Saturday, November 1, 2014

जो सरदार की प्रतिमा की ऊंचाई नाप रहे हैं


पंकज श्रीवास्तव का यह पुराना लेख आईबीएन ब्लॉग से साभार लिया जा रहा है -

29 अक्टूबर (२०१३) को अहमदाबाद में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कहा कि अगर सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो देश का इतिहास कुछ और होता. उसी मंच पर मौजूद मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फौरन याद दिला दिया कि पटेल एक प्रतिबद्ध कांग्रेसी थे. सेक्युलर नेता थे. ये उस राजनीतिक युद्ध की बानगी है जो पटेल के नाम पर छिड़ा है. मोदी, दरअसल, आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के उसी प्रचार को आगे बढ़ा रहे हैं जिसमें बार-बार कहा जाता है कि सरदार पटेल, नेहरू से बेहतर नेता थे. यही नहीं पटेल को हिंदुत्व के दर्शन के करीब बताने की कोशिश भी होती है. आम चुनाव 2014 की आहट बढ़ने के साथ ये कोशिश तेज होती जा रही है.

नरेंद्र मोदी ने गुजरात में पटेल की ऐसी प्रतिमा स्थापित करने का एलान किया है जो दुनिया में सबसे ऊंची होगी. अमेरिका की स्टैच्यू आफ लिबर्टी से भी ऊंची ये 182 मीटर की प्रतिमा गुजरात के नर्मदा जिले के सरदार सरोवर बांध के करीब स्थापित की जाएगी. 31 अक्टूबर को पटेल जयंती पर परियोजना का शिलान्यास हो भी चुका है. बीजेपी की ओर से इसका धुआंधार प्रचार जारी है. ऐसे मे ये जनना दिलचस्प है कि पटेल का बीजेपी की मूल प्रेरणा आरएसएस के प्रति क्या नजरिया था.

30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिरला हाउस में शाम की प्रार्थना सभा को संबोधित करने जा रहे महात्मा गांधी की छाती पर तीन गोलियां उतारी गईं. दुनिया भौंचक्की रह गई. खुद को सनातनी हिंदू कहने वाले गांधी पर गोली किसी और ने नहीं, हिंदुत्व का दर्शन देने वाले विनायक दामोदर सावरकर के शिष्य और महासभा के कार्यकर्ता नाथूराम गोडसे ने चलाई थी. गोडसे कभी आरएसएस का सक्रिय सदस्य था. गांधी की हत्या एक ऐसे हिंदू की हत्या थी जिसने सत्य को ही ईश्वर माना. जिसका धर्म मनुष्य और मनुष्य में भेद नहीं करता था. वे ईश्वर के साथ अल्लाह का नाम भी लेते थे. दोनों को एक समझते थे. लेकिन हिंदू गांधी के हत्यारों का आदर्श हिंदुत्व था. जिसके हिसाब से भारत के प्रति उनकी निष्ठा ही सच्ची हो सकती है जिनकी पितृभूमि और पवित्र भूमि, दोनों भारत में हों. इस परिभाषा से अल्पसंख्यक कभी देशभक्त नहीं हो सकते.

गांधी की हत्या ने दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर गंभीर सवाल खड़ा कर दिया था जिसकी जिम्मेदारी गृह मंत्री के नाते सरदार पटेल के पास थी. तमाम तथ्यों को देखते हुए उन्होंने माना कि गांधी की हत्या में आरएसएस का भी हाथ है. और 4 फरवरी 1948 को पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया.

आरएसएस ने बेगुनाह बताते हुए इस पर आपत्ति जताई तो 11 सितंबर 1948 को पटेल ने आरएसएस के सरसंघचालक एम.एस.गोलवलकर को पत्र लिखा. उन्होंने लिखा- हिंदुओं को संगठित करना और उनकी सहायता करना एक बात है, लेकिन अपनी तकलीफों के लिए बेसहारा और मासूम पुरुषों, औरतों और बच्चों से बदला लेना बिल्कुल दूसरी बात.... इनके सारे भाषण सांप्रदायिक विष से भरे थे, हिंदुओं में जोश पैदा करना व उनकी रक्षा के प्रबंध करने के लिए आवश्यक न था कि जहर फैले. इस जहर का फल अंत में यही हुआ कि गांधी जी की अमूल्य जान की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी. सरकार व जनता की रत्तीभर सहानुभूति आरएसएस के साथ न रही बल्कि उनके खिलाफ ही गई. गांधी जी की मृत्यु पर आरएसएस वालों ने जो हर्ष प्रकट किया और मिठाई बांटी, उससे यह विरोध और भी बढ़ गया. इन हालात में सरकार को आरएसएस के खिलाफ कदम उठाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था.

