(जारी,
इस क़िस्त में समाप्त)
अन्तरा
(
एम. के लिए )
-नीलाभ
२५.
मैं
तुम्हें गाऊंगा, मुझे रोको मत, शब्द, ध्वनियां, वाक्य,
संरचनाएं
यति,
गति और सारे नियम छन्दशास्त्र के ताक पर धर कर
मैं
गाऊंगा तुम्हें. मैं गाऊंगा तुम्हें सुर-ताल-तार और
सरगम
की पाबन्दियों और बन्धनों को भंग
करता
हुआ,
रचता हुआ नये सप्तक,
नयी
बन्दिशें,
मैं तुम्हें गाऊंगा
तुम
मेरे अन्दर बह रही हो राग की तरह
भैरवी
की आंख के काजल की तरह, मारवा के मस्तक के
तिलक
की तरह,
तुम मेरे अन्दर बह रही हो
आग
की तरह,
दावाग्नि की तरह, बाहर आने को व्याकुल,
मैं
तुम्हें गाऊंगा जैसे मैं गाता हूं ब्रह्माण्ड
और
नक्षत्र और राशियां और मन्दाकिनियां और
आकाशगंगाएं,
जैसे मैं गाता हूं किसान की नयी
बहुएं
और उनकी आंखें, और होरी की पत्थर जैसी छाती
और
धनिया की हसरतें
और
सिलिया की देह का ज्वार, उसके आकुल
मन
की पुकार,
लगातार, लगातार....
२६.
मैं
फिर कहता हूं मैंने प्यार किया है तुमसे जैसे हिरन
करता
है मरीचिका से प्यार, कितने ही चेहरों
में
अचानक
देखता हुआ तुम्हारा चेहरा,
या
चेहरे की कोई झलक, सुनता हुआ तुम्हारा
स्वर
जाने
कितने कण्ठों से, महसूस करता
तुम्हारा स्पर्श अजाने
हाथों
से. तुम उतनी ही ज़रूरी थीं मेरे लिए
जितना
मरुथल के बीचोंबीच ताड़ के पेड़ों से घिरा
नीले
शफ़्फ़ाफ़ जल का कोई शाद्वल किसी निहालदे के
सुल्तान
या रेगज़ारों में भटकते रेशमा के
कबीले
के लिए
मैं
तृप्त हुआ हूं तुम में डूब कर,
तुम्हारी
आंच को महसूस करके अपनी त्वचा पर
लेकिन
शाद्वल कितना ही मोहक क्यों न हो
साथ
अन्ततः छूटता ही है उससे
यह
प्रस्थान का समय है,
कठिन
वेला विदा की, जब चलना है अगले
सफ़र
पर अगले कारवां के साथ अगली मंज़िल की ओर
अपनी
स्मृति में संजोये तुम्हारे होंटों की मन्द स्मिति
तुम्हारी
नाचती हुई कली पुतलियों की चमक,
तुम्हारी
देह का स्पर्श, स्वर तुम्हारे कण्ठ का
अलविदा
अनिवार्य है, चाहे कोई कहे आना, फिर आना
और
दूसरा,
आऊंगा, फिर आऊंगा....
२७.
जब
शब्द ख़ामोशियों को जन्म दें तो अन्त में
ख़ामोशियां
ही जीतती हैं, प्रेम नफ़रत में नहीं बदलता,
उसकी
जगह लेती है उदासीनता, निवेदन
अनसुना
रह जाता है और चुप्पी भरे इनकार की
चीख़
गूंजती है गगन में, मन में जो बाक़ी रह
गया होता है
कहने
को,
वो बाक़ी ही रह जाता है अज़ल तक,
स्फटिक
की पारदर्शिता में छुपा हुआ, न इधर से
दिखता,
न उधर से
मैं
शायद इन्तज़ार करूंगा कल्पान्तरों के उस छोर पर भी
इलेक्ट्रिक
हवाओं पर उड़ कर आते
तुम्हारे
सन्देश का, जानता हुआ कि हमारे ऐंटेना ही
घूमे
हुए हैं विपरीत दिशाओं में
जानता
हुआ कि शायद अन्तरिक्ष की आपा-धापी में
उनका
तालमेल सम्भव हो ही न पाये...
२८.
तुम
अब अपनी कक्षा में हो नीहारिकाओं के पार और मैं
धीरे-धीरे
बदल रहा हूं एक काले सितारे में
अपने
ही भीतर सिमटता हुआ
सब
कुछ खींचता हुआ एक ब्रह्माण्डीय श्वास की तरह
अपने
अन्दर और जल्द ही
मेरा
प्रकाश भी नहीं पहुंचेगा तुम तक
कितनी
जल्दी अजनबी होते चले जा रहे हैं हम
एक
दूजे के लिए, लेकिन तुम्हारी अजनबियत में भी
यह
कैसा
जाना-पहचानापन है मानो हम खेल चुके हों यह नाटक
पहले
भी कई बार अलग-अलग रूपों में
अलग-अलग
भूमिकाओं में, अलग-अलग आकाश-गंगाओं पर
जीवन
और जगत और राग और विराग के सत्य को
सच्चा
साबित करते हुए, और क्या पता
दोबारा
भी खेलें जब मैं फिर से जन्मूं किसी नये
सितारे
कि शक्ल में, किसी नये सौर-मण्डल में और
तुम
अपनी कक्षा में इस बार की तरह ही
नाचती
हुई आओ फिर से मेरे पास...
1 comment:
बहुत सुंदर वाह !
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