Tuesday, December 2, 2014

नीलाभ की लन्दन डायरी - २



लन्दन डायरी
-नीलाभ

1.
चारों ओर लम्बे वीक-एण्ड की ख़ामोशी है
ख़ामोशी और अकेलापन
जिसे बार-बार बजाये गये
नज़रुल के गीत भी
ख़त्म नहीं कर पाये हैं
पहले से ज़्यादा गझिन बना कर
मेरे गिर्द जाल की तरह
लपेट गये हैं

मैं कहाँ हूँ ? किस कगार पर ?
टूटते हुए रिश्तों की किस दरार पर ?

बाहर झाँकता हूँ मैं
105 नम्बर की बस
हीथरो हवाई अड्डे से
शेपर्ड्स बुश ग्रीन की तरफ़
जाती हुई
नुक्कड़ पर ठिठकती है

बाहर अगस्त है
चितकबरे बादलों में
झिलमिलाती है धूप की धारा
ऊँघते चिनारों के
हरे-हरे हाथ हिलते हैं
नुक्कड़ की पब से उभरते
शराबी शोर में
रेग्गे और डिस्को और
कीर्तन के स्वर
घुलते-मिलते हैं

मुझे उठ कर
इस कमरे से
बाहर जाना चाहिए

2.
इस सुनहरी धूप में
पिघलता है
मेरा ख़ून
डूबते सूरज में
ढलता है
मेरा रक्त
बूँद-बूँद कर
जाते हुए ग्रीष्म की
गहरी हरियाली में
धधकती है लपटें
सुलगते हैं दिन
अपने धुएँ से
मेरी आँखों को कड़वाते हुए

मेरे गिर्द उनींदी रातों का अम्बार है
जिन्हें गिनना मेरी ताकत के पार है
ये उनींदी रातें
बेरोज़गारी के आँकड़े हैं
जिन्हें केन लिविंग्स्टन
हर महीने ग्रेटर लण्डन काउन्सिल की
इमारत पर
थैचर सरकार की सूचना के लिए
टाँग देता है

ये उनींदी रातें
वित्त मन्त्री जेफ्री हाओ के
बजट की मँडराती छायाएँ हैं
धीरे-धीरे शुक्रवार की शाम के
पे-पैकेट पर घिरती हुई

ये उनींदी रातें
फगवाड़े में
मेरा इन्तज़ार करती माँ
या जमेका में छूटी
आबनूस की वीनस के
चेहरे हैं
रात के सन्नाटे में घिरते हुए
जब दिन की तमाम हरकतें
टूटते हुए जिस्म की
तकलीफ़ में
तब्दील होती हैं
दर्द की उठती और गिरती लहरों के बीच
दिन की विजय और पराजय का
लेखा-जोखा करते हुए
मैं पलटता हूँ
वर्क-दर-वर्क
ज़िन्दगी के पन्ने
उनींदी रातों में

ये राते उतनी ही काली हैं
जितना मेरे जिस्म का रंग

यह उन्नीस सौ अस्सी का साल है
लन्दन में बेरोज़गारी डेढ़ लाख तक पहुँच गयी है
मगर अमरीका में गेहूं के व्यापारियों को
रेगन की राहत मिली है
ईरान में जंग छिड़ गयी है
लेकिन तेल पर दिनों-दिन धार चढ़ रही है
पोलैण्ड में लोग
गोश्त की लड़ाई लड़ रहे हैं
इधर ब्रिटेन में कारखाने बन्द हो रहे हैं
बेरूत में इस्राइली
अराफ़ात के लिए खेदा तैयार कर रहे हैं
और हिन्दुस्तान में श्रीमती गाँधी
सरकार जो काम करेका नारा लगा कर
सत्ता में लौटी है

लेकिन मैं लौट नहीं सकता
आज ही मेरे भतीजे की चिट्ठी आयी है
जिसमें उसने विलायत आने की
फ़रियाद दुहराई है

वह साल भर से बेकार है
और हमारी ज़मीन
जिसने जाने कितने
हमलावरों के कदम सहे हैं
अब एक और कम्मी का बोझ
नहीं सह सकती