आरएसएस और बीजेपी के लोगों का दावा है कि पटेल ने प्रतिबंध नेहरू के दबाव में लगाया था. लेकिन पटेल ने इस पत्र में लिखा कि गांधी जी की हत्या के बाद संघ वालों ने मिठाई बांटी. प्रतिबंध के अलावा कोई चारा नहीं था. जाहिर है, सरदार पटेल नेहरू की जुबान नहीं बोल रहे थे, अपना मन खोल रहे थे. बतौर गृह मंत्री उन्हें देशभर से खुफिया जानकारियां मिलती थीं.

यही नहीं सरदार पटेल ने 18 जुलाई 1948 को हिंदू महासभा के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी एक पत्र लिखकर बताया कि प्रतिबंध के बावजूद आरएसएस बाज नहीं आ रहा है. उन्होंने लिखा-हमें मिली रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संस्थाओं, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के फलस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना कि ऐसा बर्बर कांड संभव हो सका. मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का अतिवादी भाग षड्यंत्र में शामिल था. आरएसएस की गतिविधियां, सरकार और राज्य-व्यवस्था के अस्तित्व के लिए स्पष्ट खतरा थीं. हमें मिली रिपोर्टं बताती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद वे गतिविधियां समाप्त नहीं हुई हैं. दरअसल, समय बीतने के साथ आरएसएस की टोली अधिक उग्र हो रही है और विनाशकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है.

दरअसल, संघ परिवार की ओर से पेश की गई हिंदूराष्ट्र की अवधारणा सरदार पटेल को कभी रास नहीं आई. वे भारत को हिंदू पाकिस्तान बनाने के सख्त खिलाफ थे. उन्होंने साफ कहा था कि, “भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है. इस देश में मुसलमानों के भी उतने ही अधिकार हैं जितने की एक हिन्दू के हैं. हम अपनी सारी नीतियां और आचरण वैसा नहीं कर सकते जैसा पाकिस्तान कर रहा है. अगर हम मुसलमानों को यह यकीन नहीं दिला पाये की यह देश उनका भी है तो हमें इस देश की सांस्कृतिक विरासत और भारत पर गर्व करने का कोई अधिकार नहीं.”

1925 में गठित आरएसएस का गांधी की हत्या तक न कोई संविधान था और न सदस्यता रसीद. पटेल ने मजबूर किया कि वो संविधान बनाये और खुद को सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक सीमित रखे. 11 जुलाई 1949 प्रतिबंध हटाने का एलान करने वाली भारत सरकार की विज्ञप्ति में कहा गया है-आरएसएस के नेता ने आश्वासन दिया है कि आरएसएस के संविधान में, भारत के संविधान और राष्ट्रध्वज के प्रति निष्ठा को और सुस्पष्ट कर दिया जाएगा. यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि हिंसा करने या हिंसा में विश्वास करने वाला या गुप्त तरीकों से काम करनेवाले लोगों को संघ में नहीं रखा जाएगा. आरएसएस के नेता ने यह भी स्पष्ट किया है कि संविधान जनवादी तरीके से तैयार किया जाएगा. विशेष रूप से, सरसंघ चालक को व्यवहारत: चुना जाएगा. संघ का कोई सदस्य बिना प्रतिज्ञा तोड़े किसी भी समय संघ छोड़ सकेगा और नाबालिग अपने मां-बाप की आज्ञा से ही संघ में प्रवेश पा सकेंगे. अभिभावक अपने बच्चों को संघ-अधिकारियों के पास लिखित प्रार्थना करने पर संघ से हटा सकेंगे...इस स्पष्टीकरण को देखते हुए भारत सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि आरएसएस को मौका दिया जाना चाहिए.'

इस विज्ञप्ति से साफ है कि संघ पर किस तरह के आरोप थे और भारत सरकार को उसके बारे में कैसी-कैसी सूचनाएं थीं. लेकिन प्रतिबंध हटाना शायद लोकतंत्र का तकाजा था और इसके सबसे बड़े पैरोकार तो प्रधानमंत्री नेहरू ही थे. पटेल को नेहरू के बरक्स खड़ा करने की कोशिशों के बीच ये पड़ताल भी जरूरी है कि दोनों नेता एक दूसरे के प्रति क्या राय रखते थे. भारत की आजादी का दिन करीब आ रहा था. मंत्रिमंडल के स्वरूप पर चर्चा हो रही थी. 1 अगस्त 1947 को नेहरू ने पटेल को लिखा-

“कुछ हद तक औपचारिकताएं निभाना जरूरी होने से मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूं. इस पत्र का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि आप तो मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तंभ हैं.”

