(पिछली क़िस्त से आगे)
लगभग एक निरंतर समय के दायरे में और
पचास साल के दायरे में, शायद ही दुनिया के लिसी नगर में इतनी विभूतियाँ, इतने
अद्वितीय युग-निर्माता रचनाकार हुए होंगे जितने इलाहाबाद ने दिए. पता नहीं पेरिस
में क्या था लेकिन आज़ादी के बाद एक चलतू मुहावरे में लोग इलाहाबाद को पेरिस की तरह
याद करते थे. कभी पेरिस संसार के चित्रकारों का स्वप्न था. इसमें रचनाकार और शहर
दोनों का दर्प झलकता था. एक भव्य सूची भी एक सूचीपत्र की तरह बेरस हो सकती है,
इसके बावजूद नामावली याद कर रहा हूँ. इसमें बहुत से ज़ाहिर है, छूट जाएंगे.
पन्त, निराला, महादेवी, बच्चन,
इलाचंद्र जोशी, रघुपतिसहाय फ़िराक, भैरवप्रसाद गुप्त, रामकुमार वर्मा, उपेन्द्रनाथ
अश्क, बलवंत सिंह, श्रीपत राय, अमृतराय, बालकृष्ण राव, धर्मवीर भारती, अमरकांत,
शेखर जोशी, मार्कंडेय, कमलेश्वर, दुष्यंत, लक्ष्मीकांत वर्मा, विजय देव नारायण
साही, नरेश मेहता, लक्ष्मी नारायण लाल, विपिन कुमार अग्रवाल, रघुवंश, जगदीश गुप्त,
मलयज, श्रीराम वर्मा, शैलेश मटियानी, दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, गिरिराज किशोर
और १९४६ में हिन्दी गद्य के अद्वितीय शैली-निर्माता और जीवनीकार श्री रामनाथ सुमन
भी इलाहाबाद में आकर बसे. इस अधूरी असमाप्त सूची से किसी भी शहर की दादागिरी झलक
मिलती है. प्रतीक के आयोजक और तारसप्तक के विख्यात अज्ञेय इलाहाबाद में काफी समय
तक रहे और बाद में आते-जाते रहे. काफी समय तक प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर और
भारतभूषण अग्रवाल भी रहे अपनी नौकरियों में. नरेश मेहता और उपेन्द्रनाथ अश्क के
घरों से एक तीसरे कोने में कुछ समय फणीश्वरनाथ रेणु भी रहे. और उनके पड़ोस में
सुप्रसिद्ध अभ्युदय प्रेस के पीछे निगम के हाते में मोहन राकेश अपनी माँ के साथ
रहे थे. सात वर्ष के लगभग नेमिचन्द्र जैन भी रहे थे. रेणु के पास गोद में रहनेवाला
एक सफ़ेद कुत्ता होता था. वे कम बोलते, आदिवासियों की तरह और बहुत गहरे कलाकार की
तरह आकर्षित करते थे. वे मैला आंचल के पुनर्जागरण के दिन थे. मैला आंचल को लेकर इलाहाबाद
में एक घर वाद-विवाद था भीतर-बाहर दोनों स्तर पर. यह अलग विषय होगा. लेकिन जितना
मैं जानता हूँ, मैला आंचल को लेकर इलाहाबाद में जैसी बहस थी वह अगर न होती तो रेणु
यकीनन इलाहाबाद में बस सकते थे. पर इलाहाबाद के लोग बाहरी नागरिकों को अपनाने में
विमुख ही रहे.
मैं भी इस लेखक सूची से कभी-कभी
बहुत ऊब जाता हूँ. जैसे अनेक दिग्गज अभिनेताओं या मैटिनी आयडल्स की भीड़-भरी फिल्म
अक्सर फ्लॉप हो जाती है वैसे ही इस उत्तरआधुनिक ज्वार में इलाहाबाद फ्लॉप हो गया
लगता है. यह एक महान त्रासदी है. कान्कर्रस ऑफ़ द गोल्डन सिटी देखते हुए मुझे इलाहाबाद
की याद आती है. चूंकि इलाहाबाद में एक सूखी अकड़ कुछ ज्यादा ही बची है इसलिए यह
त्रासदी जर्जर हो रही है. मैं विश्वद्यालय शायद नहीं पहुंचा या पहुंचा ही पहुंचा
था जब अजित कुमार और ओंकारनाथ श्रीवास्तव इलाहाबाद छोड़ चुके थे. बाद में एक दिल्ली
गए और दूसरे लन्दन. बाबा नागार्जुन कितने-कितने समय इलाहाबाद रहे-बसे और उनकी
एकतरफा कहानी उपेन्द्रनाथ अश्क लिख भी चुके हैं. दूसरा पक्ष अभी बयान किया जान
बाकी है. यह पक्ष बहुत ही दिलचस्प, तिलिस्म से भरा और कामोत्तेजक है. इसमें
इश्क-मुहब्बत और स्त्री के उत्थान-पतन की कहानी भी है.
यह थी पहली कतार. और दूसरी कतार भी
किसी शशर में इस तरह की होगी यह कल्पना नहीं की जा सकती. मैं उसे सूची में भी नहीं
पिरो सकता. गंगा के पूरबी घाट से लेकर मनौरी के वायुसेवा मैदान तक रचनाकारों का
सब्जबाग था इलाहाबाद. मैंने कवियों के कवि शमशेर का उल्लेख अभी तक नहीं किया
क्योंकि मेरे पास उनके बहादुरगंज वाले मकान अलावा उनकी इलाहाबाद की स्मृति नहीं
है. मेरे भी पंख कुछ बहुत देर बाद खुले थे इसलिए मैं उनके प्रारम्भिक दिन नहीं
जानता.
No comments:
Post a Comment