(जारी)
अन्तरा
(
एम. के लिए )
-नीलाभ
२१.
अब
भी बाक़ी है ग़मज़दा रात का ग़म,
तेरी
चाहत का भरम अब भी बाक़ी है,
मैं
तरसता हूं तेरी क़ुर्बत को अबस,
अब
भी बाक़ी है तेरी सोहबत का करम,
है
कहां अपना मक़ामे-जन्नत ये बता,
तल्ख़
रातों का सितम अब भी बाक़ी है
बढ़े
आते हैं अंधेरी रात के साये,
निज़ामे-ज़ुल्मो-सितम
का ख़म अब भी बाक़ी है
इस
ज़ुल्मतकदे में किस तरह कटेंगी घड़ियां
अब
भी शिद्दते-ग़म में बाक़ी है, बाक़ी है दम
२२.
तेरी
आवाज़ की परछाईं भी अब नहीं बाक़ी
अब
नहीं बाक़ी तेरे थरथराते जिस्म का लम्स
वो
जज़्बा-ए-जुर्रत दिल का अब नहीं बाक़ी
अब
नहीं बाक़ी उसकी लज़्ज़ते-क़ुर्बत भी कहीं
ढूंढते
हैं इस वीराने में उस के नक़्शे-पा यारब
सुकूने-हयात
की कोई सूरत अब नहीं बाक़ी
दिल
तड़पे है उस रफ़ीक़े-कार से मिलने को
मगर
वो रस्मो-राह पुरानी अब नहीं बाक़ी
२३.
जानती
हो,
जैसे-जैसे उम्र बढ़ने लगती है ज़िन्दगी
और
भी ज़्यादा हसीन लगने लगती है
मंज़िल
उतनी ही दूर
की
गयी अच्छाइयों से ज़्यादा याद आते हैं अनकिये गुनाह
हसरतें
हर रोज़ नया काजल लगाये चली आती हैं
फ़्लाई
ओवर पर औटो से उतरती तन्वी की तरह,
छली
जाती हैं छीजते तन से, बुझे हुए मन से,
जो
देख चुका होता है पर्दे के पीछे की सच्चाइयां,
छली
जाती हैं झूठ बोलने-बुलवाने वाले कायर से
ऐसे
में सिर्फ़ एक ही ख़याल आता है मन में
जिसे
पूरा करने पर रहेगी नहीं सम्भावना
कभी
किसी ख़याल के आने की मन में....
२४.
झुठला
देता है प्रेम गणित के सारे नियमों को,
उस
में कोई सीधी रेखा नहीं होती दो बिन्दुओं को जोड़ने वाली,
न
तिकोन या चतुष्कोण जिनके पात, अनुपात
ग्यात
हों,
या हो सकते हों,
प्रेम
एक व्रित्त है जो नापा जाता है सिर्फ़ पाई से,
पूर्णतः
अविभाज्य संख्या एक, जो स्वयं एक सीमा
के बाद
ख़ुद
को दोहराती चली जाती है अनन्त तक,
चाहे
दांव पर वृत्त का व्यास लगा हो, या त्रिज्या
या परिधि,
हर
बार लौटते हैं हम, बार-बार लौटेंगे हम
परिधि
से केन्द्र और केन्द्र से परिधि की ओर, इस
या उस
रूप
में,
एक दूसरे के पास, हू-हू करती लू में,
धारासार
वर्षा में,आंधी-तूफ़ान में, सर्दियों की
गुनगुनी
सुनहरी धूप में, इस या उस बहाने से अगर
एक
दूजे से प्रेम करने का बहाना अहमियत खो बैठेगा तो,
जब
तक जीवन है तब तक है प्रेम, प्रेम और ज़िन्दगी
के दुख,
मरना,
लड़ना, लौटना,
छुटकारा
कहां....
२५.
मैं
तुम्हें गाऊंगा, मुझे रोको मत, शब्द, ध्वनियां, वाक्य,
संरचनाएं
यति,
गति और सारे नियम छन्दशास्त्र के ताक पर धर कर
मैं
गाऊंगा तुम्हें. मैं गाऊंगा तुम्हें सुर-ताल-तार और
सरगम
की पाबन्दियों और बन्धनों को भंग
करता
हुआ,
रचता हुआ नये सप्तक,
नयी
बन्दिशें,
मैं तुम्हें गाऊंगा
तुम
मेरे अन्दर बह रही हो राग की तरह
भैरवी
की आंख के काजल की तरह, मारवा के मस्तक के
तिलक
की तरह,
तुम मेरे अन्दर बह रही हो
आग
की तरह,
दावाग्नि की तरह, बाहर आने को व्याकुल,
मैं
तुम्हें गाऊंगा जैसे मैं गाता हूं ब्रह्माण्ड
और
नक्षत्र और राशियां और मन्दाकिनियां और
आकाशगंगाएं,
जैसे मैं गाता हूं किसान की नयी
बहुएं
और उनकी आंखें, और होरी की पत्थर जैसी छाती
और
धनिया की हसरतें
और
सिलिया की देह का ज्वार, उसके आकुल
मन
की पुकार,
लगातार, लगातार....
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