व्यक्तिगत जीवन:
जब मेरी साली प्रीती गांगुली का
पिछले दिसम्बर में देहांत हुआ था तो मुझे बहुत सारे सहानुभूति सन्देश मिले क्योंकि
अखबारों ने रिपोर्टिंग की थी कि मेरी पत्नी का देहांत हो गया है. अशोक कुमार की
दूसरी बेटी रूपा गांगुली से मेरा विवाह हुआ है जिन्होंने फिल्मों में कभी काम नहीं
किया.
मैंने अशोक कुमार के साथ कई फ़िल्में
कीं और मुझे वह अच्छा लगा करता था – इनमें प्रमुख थीं “धर्मपुत्र’, ‘गुमराह’ और ‘आज
और कल’. वे अक्सर डिनर के लिए मुझे घर बुला लिया करते थे और इसी सिलसिले में मेरी
उस परिवार से पहचान हुई.
रूपा और मैं एक दूसरे को पसंद करते
थे और शादी करना चाहते थे और जब मैंने अशोक कुमार से उसका हाथ माँगा तो उन्होंने
मुझ पर निगाह डालकर कहा “इस बारे में सोचेंगे”.
हमारी शादी में दो साल लगे. उनका
कहना था रूपा छोटी है और कि हम बाद में फैसला करेंगे – वे जानबूझकर देर कर रहे थे
क्योंकि अशोक कुमार की बड़ी बेटी भारती ने एक गुजराती डॉ. पटेल से ब्याह रचा लिया
था.
हमारी सगाई के मौके पर किशोर कुमार
ने परफॉर्म किया था. हमारी शादी मुम्बई के नेशनल स्पोर्ट्स क्लब ऑफ़ इण्डिया में
हुई.
‘अंगूर’ की गड़बड़ियां:
‘अंगूर’ दो दिनों और एक रात की
कहानी है लेकिन इसकी रिपीट वैल्यू बड़ी से बड़ी ब्लॉकबस्टर्स से ज्यादा है. वीडियोज
में इसने सबसे ज्यादा कमाई की क्योंकि इसकी कॉमेडी नकली और शोरभरी नहीं बल्कि
विश्वसनीय है.
दोनों जुड़वां (फिल्म में देवेन
वर्मा का डबल रोल है) कैरेक्टर एक सी पोशाक पहनते हैं, और कहीं किसी तरह का इसमें
कोई परिवर्तन पूरी फिल्म में नहीं है.
जब मैंने फिल्म को डब किया तो गलती
से मैंने ‘स’ का उच्चरण दो पात्रों के लिए दो तरह से कर दिया था. डबिंग के बाद मैं
अमेरिका चला गया.
फिल्म तैयार थी और किसी ने भी इसका
नोटिस नहीं लिया था. जब रिलीज़ होने वाला था, गुलज़ार ने इसे पकड़ा और ध्यान दिलाया
कि दोनों कैरेक्टर्स के बीच कोई अंतर नहीं होना चाहिए. सो मुझे न्युयोर्क में
ट्रंक कॉल कर वापस बुलाया गया.
मेरे वापस आने पर सारी रात डायलॉग्स
दोबारा डब किये गए. ज़रा सी बात के लिए मुझे अमेरिका से वापस बुलाया गया. गुलज़ार
काम को लेकर बेहद सख्त थे.
आज भी दोनों भाइयों में फर्क देखे
जा सकते हैं. एक की आस्तीनें चढी रहती हैं जबकि दूसरा पूरी बांहों में रहता है.
कहीं कहीं दोनों बहादुर पूरी बांहों में दीखते हैं. हमने फिल्म के रिलीज़ हो जाने
के बाद इन गलतियों को देखा लेकिन चुप रहना ही उचित था क्योंकि इस बात पर किसी का
ध्यान गया ही नहीं.
सबसे ज्यादा मज़ा कि फिल्म में आया:
मुझे ’दीदार-ए-यार’ करने में बहुत
मजा आया लेकिन फिल्म फ्लॉप हो गयी. इसका निर्माण जीतेंद्र ने किया था. मुझे यह रोल
पसंद आया था. यहाँ तक कि आलोचकों ने भी इसे सराहा था.
पूरी फिल्म भर मुझे चेहरे में कोई भी
एक्सप्रेशंस नहीं लाने थे. काम मुश्किल था क्योंकि मुझे ऐसे डायलॉग्स बोलने थे
जिनमें मैं रिएक्ट करता हूँ लेकिन चेहरे पर कोई भाव नहीं लाने होते थे.
इस इंडस्ट्री में आपको इस आधार पर
फ़िल्में मिलती हैं कि आपने क्या कर के दिखाया है. एक हिट का मतलब हुआ लोग आपको देख
चुके हैं. वहीं ऐसा भी होता है कि आपका काम अच्छा होता है और फिल्म हफ्ते भर से
ऊपर नहीं चलती यानी दर्शकों ने आपको नहीं देखा.
