न्याय अपने आप में एक जटिल विषय है. इतिहास में न्याय को हमेशा
सत्ताशाली वर्गों ने अपने अनुसार परिभाषित किया है. आज देश-भर की जेलों में हजारों लोग फर्जी मुकदमों और बिना
ट्रायल के बंद हैं. इनमें कई राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और उसके अलावा अक्सर
अल्पसंख्यक समुदाय, दलित और आदिवासियों की संख्या बहुतायत
में है.
बीते 23 अगस्त 2013 को महाराष्ट्र पुलिस ने जेएनयू के छात्र रहे संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की अहेरी स्टेशन से गिरफ्तारी दिखाई. साथ में दो आदिवासी युवकों को भी गिरफ्तार दिखाया गया. लेकिन उस वक्त भी यह कहा गया कि हेम मिश्रा की यह गिरफ्तारी दरअसल 23 अगस्त 2013 को महाराष्ट्र के ही बल्लहारशाह रेलवे स्टेशन से हुई थी. 3 दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने, उन्हें बल्लहारशाह से लगभग 300 किमी दूर अहेरी बस स्टैंड के पास गिरफ्तार किए जाने का दावा किया.
इतने लंबे समय तक इस मामले में हेम मिश्रा का कोई भी सीधा वर्जन अब तक नहीं आया था. लेकिन उन्होंने पिछली 16 सितंबर को नागपुर सेंट्रल जेल से अपने पिता को लिखे एक पत्र के साथ ही संलग्न, एक सार्वजनिक पत्र में अपनी आप-बीती बताई है. हेम मिश्रा की कलम से जानिए उनकी आप-बीती...
(http://www.patrakarpraxis.com से साभार)
नागपुर
सेन्ट्रल जेल से हेम मिश्रा का पत्र
दोस्तो,
पिछले
महीने अगस्त की 20
तारीख को महाराष्ट्र की पुलिस द्वारा मेरी गिरफ्तारी किए एक साल
पूरा हो गया है. एक संस्कृतिकर्मी और दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू
विश्वविद्यालय के छात्र रहने के बावजूद मुझ पर यूएपीए (गैर कानूनी गतिविधि निवारण
कानून) की विभिन्न धाराएं लगाई गई हैं. और नागपुर सेंट्रल जेल के अति सुरक्षा
विभाग (High Security Cell) ''अंडा सेल'' की तनहाइयों में रखा गया है. महाराष्ट्र के गढ़चिरौली सत्र न्यायालय (Session
Court) ने 6 सितंबर 2014 को मेरी जमानत की अर्जी भी खारिज कर दी है. नागपुर सेंट्रल जेल की इन बंद
दीवारों के बीच मुझे न्यायालय से न्याय की किरण फूट पड़ने की उम्मीद थी. लेकिन,
न्यायालय ने मेरी जमानत याचिका खारिज कर मेरी इन उम्मीदों पर विराम
लगा दिया है.
न्यायालय
का यह आदेश प्रकृति द्वारा मुझे दिए गए खुली हवा में जीने के अधिकार के खिलाफ जाता
है. आज जनवाद व न्यायपसंद लोगों के संघर्षों की बदौलत सत्ता के शिकार जेलों में
बंद हजारों हजार लोगों की जमानत जल्द से जल्द सुनिश्चित किए जाने के अधिकार का
सवाल एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है. जिसके चलते सर्वोच्च न्यायालय भी इसी नतीजे पर
पहुंची है कि सभी न्यायाधीन बंदियों की जमानत के इस अधिकार को सुनिश्चित किया जाना
चाहिए. और समय समय पर अपने अधीन न्यायालयों को इस संबंध में दिशा निर्देश भी देते
रही है. इसके बावजूद भी सत्र न्यायालय ने मुझे जमानत देने से इनकार कर मुझसे यह
अधिकार छीन लिया है. और मुझ जैसे संस्कृति कर्मी को जेल की इन बंद दीवारों के बीच
तनहाइयों में रहने को विवश कर दिया है .
