(पिछली क़िस्त से आगे)
इलाहाबाद
एक गरीब शहर है. वह किसी की सांसारिक पूर्ती नहीं कर सकता. इलाहाबाद का बैंक
बैलेंस कमज़ोर है. वह किसी की पूर्ति करने में बहुत सक्षम नहीं है. इसके बावजूद
लेखकों का विपुल आगमन और बहिर्गमन यहाँ होता रहा है. मैंने इसी शहर में बिना बाहर
निकले, हिन्दी के बाहरी दिग्गजों का स्पर्श पा लिया था.
बिलकुल
बगल में बनारस सूख रहा था. सिवाय मणिकर्णिका की अनवरत आग के. यह इलाहाबाद
से बनारस की तुलना नहीं है. बनारस का एक अलग
सिक्का है, बहुत ही सुनहरा सिक्का. लेकिन हजारीप्रसाद द्विवेदी, नामवरजी,
त्रिलोचन, विष्णुचन्द्र शर्मा और विद्यानिवासजी बनारस से अगर उखड़ गए तो केवल
झिल्ली संबंधों के कारण, मैं बनारस के बारे में अपनी टिप्पणी को खारिज नहीं
करूंगा. दूसरी बगल में लखनऊ एक खुशनुमा सैरगाह की तरह दमक रहा था. वह बनारस से
बेहतर हालत में था. इलाहाबाद ने उचक्के कवियों को अपने से दूर रखा और बनारस में ही
उन्हें रोक दिया. यह दूसरी बात है कि शमशेरजी उनके पास, पता नहीं किस खुशबू से
खिंचे चले गए थे. मेरा संकेत एलेन गिन्सबर्ग और उसके साथी कवियों से है.
शताब्दी मध्य तक ढल गयी थी. लौटे
हुए और लौटते हुए अंग्रेजों की बाहरी छाया लगातार शहर में दिखती थी. अंग्रेज़ ने
भीतर ही भीतर इलाहाबाद की आत्मा में प्रवेश कर लिया था. उस समय हमको यह सब महसूस
नहीं होता था और भीतर से महसूस नहीं होता था. इलाहाबाद का वास्तविक स्वप्न क्या है
और उसका भावी स्वप्न क्या होगा इसकी कोई भीतरी बेचैनी नहीं थी. व् कभी भी जलसाघर
नहीं लगा. जलवा वहां तहखाने में था. आज जब इलाहाबाद का अतीत और लगभग युगांत दोनों
मुझे दीख रहे हैं, तब इलाहाबाद के दर्पण को ज्यादा साफ़-शफ्फाफ देखा जा सकता है. उस
समय हम अपने हाड-मांस से यानी यथारथ से, अपनी शताब्दी के अंत का अनुमान नहीं कर
सकते थे. उस समय हम अपने वर्तमान में इस क़दर डूबे थे कि पता नहीं लगता था, मानव
जाती फल-फूल रही है या बूढ़ी हो रही है.
बाद में एकाएक निराला की पंक्तियों
से हमें स्वप्न भंग होता लगा और इलाहाबाद की चाभी खुलने लगी. निराला की इन
पंक्तियों पर ध्यान दें:
अब
नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा
श्याम
तृण पर बैठने को निरुपमा
जब पुलिन पर प्रियतमा नहीं आती थी
और जब इलाहाबाद की घास सूखना शुरू हो चुकी थी तब धर्मवीर भारती अपने उपन्यास
गुनाहों का देवता की रचना करके निराला की इन कविता की पंक्तियों के विरुद्ध चले गए
थे. निराला की इन पंक्तियों के सामने यह एक कुकुरमुत्ता उपन्यास था क्योंकि वह
अपने समय को, अपने रूमानी साहस के साथ बहिष्कृत कर रहा था. सच्चाई यह थी कि
इलाहाबाद के पार्क उजड़ रहे थे और सेन्ट्रल कैथीड्रल जिसकी चक्की जैसी सड़कों पर
भारती कितनी बार शाम के अँधेरे में दिली सुकून के साथ घुमते थे उसी समय अपने
हरे-भरे पर्यावरण से छूट रही थीं. मिन्टो पार्क की घास सूख रही थी, एल्फ्रेड पार्क
की घास सूख रही थी और सीनेट हॉल के सामने जितनी शाखाएं उतने पेड़वाले विशाल बैनियन
के नीचे की घास सूख चुकी थी. धर्मवीर भारती इलाहाबाद के एक अनूठे और आख़िरी
रोमैंटिक थे. इलाहाबाद उनकी जगह नहीं थी और वे अंतिम रूप से सदा के लिए परदेस चले
गए. परिमल समूह जो कभी भारती को लाडले और नेतृत्व रूपी सितारे के रूप में देखता था
भीतर से उनकी पोल को पहचान गया था और उनकी मनुष्यता को भी. वे भीतर भीतर भारती को
नकार चुके थे. इलाहाबाद ने रेणु के मैला आँचल, भारती के गुनाहों का देवता और
श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी के बारे में बहुत विवादास्पद मत बनाया था. इलाहाबाद ने सर्वेश्वर की कविताओं पर यह बहस भी की थी कि
अगर उनकी कवितायेँ कवि को और श्रोताओं को रुला देती हैं तो इससे प्रभावित होने की
कोई भी ज़रुरत नहीं है.
(जारी)
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