संन्यास क्यों?
मेरा विश्वास है कि अगर आपने मेहनत
की है, तो जीवन में उसका सिला आपको ज़रूर मिलना चाहिए. मैंने इंडस्ट्री में बहुत
काम किया है और मुझे आराम करना था सो मैंने सन्यास के लिया.
संन्यास लेने का एक और कारण रहा. जब
मैं अपनी अंतिम फिल्म कर रहा था, मैंने पाया कि नई पीढ़ी अपने साथ एक नया स्टाइल और
पॉप कल्चर ले कर आई है जिसके हम हिस्से नहीं रह गए थे.
मेरा मूड बिगड़ जाता था जब सेट पे
असिस्ट करने वाली एक नौजवान युवती मुंह में सिगरेट लगाए मेरे पास अगर अपनी
उंगलियाँ चटखाते हुए कहती “चलिए साब आपको बुलाया है.”
हमें अच्छे व्यवहार की आदत रही थी.
नौजवान पीढ़ी के पास वह तहजीब नहीं है और बहुत सारा ऐटीट्यूड है. मैं उन्हें दोष
नहीं दे सकता – नई पीढ़ी इसी तरह होती है. सो अगर आप इससे ख़ुश नहीं हैं तो आपने काम
करना बंद कर देना चाहिए, मैं औरों से बदलने को नहीं कह सकता.
रिटायर होने से पहले मैंने पुणे में
एक बंगला खरीदा और १९९३ में यहाँ आ गया.
आज की फ़िल्में और कलाकार:
टेलीविजन कल्चर के साथ, कोई भी बुरा
एक्टर लम्बे समय तक इंडस्ट्री में बना नहीं रह सकता.
अगर स्टार्स के बच्चे बुरे एक्टर हैं तो अब वे स्क्रीन पर राज नहीं कर सकते.
अगर स्टार्स के बच्चे बुरे एक्टर हैं तो अब वे स्क्रीन पर राज नहीं कर सकते.
सिर्फ अच्छे एक्टर ही अच्छा कर सकते
हैं. जैसे गोविंदा है, जो किसी स्टार की संतान नहीं है. लेकिन रंधीर कपूर नहीं रह
सका जो कि राज कपूर जैसी हस्ती का बेटा था.
इसने फिल्मों के सिस्टम को सहायता
दी है. लोग नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी जैसे कलाकरों के काम को पसंद करते हैं. ‘विक्की
डोनर’ मुझे सबसे अच्छी फिल्म लगी. वह मेरे तरह की फिल्म थी. मुझे वह इसलिए अच्छी
लगी कि वह एक विश्वसनीय कॉमेडी थी.
‘राउडी राठौर’ जैसी फिल्मे भी चल
निकलती हैं जिनमें जीपें उडती हैं और हीरो की लात खा कर विलेन हवा में पन्द्रह फीट
उछलता है. आखीर बॉस तो ऑडीएन्स ही होती है.
पुणे में मेरे दोस्त है जो छोटे
थियेटरों के मालिक हैं मैं उन्हें फोन करता हूँ और उन्हें बताता हूँ कि मैंने किस
फिल्म के बारे में सुना है और किसे मैं देखना चाहता हूँ. तब वे १०-१५ लोगों के लिए
शो की व्यवस्था कर देते हैं.
‘विक्की डोनर’ मेरी हॉल में देखी
आख़िरी फिल्म है. लेकिन मैं टीवी में फ़िल्में देखता रहता हूँ.
फिल्म इंडस्ट्री के हर क्षेत्र में
अथाह टेलेंट छिपा हुआ है.
आज रणबीर कपूर सबसे अच्छा एक्टर है. उसके भीतर अलग तरह के रोल कर
सकने का माद्दा और आत्मविश्वास है.
जब आप इंडस्ट्री में अच्छा कर रहे
होते हैं और आपको गूंगे बहरे का रोल मिलता है (बर्फी) और जहां आपको बोलने को एक
लाइन भी नहीं मिलने वाली और आप तब भी उस रोल को स्वीकार कर लेते हैं ... ऐसा करने
के लिए आपके भीतर आत्मविश्वास होना चाहिए.
अभिनेत्रियाँ भी इवौल्व कर रही हैं.
दीपिका पादुकोण मुझे शुरू में पसंद नहीं आई थी पर अब देखता हूँ उसके काम में निखार
आता जा रहा है.
मेरे ख़याल से ‘भेजा फ्राई’ में विनय
पाठक की भूमिका हाल के समय में किसी भी कॉमेडीयन का सबसे अच्छा काम है.
आज लोग फिल्मे इस लिए करते हैं कि अगर उनकी फिल्मे च्छा कर गईं तो
उन्हें काफी सारे विज्ञापन करने को मिलेंगे.
सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्धा गायन के
क्षेत्र में है क्योंकि एक हिट गाने के मतलब हुआ बहुत सारे शोज़ के कॉन्ट्रैक्ट्स.
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