पिछले
साल अगस्त महीने में अपनी गिरफ्तारी से पहले मैं नई दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू
विश्वविद्यालय का छात्र था. विश्वविद्यालय में पढ़ाई के साथ साथ, देश दुनिया के ज्वलंत विषयों पर होने वाले सेमीनार, पब्लिक
मीटिंग, चर्चाओं छात्रों के जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष व जातीय उत्पीड़न, कारखानों में मजदूरों के शोषण,भूमि अधिग्रहण कर किसानों को उनकी जमीन से बेदखल किए जाने, महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, जनवादी आंदोलनों पर दमन और साम्राज्यवाद द्वारा जनता पर थोपे जा रहे
युद्धों के खिलाफ होने वाले संघर्षों में भागीदारी मरे
छात्र जीवन का हिस्सा थी. छात्रों के इन संघर्षों में सांस्कृतिक प्रतिरोध को
अनिवार्य मानते हुए एक संस्कृतिकर्मी के रूप में जनता के संघर्ष के गीतों व नाटकों
के जरिए मेरी भागीदारी रहती थी.
एक
संस्कृतिकर्मी के रूप में मेरे इस सफर की शुरूआत उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा शहर
से हुई. मुझे याद है जब मैं अल्मोड़ा से तकरीबन 30 किमी दूर
एक अत्यंत पिछड़े हुए अपने गांव से स्कूल की पढ़ाई के लिए इस शहर में आया था,
तब पृथक उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए आंदोलन चल रहा था. आंदोलन में
शामिल नौजवान अक्सर स्कूलों को भी बंद करवाकर हजारों की संख्या में स्कूली छात्रों
की राज्य आंदोलन की रैलियों में भागीदारी करवाते थे. इस तरह मैं भी राज्य बनाने के
लिए चल रही इस लड़ाई का अंतिम दौर में हिस्सा हो गया. उस आंदोलन में समाज के हर
तबके के लोग शामिल थे. छात्र, अध्यापक, कर्मचारी, महिलाएं, मजदूर,
किसान, लेखक, पत्रकार,
वकील और संस्कृतिकर्मी इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी कर रहे
थे. विकास से कोसों दूर उत्तराखंड की महिलाओं के दर्द, युवाओं
की बेरोजगारी की पीड़ा, पलायन, बराबरी
पर आधारित समाज के सपने और जनवादी उत्तराखंड के निर्माण की रूपरेखा को अपने गीतों
में समाये हुए मशहूर रंगकर्मी गिरीश तिवारी गिर्दा को हजारों हजार जनता के बीच गाते
हुए देखना मुझे इन सांस्कृतिक गतिविधियों की ओर खींच लाया.
स्कूली
पढ़ाई के बाद जब मैं उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज में आया मैंने देखा कॉलेज में
उत्तराखंड राज्य आंदोलन से उद्वेलित कई नौजवान अपनी पढ़ाई के साथ-साथ छात्रों के
हकों की लड़ाई व एक जनवादी उत्तराखंड के निर्माण की लड़ाइयो में भागीदारी कर रहे
थे. बराबरी पर आधारित शोषण-विहीन समाज का सपना संजोए, इन छात्रों के साथ मैं भी उन संघर्षों में भाग लेने लगा. जनगीत नाटक व
अन्य सांस्कृतिक गतिविधियां इन संघर्षों का प्रमुख हिस्सा बन गए थे. जिनके जरिए हम
छात्रों को उनके अधिकारों और समाज में चारों ओर हो रहे शोषण, अन्याय व उत्पीड़न के बारे में जागरूक करते थे.
पृथक
राज्य बन जाने के बाद भी उत्तराखंड के पहाड़ों में
कुछ भी नहीं बदला. बड़ी-बड़ी मुनाफाखोर कंपनियों द्वारा यहां के प्राकृतिक
संसाधनों की लूट खसोट जनता को उनकी जमीन से बेदखल किया जाना, सरकारों द्वारा बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं पास कर नदियों को
देशी-विदेशी कंपनियों के हवाले कर देना, पर्यावरण के नाम पर
सेंचुरी और बड़े पार्क बनाकर जनता को उनके जंगलों पर अधिकारों से वंचित किया जाना,
शिक्षित-प्रशिक्षित युवाओं का बेरोजगारी के जलते पलायन, महिलाओं पर अत्याचार, जातीय उत्पीड़न, प्राइवेट कंपनियों में मजदूरों के श्रम की लूट, ये
सब कुछ पहले की तरह ही जारी रहा. राज्य में बड़े-2 भूमाफिया,
शराब के तस्कर, दिनों दूरनी रात चैगूनी गति से
पनपने लगे. सत्ता के नशे में चूर सरकारें जनता के दुखदर्दों से बेखबर ही रहीं.
