बॉलीवुड के सीनियर कैरेक्टर आर्टिस्ट,
निर्देशक और निर्माता देवेन वर्मा का आज तड़के किडनी फेल हो जाने और
हार्ट अटैक के कारण देहांत हुआ. सतत्तर साल के देवेन वर्मा को तमाम हिट फिल्मों
में उनके जीवंत और गुदगुदाने वाले अभिनय के लिए याद किया जाएगा.
उन्हें कबाड़खाने की श्रद्धांजलि देता हुआ मैं पिछले साल रेडिफ़ डॉट
कॉम पर छपे उनके एक इंटरव्यू के कुछ हिस्से पेश कर रहा हूँ. इंटरव्यू पैट्सी एन ने
लिया था.
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छियत्तर साल के देवेन वर्मा पुणे में कल्याणीनगर के अपने बंगले में
बैठे बहुत चुस्त और चंगे नज़र आते हैं. ग्यारह बजे के तय इंटरव्यू के लिए वे 10:15
बजे तैयार बैठे हैं.
उन्होंने १४९ फिल्मों में काम किया और उनके सहभिनेताओं में बॉलीवुड
के सबसे नामचीन कलाकार शमिल थे. उनकी सबसे विख्यात फिल्मों में ‘अंगूर’, ‘रंग बिरंगी’, ‘चोरी
मेरा काम’, ‘अंदाज़ अपना अपना’ और
बेमिसाल’ शामिल हैं.
शुरुआती साल:
मेरे पिता बलदेव सिंह वर्मा चांदी के कारोबारी थे. फिर एक दोस्त के
साथ वे फिल्म वितरण के क्षेत्र में प्रविष्ट हुए. मेरी माँ एक गृहिणी थीं. मेरी
चार बहनें हैं.
हम अपनी बड़ी बहन के कारण पुणे शिफ्ट हुए. वह माटुंगा के जी.एन.
खालसा कॉलेज में पढ़ती थी. उन दिनों मुम्बई में काफ़ी दंगे हुआ करते थे. वह डॉक्टर
बनना चाहती थी सो हम यहाँ आ गए. उसने नौरोजी वाडिया कॉलेज फॉर आर्ट्स एंड साइंस
में दाखिला ले लिया. मैंने भी पंचगनी के एक स्कूल में पढाई खत्म करने के बाद इसी
कॉलेज में पढ़ना जारी रखा. कॉलेज के दिनों में मैं नाटकों और युवा महोत्सवों में
भाग लेता था.
स्नातक की पढाई के बाद मैंने मुम्बई में कानून की पढाई शुरू की
जिससे मैं छः महीने में ही उकता गया.
मेरी सबसे बड़ी बहन पुणे के एक सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल हो गयी,
दूसरी डॉक्टर बनने के बाद मुम्बई में प्रैक्टिस कर रही थी. तीसरी
बहन स्कूल प्रिंसिपल है जबकि चौथी ह्यूस्टन में टेक्सस यूनिवर्सिटी में विदेशी
छात्रों वाले विभाग की इंचार्ज है.
पहला ब्रेक:
मैन्स्तेज शोज़ कर रहा था और एक ड्रामा ग्रुप का सदस्य था.
(अभिनेता) जॉनी व्हिस्की और मैंने स्टेज पर सबसे पहले फिल्म कलाकारों की नक़ल करना
शुरू किया था.
मैं नार्थ इंडिया पञ्जाबे एसोशिएयेशन में एल वन-एक्ट शो कर रहा था
और बी.आर. चोपड़ा दर्शकों में थे. उन्होंने मुझे ‘धर्मपुत्र’ (१९६१) के लिए साइन कर लिया. मुझे महीने
के छः सौ रूपये मिलने लगे.
‘धर्मपुत्र’ के बाद मैं स्टेज शोज़ करने विदेश चला
गया. ‘धर्मपुत्र’ फ्लॉप हुई. मैं
मॉरीशस में था जब शशि कपूर ने मुझे एक चिठ्ठी लिख कर बताया “फिल्म
फ्लॉप हो गयी है और कोई नहीं जानता ऐसा क्यों हुआ.”
जब मैं मुम्बई लौटा, एवीएम
स्टूडियो के ए.वी. मैय्प्पन ने मुझे १५०० रूपये प्रतिमाह के ठेके पर रख लिया. मुझे
मद्रास में रहना पड़ता था जहां मुझे अभिनय की ट्रेनिंग दी जाती थी.