जवाब में पटेल ने 3 अगस्त को नेहरू के पत्र के जवाब में लिखा - “आपके 1 अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद. एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है तथा लगभग 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है, उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता. आशा है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी. आपको उस ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी शुद्ध और संपूर्ण वफादारी औऱ निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी पुरुष ने नहीं किया है. हमारा सम्मिलन और संयोजन अटूट और अखंड है और उसी में हमारी शक्ति निहित है. आपने अपने पत्र में मेरे लिए जो भावनाएं व्यक्त की हैं, उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूं.”

पटेल की ये भावनाएं सिर्फ औपचारिकता नहीं थी. अपनी मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले उन्होंने नेहरू को लेकर जो कहा वो किसी वसीयत की तरह है. 2 अक्टूबर 1950 को इंदौर में एक महिला केंद्र का उद्घाटन करने गये पटेल ने अपने भाषण में कहा – “अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं, नेहरू ही हमारे नेता हैं. बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और इसकी घोषणा भी की थी. अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके निर्देश का पालन करें और मैं एक गैरवफादार सिपाही नहीं हूं.”

साफ है, पटेल को नेहरू की जगह पहला प्रधानमंत्री न बनने पर नरेंद्र मोदी जैसा अफसोस जता रहे हैं, वैसा अफसोस पटेल को नहीं था. वे आरएसएस नहीं, गांधी के सपनों का भारत बनाना चाहते थे. पटेल को लेकर नरेंद्र मोदी के अफसोस के पीछे एक ऐसी राजनीति है जिसे कम से कम पटेल का समर्थन नहीं था.

बहरहाल, पटेल की विरासत पर बीजेपी के दावे के साथ कुछ ऐसे सवाल भी खड़े हो जाते हैं जिसका जवाब संघ परिवार नहीं देना चाहता. संघ परिवार कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म करने की मांग लगातार करता है. लेकिन सरदार पटेल ने 15 अगस्त 1947 को ऐसे भारत के नक्शे को स्वीकार किया था जिसमें कश्मीर था ही नहीं. जब विवाद बढ़ा तो पटेल ने शुरुआत में 'कश्मीर के झंझट से दूर रहने की ही नसीहत दी थी.' यही नहीं, वे संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर राज्य को दी गई विशेष रियायतों के न सिर्फ समर्थक थे, बल्कि शर्तें तय करने में उनकी अहम भूमिका थी.

तो फिर संघ के पटेल प्रेम की वजह क्या है. जानकार मानते हैं कि संघ खुद को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी बताता है, लेकिन हकीकत ये है कि स्वतंत्रता संग्राम में उसने भाग नहीं लिया. ऐसे में उसके पास ऐसे नायक नहीं जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद से टकारते हुए पूरे भारत में सम्मानित हुए हों. जिनके जरिये राष्ट्रीय भावना जगाई जा सके. अब इस कमी को पटेल के जरिये पूरा करने की कोशिश की जा रही है.

कांग्रेस कार्यसमिति ने जून 1934 में प्रस्ताव पारित किया था कि कांग्रेस सदस्य, हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग और आरएसएस से कोई संबंध नहीं रखेंगे. पटेल ने ये शपथ जीवन भर निभाई. लेकिन उनकी मौत के 63 साल बाद अगर आरएसएस ही उनसे संबंध जोड़ने मे जुटा है तो पटेल इसे रोकने के लिए क्या कर सकते हैं. वैसे भी, किसी महापुरुष को उसके विचारों से दूर करके सिर्फ मूर्ति में तब्दील करना, हिंदुस्तान की पुरानी रवायत है. यही वजह है कि सबसे ज्यादा मूर्तियां गौतम बुद्ध की मिलती हैं जो मूर्तिपूजा के सख्त खिलाफ थे. कुछ ऐसा ही हाल गांधी का भी हुआ है. चौराहे-चौराहे गांधी जी की प्रतिमाएं हैं, लेकिन उनकी राह चलने वाले ढूंढे नहीं मिलते. और अब यही सलूक सरदार पटेल के साथ हो रहा है. जो सरदार की प्रतिमा की ऊंचाई नाप रहे हैं, वे उनके विचारों की गहराई में भी उतरेंगे, ऐसी कोई उम्मीद नहीं है.


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