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान खटीमा, मंसूरी व मुजफ्फरनगर
में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवाने वाले और महिलाओं के साथ बलात्कार करवाने के
लिए जिम्मेदार अधिकारियों का कुछ नहीं हुआ बल्कि उन्हें तरक्की ही दी गई.
इस
सबसे पैदा हुए असंतोष के कारण इन सवालों को लेकर फिर से अलग-2 आंदोलन होने लगे. मेरा भी इन आंदोलनों में हिस्सा लेना जारी रहा. इन्हीं
आंदोलनों के दौरान कई छात्र साथियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं,
भूमिहीन किसानों मजदूरों व महिलाओं को राजद्रोह जैसे काले कानूनों
में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. इन साथियों की रिहाई के लिए हुए आंदोलनों में
भी मैंने बराबर भागीदारी की.
उत्तराखंड
के कुमाऊं विश्वविद्यालय में गणित विषय के साथ स्नातक व पत्रकारिता एवं जनसंचार में पीजी डिप्लोमा करने के बाद मैं वर्ष 2010
में चीनी भाषा की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली के प्रतिष्ठित संस्थान
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय आ गया. जेएनयू में पढ़ाई के दौरान मुझे मशहूर
चिकित्सक डा. प्रकाश आम्टे के बारे में पता चला. महाराष्ट्र के भमरागढ़ में बेहद
पिछड़े इलाकों में आदिवासियों के बीच उनके स्वास्थ के क्षेत्र में किए गए कार्यों
से प्रभावित होकर मैं उनसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था.
अपनी
इसी उत्सुकता के चलते मैं 19
अगस्त 2013 को उनसे मिलने के लिए दिल्ली से
चला आया. अगले दिन यानी 20 अगस्त 2013 को
तकरीबन सुबह 9:30 बजे बल्लारशाह रेलवे स्टेशन पर ट्रेन
से उतरने के बाद मैं भमरागढ़ के हेमलकसा में स्थित डा. आम्टे के अस्पताल जाने के
लिए वाहन ढूंढने रेलवे स्टेशन से बाहर जाने ही वाला था, तभी
किसी ने अचानक पीछे से आकर मुझे अपने हाथों से मजबूती से पकड़ लिया. इससे पहले कि
मैं कुछ समझ पाता कि मुझे कोई इस तरह क्यों पकड़ रहा है एक के बाद एक 10-12
और लोग आकर मुझ पर झपट पड़े. ऐसी स्थिति में अपने साथ कुछ बुरा होने
वाला है सोचकर मैं जोर जोर से चिल्लाने लगा ताकि आस पास से कोई मेरी तदद के लिए आ
जाए. मेरे चिल्लाने से खुद को खतरा समझ इन लोगों ने अपने हाथों से मेरा मुंह बंद
कर दिया. और मुझे कुछ कदम की दूरी पर खड़ी एक टाटा सुमो नुमा वाहन में ठूंसकर वहां
से ले गए. मुझे पता नहीं था कि ये लोग कौन हैं और मुझे इस तरह अपहरण कर कहां ले जा
रहे हैं. कुछ ही देर में मेरी आखों सहित पूरे चेहरे को एक काले कपड़े से बांध दिया
गया और उनमें से एक ने मेरे दोंनों हाथों को कसकर पकड़ लिया ताकि न तो मैं देख
सकूं, कि मुझे कहां ले जाया जा रहा है. और ना ही अपने हाथों
से उनके लात-घूसों से अपना बचाव कर पाऊं. चलते हुए, वाहन में
मुझे इस तरह पकड़ लिए जाने और कहां ले जाया जा रहा है यह जानने की कोशिश करने पर
जवाब में गालियां, धमकी और लात घूसों से मार पड़ती.
इसी
तरह लगभग एक घंटे बाद उनमें से किसी एक ने मेरे चेहरे से काले कपड़े को हटाकर अपना
आइ कार्ड दिखाया तब मुझे मालूम चला मेरा इस तरह अपहरण करने वाले कोई और नहीं बल्कि
खुद गढ़चिरौली पुलिस के स्पेशल ब्रांच के लोग थे. मुझे कहां ले जाया जा रहा है
मुझे अब भी इसकी जानकारी नहीं दी गई. इसके लगभग दो घंटे बाद मुझे गाड़ी से उतारकर
मेरी आंखों से काली पट्टी हटा दी गई.
