Tuesday, November 4, 2014

ज्ञानरंजन का इलाहाबाद – १




मेरे प्रिय गद्यकार और सम्पादक ज्ञानरंजन जी की किताब ‘कबाड़ख़ाना’ से कुछ हिस्सों को यहाँ प्रस्तुत करने का मन है. आज से शुरू कर रहा हूँ इलाहाबाद पर लिखा उनका संस्मरण. लेख लंबा है सो दिन में पांच-छः सौ शब्द प्रतिदिन टाइप करके कुछ दिनों में यह पूरा हो सकेगा. धैर्य से पढ़ें. 

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा

-ज्ञानरंजन

इस रचना में मैंने इलाहाबाद की खोज करने की कोशिश की है. लेकिन इस रचना को जीवनी, आलोचना, इतिहास, अथवा स्मृति या कहानी मानना बहुत कठिन है. यह एक प्रकार का बौद्धिक और भावनात्मक उपद्रव है. इसीलिये इसमें कोई तरतीब नहीं है. यह खोज, ल्जीवन के लम्बे समय, गुज़रे समय और अभी भी गुजरते हुए समय के बीच कुछ उसी तरह की है जिस तरह कौशाम्बी, मोहनजोदड़ो, हडप्पा और माच्चू पिच्चू को लेकर की गयी है. मैं जितना समय इलाहाबाद में रहा उतना ही समय इलाहाबाद से बाहर भी रहा. इसीलिये इलाहाबद को मैं पास से भी देख रहा हूँ और दूर से भी देख रहा हूँ. इलाहाबद मेरे लिए गहरे खेद के साथ किसी भूस्खलन में ज़मींदोज़ शहर की तरह है, लेकिन बावजूद इसके, मैं उससे विमुख नहीं हुआ हूँ.

इलाहाबाद पर छठे दशक में केशवचंद्र वर्मा ने एक सीरीज ‘सारिका’ में लिखी थी कॉफ़ी हॉउस को लेकर. फिर कवि श्रीकांत वर्मा ने भी विवरणात्मक लिखा था. नौवें दशक में युवा कवि देवीप्रसाद मेश्र ने इलाहाबाद पर काफी तल्ख़ टिप्पणी के साथ लिखा. सुना है कि इलाहाबाद संग्रहालय ने भैरवप्रसाद गुप्त का ऑडियो रिकार्ड भी इस बारे में कराया है. पर ये सब टुकड़े थे और टुकड़ा-टुकड़ा उच्छ्वास था या एक प्रकार की विवरणात्मक रिपोर्टिंग. हिन्दुस्तान के तीन बड़े नगर कलकत्ता, दिल्ली और मद्रास पर कई टिप्पणियाँ हैं. खुशवंत सिंह, दिनकर, ग़ालिब, सत्यजित रे, रघुवीर सही ने तो टिप्पणियाँ भी की हैं और किताब भी लिखी हैं. इसी तरह खुशवंत सिंह ने भी. इन टिप्पणियों या किताबों को मैं आपत्तिजनक नजर से देखता हूँ क्योंकि इनके पीछे नगरों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की गहरी चूक है. या ये रचनाकार नगरों के लिए जीवन के अंत में भी अटपटे रहे. इनमें देवीप्रसाद मिश्र सबसे युवा है और शहर के बारे में एक रचनाकार की यह सोच हिन्दी में एक प्रकार की मध्यवर्गीय दुर्घटना है. वैसे भी हिन्दी के असंख्य रचनाकार अपने वर्ग और अपनी स्थानिक सीमाओं के भीतर ही कुलबुलानेवाले रचनाकार हैं. मैं यह सवाल एक जिद के साथ करता हूँ और अपने से भी करता हूँ कि रघुवीर सहाय ने ‘दिल्ली मेरा परदेस’ क्यों लिखा? वे शहर से शहर में आये थे. परदेस तो कृष्ण भी गए और राम भी कहाँ-कहाँ नहीं भटके? गांधी जहां से आये वहां लौट नहीं सके. असंख्य भारतीय और गैर-भारतीय साहित्यिक विभूतियों ने पलायन किया और नए स्थान चुने. मुंशी लोग भले अपनी जगहें न छोड़ते हों पर कवियों, कथाकारों और चित्रकारों ने ऐसा विशाल पैमाने पर किया है. और वे रोये नहीं हैं. लेकिन आधुनिक समाज में रहते हुए एक सम्पन्न जीवन जीते हुए हमारे कवि इतना खिन्न और बर्बाद क्यों रहते हैं और वह भी देश के ही परदेश में.

मुझे ‘शहर अब भी सम्भावना है’ बहुत अच्छा शीर्षक लगता था और आज भी यह अच्छा लगता है. यह अशोक वाजपेयी के कविता-संग्रह का शीर्षक है. और यह भी एक दुर्घटना ही है कि ऐसे शानदार प्रारम्भ के बावजूद कवि शहर की संभावनाओं और खोज, और उम्मीद की जगह अपनी काव्य-यात्रा में देह की संभावनाओं की तरफ निकल गया.

इन रचनात्मक, बेतरतीब से नोट्स में मैंने निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध, धर्मवीर और मलयज को, कुछ वास्तविकताओं और कुछ कल्पनाओं से (शहर की पृष्ठभूमि में) याद करने का प्रयास किया है. वे बहुत कम उमर के दिन थे. वे लगभग स्वच्छन्दता के दिन थे. इसलिए तथ्य हिलते-डुलते भी नजर आएँगे पर शहर की आत्मा में जो छवियाँ मुझे उस समय नज़र आई थीं वे आज भी हिल-डुल नहीं रही हैं. 
         

(जारी)