Tuesday, October 7, 2014

तो ‘फ़ैज़’ ज़िक्र-ए-वतन अपने रूबरू ही सही


आबिदा परवीन गा रही हैं फ़ैज़ साहब की एक ग़ज़ल

 

नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

न तन में खून फ़राहम है न अश्क आंखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्म मैक़दे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही

गर इंतज़ार कठिन है तो जब तक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ्तगू ही सही

दयार-ए-गै़र में मरहम अगर नहीं कोई
तो फ़ैज़ ज़िक्र-ए-वतन अपने रूबरू ही सही

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