काली
पट्टी हटा दिए जाने के बाद मैंने देखा मेरे बांयी ओर एक बड़े मैदान में एक हैलीकाप्टर
खड़ा है और उसके आस-पास वर्दी में कुछ पुलिस के सिपाही चहलकदमी कर रहे हैं. मेरे
दांयी ओर कुछ सरकारी बिल्डिंग्स और मेरे सामने की ओर भी कुछ बिल्डिंग थी. उनमें से
एक बिल्डिंग की पहली मंजिल में मुझे ले जाया गया और कमरे में थोड़ी देर रखने के
बाद एक अन्य कमरे में ले जाया गया. उस कमरे में ले जाते वक्त मेरी नज़र उस कमरे के
बाहर लगी एक नेमप्लेट पर पड़ी. तब जाकर मुझे पता चला कि मुझे गढ़चिरौली पुलिस
हैडक्वार्टर में तत्कालीन एसपी सुवैज हक के केबिन में ले जाया जा रहा है. केबिन
में एक आलीशान चेयर पर बैठे सुवैज हक को मैंने अपना परिचय दिया और मुझे बिना कारण
इस तरह गैर कानूनी तरीके से पकड़ लिए जाने का कारण पूछा. सुवैज हक भी खुद मुझे
धमकियां देने लगे. थोड़ी ही देर बाद दो स्थानीय ग्रामीण युवकों को वहां लाया गया.
दरअसल,
इन युवकों को मेरी ही तरह कहीं पकड़कर यहां लाया गया था. ये वही
आदिवासी युवा हैं जिन्हें पुलिस मेरे साथ गिरफ्तार किए जाने का दावा कर रही है.
मेरे सामने उन युवकों के साथ जिस तरह बर्ताव किया जा रहा था उससे मैं समझ गया
पुलिस द्वारा मुझे इस तरीके से पकड़ने के पीछे क्या मंसूबे हैं.
इसके
बाद मुझे दूसरे कमरे में ले जाया गया, जहां अगले तीन
दिनों तक मुझ पर पुलिसिया उत्पीड़न के हर तरीके इस्तेमाल किए गए. बाजीराव (जिससे
मारने पर शरीर में अधिकतम चोट लगती है और घाव भी नहीं दिखाई पड़ते) से मारा गया.
पावों के तलवों में डण्डों से मारा गया. लात-घूंसों से मारा गया और हाथों से पूरे
शरीर को नोंचा जाता. इन सब तरीकों से तीन दिनों तक बेहोशी की हालत तक हर रोज मारा
जाता था. इन तीन दिनों में एक पल के लिए भी सोने नहीं दिया गया. इन क्रूर यातनाओं
भरे तीन दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद मुझे दिनांक 23/08/13 को अहेरी पुलिस थाने के लाॅकअप में ला पटका. इस तरह पकडे जाने के लगभग 80
घंटों के बाद अहेरी के मजिस्ट्रेट कोर्ट में पेश किया गया. मेरे
द्वारा बार-बार कहे जाने के बावजूद पुलिस ने अब तक मेरे घर में मुझे पकड़ लिए जाने
की सूचना भी नहीं दी गई थी. जब मैंने कोर्ट में मजिस्ट्रेट से खुद मेरे घर में
सूचना देने की बात कही तब पुलिस ने कोर्ट से ही मेरे परिचितों को सूचना देनी पड़ी.
इस दिन मजिस्ट्रेट कोर्ट से मुझे 10 दिनों के लिए पुलिस
हिरासत में ले लिया गया. मुझे 20 अगस्त 2013 को बल्लहारशाह रेलवे स्टेशन से पकड़कर 3 दिनों तक
अवैध हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने कोर्ट और मीडिया ने मुझे बल्लहारशाह से लगभग
300 किमी दूर अहेरी बस स्टैंड के पास गिरफ्तार किए जाने का
दावा किया. दरअसल पूरी तरीके से झूठे इस दावे का मकसद 3 दिनों
तक मुझे अवैध हिरासत में रखे जाने को कोर्ट और मीडिया के जरिए दुनिया के सामने
मेरी गिरफ्तारी को वैध दिखाना था.
