Sunday, December 21, 2014

फिर सब हरा हो गया

यह कमाल कविता है. हरे से प्रेम की आदिम उत्कंठा जिसे गार्सीया लोर्का ने अपनी एक कविता* में इस खूबी से बयान किया था, अजंता जी के यहाँ जिस सुनिश्चितता के साथ अपना ठौर बनाती है, बेमिसाल है. आप भी आनंद लें इस कविता का –

कबाड़ी रवीन्द्र व्यास की पेंटिंग

वन प्रांतर

- अजंता देव

घर से चलते वक़्त याद था सब कुछ
वन प्रान्तर के मुहाने तक भी
कुछ कुछ भूलने के बाद भी
याद रहे लौटने के बाद के
अपने कर्तव्य
देर तक याद रहा पीछे बजता संगीत
सेमल के पत्तों पर हाथ फेरते हुए
बीच बीच में याद आई
किसी की त्वचा
अगले मोड़ तक याद रहे कुछ लोग
धीरे-धीरे टिमटिमाता रहा
कुछ दूर एक चेहरा


No comments: