तो
कुछ ऐसे सिर झुकाए बैठे रहते हैं जैसे मंडप में लड़की का बाप बैठता है. अध्यक्षता
करता अध्यक्ष प्राय: हर पांचवें मिनट में मुस्कुराता है. हर ढाई मिनट पर वह वक्ता
की तरफ देखता है. हर एक मिनट बाद वह सामने की पंक्ति में बैठे लोगों को और हर दो
मिनट बाद महिलाओं को. इस बीच वह छत की तरफ भी देखता है. ठुड्डी पर उंगलियां फेर
सोचता है कि शेव कैसी बनी?
अच्छे
अध्यक्षों की अदा होती है कि वे प्रमुख वक्ता से असहमत हो जाते हैं. जैसे वक्ता ने
भाषण में कहा कि अभी रात है तो अध्यक्ष महोदय अपने भाषण में कहेंगे कि अभी मेरे
विद्वान मित्र ने कहा कि इस समय रात है. और एक तरह से कहा जा सकता है कि अभी रात
है. हो सकता है कि आप में से कुछ लोग इस बात को मानते हो कि अभी रात है,
मगर फिर भी एक सवाल हमारे सामने आता है कि क्या यही रात है? दृष्टिकोण में अंतर हो सकता है, आप कुछ सोचते हैं,
मैं कुछ सोचता हूं. फिर भी एक बात हमें मानती होगी और मैं इस पर जोर
देना चाहूंगा कि आज आप देश की स्थिति देख रहे हैं. जो कुछ हो रहा है, हमारे सामने हैं. ऐसी स्थिति में यह कहना कि यह रात है, क्या समय के साथ न्याय करना होगा? और अगर एक बार मान
भी लिया जाए कि यह रात है तो मैं पूछना चाहूंगा कि फिर दिन क्या है? मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि हम सब ठंडे दिमाग से सोचें और सभी पक्षों
पर विचार कर निर्णय लें. मैं वक्ता महोदय का आभारी हूं कि उन्होंने अपने आेजस्वी
भाषण में यह कहकर कि इस समय रात है, एक अत्यंत सामाजिक और
गंभीर समस्या की ओर हम सबका ध्यान खींचा है. अंत में मैं आभारी हूं आप सबका कि
आपने मुझे अध्यक्ष बनाया, यह सम्मान दिया और शांतिपूर्वक
सुना. इतना कहकर मैं सभा की कार्यवाही समाप्त घोषित करता हूं, क्योंकि अब रात काफी हो गई है. धन्यवाद!
इसके
बाद अध्यक्ष महोदय मुस्कुराने लगते हैं. गंभीरता का जो बांध उन्होंने सुबह नौ बजे
से बांधा था, एकाएक टूट पड़ता है और वे
मुस्कुराते हैं. धीरे-धीरे सभा भवन एक विचारहीन दिमाग की तरह खाली हो जाता है. सब
घर चले जाते हैं.
4 comments:
बहुत बढ़िया पोस्ट हमेशा की तरह :)
यह हास्य-व्यंग्य रचना मध्यप्रदेश पाठ्यपुस्तक निगम की बारहवीं कक्षा की विशिष्ट हिन्दी में है । जितनी बार पढ़ी है बरबस ही वाह निकलती है । असहमति के लिये दिया गया भाषण तो कमाल है ।
शरद जोशी के व्यंग्य काटने छील कर रख देते हैं -न कहा जाय न सहा जाय !
बार-बार पढ़ने के बाद भी आनन्द कम नहीं होता। यहाँ प्रस्तुत करने का आभार।
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