2
सितंबर 2013 को पुलिस द्वारा कोर्ट पेशी में
मजिस्ट्रेट से मेरी पुलिस हिरासत को और 14 दिनों के लिए बढ़ा
लिया गया. इस तरह कुल 24 दिनों तक मुझे पुलिस हिरासत में रखा
गया. इन 24 दिनों तक मुझे अहेरी पुलिस थाने के एक बहुत ही
गंदे व बद्बू भर लाकअप में रखा गया. लाक-अप में मुझे केवल जिंदा भर रखने के लिए
खाना दिया जाता था. पहले 10 दिनों तक न तो मुझे नहाने दिया
गया और न ही ब्रश करने दिया गया. मुझसे मेरे कपड़े ब्रश, पैसे,
आईकार्ड सब कुछ गिरफ्तारी के समय ही छीना जा चुका था. 2 सितम्बर की कोर्ट पेशी के दिन मेरे पिताजी और दोस्तों द्वारा कपड़े,
ब्रश, साबुन और रोजाना जरूरत की चीजें दी गई
तब जाकर मुझे नहाना, ब्रश करना और इतने दिनों से पसीने में
भीग चुके गंदे कपड़ों को बदल पाना नसीब हुआ.
पुलिस
हिरासत के 24
दिनों में महाराष्ट्र पुलिस, एसटीएस, आईबी, और दिल्ली, उत्तराखंड,
यूपी, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश
की इंटेलीजेंस ऐजेंसियां मुझे ठीक उसी तरह शारिरिक व मानसिक यातनाएं देती रही जिस
तरह तीन दिनों की अवैध हिरासत में दी गईं थी. पुलिस द्वारा मेरे फेसबुक , जीमेल, रेडिफमेल की आईडी, लेकर
इनका पासवर्ड भी ट्रेक कर लिया. मुझे पूरा यकीन है पुलिस और इंटेलीजेंस ऐजेंसियां
अभी भी मेरे ईमेल और फेसबुक अकाउंट का दुरूपयोग कर रही होंगी.
पूरे
देश और दुनिया में मेरी गिरफ्तारी का विरोध होने के बावजूद पुलिस हिरासत में मुझे
यातनाएं देने का सिलसिला जारी रहा. इतना ही नहीं पुलिस की योजना में मुझे और भी
ज्यादा समय तक पुलिस हिरासत में रखना था. और इसके लिए उन्होंने 16 सितम्बर 2013 को मेरी कोर्ट पेशी के दिन कोशिश भी की
लेकिन कोर्ट में मेरे वकील द्वारा हस्तक्षेप करने पर कहीं जाकर इनकी यह कोशिश सफल
नहीं हुई. उस दिन मजिस्ट्रेट ने मुझे इस यातना शिविर (पुलिस हिरासत) में न भेजकर
न्यायिक हिरासत में सेंट्रल जेल भेज दिया.
नागपुर
सेंट्रल जेल पहुंचने पर मुझे जेल के बैरेक संख्या-8 में भेज
दिया गया. यह वही बैरेक है जहां मेरी तरह ही देशद्रोह और यूएपीए जैसे जनविरोधी
कानूनों में गिरफ्तार किए गए महाराष्ट्र के की युनिवर्सिटियों में पढ़ने वाले छात्र-कार्यकर्ताओं,
दलित और लगभग 40 आदिवासी नौजवानों को रखा गया
था. झूठे मामलों में फसाए गए इन आदिवासी नौजवानों की संख्या समय के साथ साथ घटते
बढते रहती है. जेल में धीरे धीरे समय बीतने पर मुझे इन आदिवासी युवाओं से बातचीत
के दौरान, इन्हें महीनों तक पुलिस हिरासत में अमानवीय व
क्रूर तरीके से दी गईयातनओं की कहानियां सुनने को मिलीं.
कानून
की किताबों में जल्द गति से ट्रायल (Speedy Trial) चलाए
जाने का अधिकार दिया गया है. लेकिन, इन आदिवासियों में से
कोई दो तो कोई तीन और कोई पांच सालों से जेल में यातनाएं झेलने को विवश हैं.