इसी बीच मेरी एक और फिल्म ‘गुमराह’
(१९६३) रिलीज़ हुई. इस में मैंने अशोक कुमार के नौकर का रोल किया था.
यह कॉमिक रोल था जिसे लोगों ने पसंद किया.
ए.वी. मैय्प्पन ने मुझे मद्रास और
मुम्बई के बीच एक को चुनने को कहा सो मैं एक साल बाद वापस मुम्बई आ गया. ‘गुमराह’ के बाद मैंने मुमताज़ के अपोजिट ‘क़व्वाली की रात’ में काम किया. यह मुमताज़ की पहली
फिल्म थी.
इसके बाद मैंने ‘देवर’ (१९६६), अन्नपूर्ण’ (१९६६) साइन
कीं और कुमकुम के अपोज़िट एक भोजपुरी फिल्म ‘नैहर छूटल जाए’
भी. मैं साल में लगभग दो फिल्मे करता था. मुझे कोई जल्दी नहीं थी.
सेट्स पर शूटिंग:
हम लोकेशन पर कभी शूट नहीं करते थे. एक ही सेट पर पन्द्रह-पन्द्रह दिन शूट चलता था. फिर हम कुछ दिनों बाद वहां लौटा करते.
माहौल बहुत दोस्ताना हुआ करता. लोगों को साथ साथ रहना अच्छा लगता था. आज वैसी यारी-दोस्ती नज़र नहीं आती. लोग अलग-अलग दिन शूट किया करते हैं.
उन दिनों अफेयर्स का होना आम बात थी अलबत्ता कोई उन्हें बहुत तूल नहीं देता था. आज कलाकारों के बारे में सिर्फ यही खबर पढने को मिलती हैं कि किसका किसके साथ चक्कर चल रहा है.
जबहम कोई फिल्म देखा करते तो हम राज कपूर या दिलीप कुमार के अभिनय की तारीफें करते नहीं थकते थे. हम अभिनय की बातें करते थे. आज की पीढ़ी डांस और स्टंट को पसंद करती है - चीज़ों में इस कदर गिरावट आई है.
पहली हिट:
मेरे करियर ने १९७५ में 'चोरी मेरा काम' से उड़ान भरी. इस फिल्म के लिए मुझे फिल्मफेयर अवार्ड मिला. इस हिट के बाद मेरे पास ऑफर्स की भरमार हो गयी.
एक साथ १६ फ़िल्में करने का मेरा रेकॉर्ड है. एक समय था जब मैं रात को मुम्बई में इस्माइल श्रॉफ की 'आहिस्ता-आहिस्ता' कर रहा था, फिर तडके हैदराबाद जाकर जीतेंद्र की 'प्यासा सावन' में काम करता, शाम को चार बजे हैदराबाद से दिल्ली को निकालता जहां यश चोपड़ा 'सिलसिला' शूट कर रहे थे, फिर लौट कर मुम्बई इस्माइल श्रॉफ की 'आहिस्ता-आहिस्ता' के लिए.
इतनी फ़िल्में करने का कारण यह था कि मुझसे ना नहीं कहा जाता था. मैं इतने समय से इंडस्ट्री में था और मेरे इतने सारे दोस्त थे. मैं किसी को भी निराश नहीं करना चाहता था.
इस इंडस्ट्री में आप अपने टेलेंट के बूते दस साल जिंदा रह सकते हैं लेकिन आपका व्यवहार आपको जीवन भर यहाँ बनाए रखेगा. मैंने यहाँ 47 साल काम किया. अपने ससुर (अशोक कुमार) की मृत्यु के बाद मैंने संन्यास ले लिया था.
मेरी अंतिम फिल्म थी 'मेरे यार की शादी' अलबत्ता 'कलकत्ता मेल' सबसे बाद में रिलीज़ हुई. उस समय तक भी मैं बहुत सी फिल्मों में काम कर रहा था. ऐसा कोई समय नहीं रहा जब मेरे पास काम नहीं था.
मुझे तीन फिल्मफेयर अवार्ड्स हासिल हुए - चोरी मेरा काम, चोर के घर चोर और अंगूर के लिए. घर बदलते समय तीनों ट्राफियां मुझसे खो गईं. मेरी पत्नी को फेफड़े की बीमारी के ऑपरेशन के बाद प्रदूषण मुक्त जगह में रहने को कहा गया सो हम चेन्नई चले गए, जब दो साल बाद हम वापस मुम्बई आये तो ट्रांजिट में मेरे दो बैग खो गए.