जमेका से लिखती है
मेरी आबनूस की वीनस
वह अब बहुत देर
इन्तज़ार नहीं कर सकती
उसका भाई गाँजा पीते हुए
धर लिया गया है
बाप ने कर ली है दूसरी औरत
और पुलिस उसे रण्डी बनाने पर
उतारू हैं
उसे रात को नींद नहीं आती

उनींदी रातों का संसार
सिर्फ़ मेरा नहीं
किंग्स क्रॉस से
साउथॉल तक
जमेका से जगाधरी तक
एक ही तार है
उनींदी रातों का
एक ही संसार है
जिसे नापना मेरी ताकत के पार है

तुम्हें क्या कहूँ कि क्या है
शबे ग़म बुरी बला है.

3.
इसी तरह शुरू होता है दिन
इसी तरह ख़त्म होता है
उठें हुए बाज़ुओं की कतार
थकती है
विरोध में उठे हुए सिर
झुकते हैं
झुकते हैं लहराते हुए झण्डे
ठहरे पानी में
सड़ते हैं दिनों के झरे हुए पत्ते
अँधेरे में खामोशी से
सुलगती हैं हमारी रातें
नींद के निरापद आतंक में
शहर चीनी के डलों की तरह घुलते हैं
सड़कें आपस में उलझती हैं
सिवैयों की तरह और इमारतें
बर्फ़ी के टुकड़ों की तरह
गड्ड-मड्ड होती हैं
नींद के निरापद आतंक में

4.
एक
सी
छतों
वाले मकान

5.
रफ़्ता-रफ़्ता उतरती है शाम
उतरता है शहर पर एक जाल
हर चीज़ को कसता हुआ
अपनी अदृश्य गिरफ़्त में

जाल के पार दिखती है रोशनियाँ
इस्पात और कंकरीट के इस जंगल में
साथ की खोज में भटकते हुए
मैं आवाज़ दूँ तो
क्या कोई जवाब आयेगा ?


6.
एक अजीब-सी नाउम्मीदी में
गुज़रते हैं दिन
इसी तरह गुज़रती है ट्यूब11
एक के बाद एक
स्टेशनों को छोड़ती हुई
दाखिल होती है सुरंग में

शाम के वक्त
घिरता है
पराजय का एहसास
ट्यूब की खिड़की से देखे गये कुछ चेहरे
गाड़ी का पीछा करते,
पीले पत्तों की तरह
अगले स्टेशन तक
पीछा करते हैं

7.
कैसी अजीब बात है
बाहर की बारिश और
अन्दर के कोहरे से
भाग कर
मैं इस पब में आ बैठा हूँ
यहाँ शनिवार की शाम का शोर है
एक हंगामा है
जिसका न कोई और है, न छोर

शराब के घूँट भरता हुआ
मैं रचता हूँ
खुले हुए दिन
और पारदर्शी हवा
जब सुनहरी धूप
पके हुए सन्तरे की तरह
तुम्हारी देह की मुकम्मल गोलाइयों की तरह
हवा में तिरते हुए राग की तरह
ख़ून में लहलहाती आग की तरह
एहसास के शिखर तक चढ़ती चली जाती थी
पब में शनिवार की शाम का शोर है
बाहर बारिश! अन्दर बेपनाह कोहरा

अगर इस सबसे बचना चाहूँ
तो पता नहीं
मुझे कहाँ जाना होगा

(पूरी श्रृंखला 24 टुकड़ों की है, जिनमें कई जगह सन्दर्भ भी हैं, जो अन्त में दे दिये गये हैं. कविता आपको कैसी लगेगी, नहीं जानता. सच तो यह है कि समय के साथ मैं यह कम से कमतर मात्रा में जानने लगा हूं कि मैं क्या जानता हूं क्या नहीं. लगभग बेख़ुदी का आलम है. लेकिन पूरी कविता के बाद फ़ुटनोट ज़रूर देख लीजियेगा. – नीलाभ का नोट)


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