न्यूनतम 6 से लेकर अधिकतम 40 तक फर्जी
मामलों में जेल में बंद किए गए इन युवाओं के लिए जमानत की उम्मीद करना तो बेईमानी
होगी. कोर्ट में महीनों तक इनकी पेशी नहीं होती. कभी एक दो पेशी समय से हो भी जाएं
तो अगली पेशी कब होगी इसका कुछ नहीं पता रहता. इनमें से अधिकांश युवाओं के केस
गढ़चिरौली सेशन कोर्ट में चल रहे हैं. मेरा केस भी इसी कोर्ट में चल रहा है. इस
कोर्ट में प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी की व्यवस्था बंद कर दी गई है. प्रत्यक्ष कोर्ट
पेशी के स्थान पर वीडियो कांफ्रेंस के जरिए कोर्ट पेशी की जाती है. जिसके चलते
बंदियों को न तो अपने केस के संबंध में अपने वकील से बात करने का अवसर मिलता है और
नहीं जज से.
इस
तरीके से होने वाली कोर्ट पेशी में केवल अगली कोर्ट पेशी की तारीख का पता मात्र चल
पाता है. अक्सर तकनीकी ख़राबी रहने के कारण यह संभावना भी खत्म हो जाती है. वीडियो
कांफ्रेंस के जरिए पेशी में निष्पक्ष ट्रायल (fair trial) संभव
नहीं है. जिसके परिणाम स्वरूप् हाल ही में दो आदिवासियों को सजा भी हो गई.
जेल
में बंदियों के लिए अपने परिजनों व वकील से मुलाकात जाली लगी खिड़की के जरिए होती
है. जेल के भीतर आकर बंदियों से मुलाकात की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण जाली
लगी इस अत्यंत भीड़-भाड़ वाली खिड़की के जरिए 15-20 मिनट के समय
में बंदियों की दूर-दूर से आने वाले अपने परिजनों और अपने वकील से केस के संबंध
में विस्तृत बात हो पाना बिल्कुल भी संभव नहीं है.
इस
साल 31
जनवरी से जेल में तरह-तरह की यातनाएं झेल रहे 169 जेल बंदियों ने अपनी 4 सत्रीय मांगों को लेकर
अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की. इस आंदोलन में यूएपीए, मकोका,
व मर्डर के आरोप में जेल में बंद न्यायाधीन बंदी शामिल थे. इस
आंदोलन में यूएपीए के केस झेल रही 7 महिलाओं ने भी हिस्सा
लिया. आंदोलन की मांगों, जल्द गति से ट्रायल चलाए जाने,
न्यायाधीन बंदियों की प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी किए जाने, बेल के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों बेल नाॅट जेल, को लागू कर सभी न्यायाधीन बंदियों को जल्द से जल्द बेल दिए जाने जैसी
मांगें शामिल थी. आंदोलन के पहले दिन आंदोलन में भाग ले रहे यूएपीए के केस वाले
बंदियों को जेल के अतिसुरक्षा विभाग (High Security Cell) अंडा
सेल में भेज दिया गया. जिनमें से सात बंदियों (जिनमें
से एक मैं भी हूँ) को 7 महीनों से भी अधिक समय से आज तक भी
अंडा सेल में ही रखा गया है. हमें जेल के अंदर अन्य
बंदियों से मिलने का कोई अवसर नहीं है. अंडा सेल के अंदर बंद दीवारों के बीच बने अत्यंत छोटे-छोटे बैरेक और उनके सामने मात्र 40
मीटर घूमने की जगह ही हमारा संसार है.
पिछले
एक साल में पुलिस हिरासत की यातनाओं और जेल की तनहाइयों के अनुभव व अपनी तरह जेल
में बंद अन्य लोगों की कहानियां जानकर मैं यह महसूस करता हूं कि वे तमाम राजनीतिक
व सांस्कृतिक गतिविधियां समाज एवं मेरे ही तरह जेल में बंद अन्य बंदियों की रिहाई
के लिए कितनी जरूरी हैं. मेरा आप सभी से अनुरोध है, आप मेरी और
विभिन्न जेलों में हजारों की संख्या में बंद आदिवासियों, दलित,
महिलाओं, गरीब मजदूर किसानों, कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिए आवाज़ उठाएं.
दिनांक:
16-09-2014
इसी
विश्वास के साथ-
हेम मिश्रा
यू.टी.न. 56, अतिसुरक्षा विभाग
अंडा सेल, नागपुर सेंट्रल जेल, नागपुर
महाराष्ट्र
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इंसान कहाँ हैं
शायद सो रहा है
अल्लाह देख रहा है
शायद रो रहा है ।
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