निर्माता के तौर पर मेरी पहली फिल्म थी 'यकीन' (१९६९). मैंने आठ फ़िल्में बनांईं.
१९७१ में मैंने आशा पारेख और नवीन निश्चल को लेकर 'नादान' बनाई. फिर अशोक कुमार के साथ बड़ा कबूतर, अमिताभ बच्चन के साथ 'बेशर्म' (१९७८) और मिथुन चक्रवर्ती के साथ १९८९ में 'दानापानी'.
सेट्स पर शूटिंग:
हम लोकेशन पर कभी शूट नहीं करते थे. एक ही सेट पर पन्द्रह-पन्द्रह दिन शूट चलता था. फिर हम कुछ दिनों बाद वहां लौटा करते.
माहौल बहुत दोस्ताना हुआ करता. लोगों को साथ साथ रहना अच्छा लगता था. आज वैसी यारी-दोस्ती नज़र नहीं आती. लोग अलग-अलग दिन शूट किया करते हैं.
उन दिनों अफेयर्स का होना आम बात थी अलबत्ता कोई उन्हें बहुत तूल नहीं देता था. आज कलाकारों के बारे में सिर्फ यही खबर पढने को मिलती हैं कि किसका किसके साथ चक्कर चल रहा है.
जबहम कोई फिल्म देखा करते तो हम राज कपूर या दिलीप कुमार के अभिनय की तारीफें करते नहीं थकते थे. हम अभिनय की बातें करते थे. आज की पीढ़ी डांस और स्टंट को पसंद करती है - चीज़ों में इस कदर गिरावट आई है.
पहली हिट:
मेरे करियर ने १९७५ में 'चोरी मेरा काम' से उड़ान भरी. इस फिल्म के लिए मुझे फिल्मफेयर अवार्ड मिला. इस हिट के बाद मेरे पास ऑफर्स की भरमार हो गयी.
एक साथ १६ फ़िल्में करने का मेरा रेकॉर्ड है. एक समय था जब मैं रात को मुम्बई में इस्माइल श्रॉफ की 'आहिस्ता-आहिस्ता' कर रहा था, फिर तडके हैदराबाद जाकर जीतेंद्र की 'प्यासा सावन' में काम करता, शाम को चार बजे हैदराबाद से दिल्ली को निकालता जहां यश चोपड़ा 'सिलसिला' शूट कर रहे थे, फिर लौट कर मुम्बई इस्माइल श्रॉफ की 'आहिस्ता-आहिस्ता' के लिए.
इतनी फ़िल्में करने का कारण यह था कि मुझसे ना नहीं कहा जाता था. मैं इतने समय से इंडस्ट्री में था और मेरे इतने सारे दोस्त थे. मैं किसी को भी निराश नहीं करना चाहता था.
इस इंडस्ट्री में आप अपने टेलेंट के बूते दस साल जिंदा रह सकते हैं लेकिन आपका व्यवहार आपको जीवन भर यहाँ बनाए रखेगा. मैंने यहाँ 47 साल काम किया. अपने ससुर (अशोक कुमार) की मृत्यु के बाद मैंने संन्यास ले लिया था.
मेरी अंतिम फिल्म थी 'मेरे यार की शादी' अलबत्ता 'कलकत्ता मेल' सबसे बाद में रिलीज़ हुई. उस समय तक भी मैं बहुत सी फिल्मों में काम कर रहा था. ऐसा कोई समय नहीं रहा जब मेरे पास काम नहीं था.
मुझे तीन फिल्मफेयर अवार्ड्स हासिल हुए - चोरी मेरा काम, चोर के घर चोर और अंगूर के लिए. घर बदलते समय तीनों ट्राफियां मुझसे खो गईं. मेरी पत्नी को फेफड़े की बीमारी के ऑपरेशन के बाद प्रदूषण मुक्त जगह में रहने को कहा गया सो हम चेन्नई चले गए, जब दो साल बाद हम वापस मुम्बई आये तो ट्रांजिट में मेरे दो बैग खो गए.
निर्माता के तौर पर मेरी पहली फिल्म थी 'यकीन' (१९६९). मैंने आठ फ़िल्में बनांईं.
१९७१ में मैंने आशा पारेख और नवीन निश्चल को लेकर 'नादान' बनाई. फिर अशोक कुमार के साथ बड़ा कबूतर, अमिताभ बच्चन के साथ 'बेशर्म' (१९७८) और मिथुन चक्रवर्ती के साथ १९८९ में 'दानापानी'.
(बाकी हिस्सा जल्दी)
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