(जारी)
अन्तरा
(
एम. के लिए )
-नीलाभ
१६.
जानती
हो मैंने प्यार किया है, प्यार में
बेवफ़ाइयां की हैं,
बेवफ़ाइयां
सही हैं,
प्यार न करने की क़समें
खायी
हैं,
क़समें खाने के बाद
उन्हें
तोड़ दिया है, बार-बार,
मैं
प्यार करके पछताया हूं, पछताया हूं
बेवफ़ाइयां करके,
बेवफ़ाइयां
सह कर,
प्यार न करने की क़समें खा कर
और
अब मैं ने अपने आप को अपनी क़िस्मत के
हवाले
कर दिया है,
क्योंकि
बेवफ़ाइयां करने से हमेशा बेहतर है बेवफ़ाइयां सहना,
प्यार
न करने की क़समें खाने से
बेहतर
है प्यार न करने की क़समें तोड़ना,
प्यार
न करने से बेहतर है
प्यार
करना....
१७.
क्या
तुम्हें मालूम है मैंने बचपन से मौसमों को इस तरह जाना है
जैसे
मैं अपनी देह को जानता हूं
जानता
हूं अपनी आत्मा को
झंझा
तूफ़ान की फ़िज़ा थी जब मैं दाख़िल हुआ
धूम-धड़ाके
से इस दुनिया में,
और
तब से आंधी-पानी से मेरा सगोत्रीय
सम्बन्ध
रहा है,
मौसम की आंधियों से ले कर
जीवन
की आंधियों तक,
जाने
कितनी बार मैं भटकता हुआ भीगा हूं
धारासार
वर्षा में याद करता हुआ
पुराने
चेहरे,
बीती हुई देहें,
ग्रीष्म
की हू-हू करती हुई लू और शिशिर की
हड्डियां
चीरती हवा
मेरे
लिए एक सी रही है
हर
नयी मुलाका़त एक नयी आंधी ले कर आती रही है
हर
नया बिछोह एक नया प्रभंजन
न
आंधियां थकी हैं, न मैं ने अपनी तेक
छोड़ी है
अब
भी तलाश है मुझे उस मौसम की
जिसमें
किया जा सके प्रेम....
१८.
यह
दुनिया जीतने वालों की दुनिया है, मनु;
जीतने
वालों का इतिहास, जीतने वालों की
गाथाएं,
हारने
वालों का कोई निशान बाक़ी नहीं रहता,
रहे
आये हैं वे सिर्फ़ कवियों की स्म्रृतियों में जो उन्हें
जीवित
करते रहते हैं बार-बार कभी किसी पहाड़ खोदने वाले
की
शक्ल में,
किसी मिर्ज़ा, किसी रांझे, किसी
पुन्नू
की नाकाम कहानी को कामयाबी की मंज़िलों
पर
बैठाते हुए, किसी स्पार्टाकस, किसी विरसा,
किसी
लक्ष्मी या झलकारी बाई को
सिकन्दरों
और चंगेज़ों से बड़ा दर्जा देते हुए,
भील,
कोल, किरात, ओंगी,
हो, जारवा और सेन्टिनल जैसी
विस्मृत,
विलुप्तप्राय जातियों को अक्षुण्ण रखते हुए जातीय स्मृति में,
मैं
ने भी अब जीतने का ख़याल छोड़ दिया है, मनु,
हार
गया हूं तुम्हारे हठ और अपनी कामना के हाथों,
कि
हो सकूं दर्ज किसी वृत्तांत, किसी गाथा,
किसी आख्यान में शायद....
१९.
आओ
चल दें सब कुछ छोड़ कर ऐसे का ऐसा
तुम
अपनी ख़बरों की दुनिया, मैं अपना शब्दों का
संसार
इन्तज़ार
किस बात का है
क्या
अब भी शब्दों और ख़बरों की ज़रूरत
रह
गयी है हमें ?
क्या
ज़रूरत रह गयी है हमें अब
शब्दों
और ख़बरों की ?
आओ
सुनें पत्तियों पर झींसी की ख़बरें,
सीढ़ियों
पर गिरती धूप की बातें
पंक्तियों
के बीच हरहराता सन्नाटा
आओ
चल दें बनजारों की तरह, सदियों पुराने
सहरानवर्दों
की तरह,
अमानचित्रित रास्तों के यात्रियों की तरह
खोजते
हुए सरे-कूए-नाशनासां अपने उस घर का पता
जो
शायद कभी था ही नहीं
आओ
चल दें गुनगुनाते हुए शायर की पंक्तियां
"मेरे
दिल मेरे मुसाफ़िर हुआ फिर से हुक्म सादिर
कि
वतन बदर हों हम तुम दें गली-गली सदाएं"
आओ
चल दें खोजते हुए
किसी
यारे-नामाबर का ठिकाना
जो
पहुंचा सके हमारा पयाम
उस
घर तक जिसका पता हम दफ़्न कर आये हैं
कहीं
यादों के रेगज़ारों में
आओ
चल दें बे-दर-ओ-दीवार का इक घर बनाते हुए
जहां
छत हो खुला आसमान,
न
खिड़कियां हों, न दरवाज़े, न ताले,
एक
उत्सव हो मुसलसल चलता-फिरता
आओ
चल दें फिर से लौटने के लिए नये जिस्मों में,
नये
पतों के साथ, नयी मंज़िलों की तलाश में,
नयी
हसरतों,
दोस्तियों, और हां, नयी
अदावतों के लिए....
२०.
कभी-कभी
मुझे लगता है तुम
मेरी
निजी प्रतिशोध की देवी हो....
1 comment:
वाह बहुत कुछ बहुत अच्छा पढ़ने के लिये मिल जाता है आपकी मेहनत को सलाम :)
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