Thursday, October 9, 2014

जो तुम से शहर में हो एक दो तो क्यों कर हो


१९५० में जन्मीं मेहनाज़ बेग़म का पिछले बरस 19 जनवरी को इंतकाल हुआ. ग़ज़ल, ठुमरी, दादरा और ख़याल गायकी में अच्छा दखल रखने वाली मेहनाज़ बेग़म की माँ कज्जन बेग़म भारतीय उपमहाद्वीप के संगीत की शास्त्रीय परम्परा से जुड़ा एक बड़ा नाम हुआ करती थीं.
कराची से मायामी, फ्लोरिडा अपने इलाज़ के लिये जाते हुए बहरीन के हवाई अड्डे पर उनका आकस्मिक देहांत हुआ. उन्हें पाकिस्तानी फिल्मों में एक बेहतरीन प्लेबैक सिंगर का स्थान हासिल था और उन्होंने १३ दफा निगार अवार्ड फॉर बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर का खिताब अपने नाम किया था. २०११ में उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया था.
उन्हें देर से ही सही श्रद्धांजलि देते हुए आज उनकी आवाज़ में सुनिए मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल -  



गई वो बात कि हो गुफ़्तगू तो क्यों कर हो 
कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यों कर हो
हमारे ज़हन में इस फ़िक्र का है नाम विसाल
कि गर न हो तो कहाँ जायें हो तो क्यों कर हो
अदब है और यही कशमकश तो क्या कीजे
हया है और यही गोमगो तो क्यों कर हो
तुम्हीं कहो कि गुज़ारा सनम परस्तों का
बुतों की हो अगर ऐसी ही ख़ू तो क्यों कर हो
उलझते हो तुम अगर देखते हो आईना
जो तुम से शहर में हो एक दो तो क्यों कर हो
जिसे नसीब हो रोज़-ए-सियाह मेरा सा
वो शख़्स दिन न कहे रात को तो क्यों कर हो
हमें फिर उन से उमीद और उन्हें हमारी क़द्र
हमारी बात ही पूछे न वो तो क्यों कर हो
ग़लत न था हमें ख़त पर गुमाँ तसल्ली का
न माने दीदा-ए-दीदारजू तो क्यों कर हो
बताओ उस मिज़ां को देखकर हो मुझ को क़रार
यह नेश हो रग-ए-जां में फ़रो तो क्यों कर हो
मुझे जुनूं नहीं "ग़ालिब" वले बक़ौल-ए-हुज़ूर
फ़िराक़-ए-यार में तस्कीन हो तो क्यों कर हो


(ज़ाहिर है मेहनाज़ बेग़म ने इस पूरी ग़ज़ल से तीन-चार ही शेर यहाँ गाये हैं)

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