Sunday, December 7, 2014

फ़िल्मों की बहार उर्फ़ जाने कहां गए वो दिन - अन्तिम हिस्सा


(पिछली किस्त से आगे)

दर्शकों द्वारा फिल्म पर छींटाकशी का भी रिवाज़ था. मिसाल के तौर पर विलेन की स्वाभाविक इच्छा है  कि वह हीरोइन के साथ थोडा सा बलात्कार कर ले.पर हीरोइन है कि बात को समझ नहीं पाती. कोई भगवाधारी समझाए इसे कि भई आस्था का प्रश्न है. तो साहब काफी देर बाद भी जब विलेन हीरोइन का पल्लू तक नहीं हटा पाता था तो दर्शकों में से कोई मदद की पेशकश करेगा- अबे मैं आऊँ क्या! या हीरोइन को एक दिन वॉश बेसिन के आगे खड़े होकर इलहाम होता है कि वह जो दो-चार बार हीरो के साथ नाची-गाई थी उसी वजह से उसे गर्भ रह गया. और उधर हीरो गायब! वह कश्मीर के मोर्चे पर गया था जहां उसने शुरू में तो दुश्मनों के साथ नींबू सानकर खाया और शत्रुओं के दांत खट्टे कर दिए. मगर अब सरकार कहती है कि वह लापता है. हाय राम, अब क्या होगा? ऐसे में हीरोइन किसी मूर्ती के आगे जाकर कहेगी - हे भगवान, मेरे चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा है ... मूर्ति चुप रहेगी, कोई दर्शक राय देगा - मोमबत्ती जला, मोमबत्ती और भविष्य के लिए संतति निरोध का कोई साधन भी बता देगा.

पिक्चर हॉल में कई बार ऐसी दुर्घटनाएं भी हो जाया करती थीं कि अगली सीट पर बैठे जिन भाईसाहब से आपने माचिस माँगी थी, इंटरवल में जब बत्तियाँ जलीं तो वे आपके सगे बाप साबित हुए.

यह सारा किस्सा तब तक अधूरा और अलोना है जब तक कि एक सज्जन का ज़िक्र न कर लिया जाए. यादों की बरात का दूल्हा सचमुच वही हैं. वे सज्जन काफी उम्रदराज़ थे और उस उम्र में भी मेहनत मशक्कत का काम किया करते थे. दरमियाना कद, दुबली काया पर कुरता-पायजामा-वास्कट, सर पर टोपी और आँखों में मोटा सा चश्मा. उनकी आँखें बेहद कमज़ोर थीं. एक बार मैंने उन्हें दीवार से चिपका इश्तहार पढते देखा. वे इश्तहार से चेहरा यूं सटाए थे  गोया इश्तहार को चाट रहे हों. उन जैसा पिक्चर प्रेमी देखने में नहीं आया. यह संस्मरण मैं उन्हीं अनाम बुजुर्गवार को समर्पित करता हूँ.

वे सज्जन एक अनुवादक के सहारे पिक्चर देखते थे. एक कमसिन बच्चा उनकी बगल की सीट पर बैठा उनके लिए पिक्चर की रनिंग कमेंट्री किया करता था - हाँ अब गाना हो रहा है, ना कोठे में नहीं, घर में नाच रही है. नाम पता नहीं कोई नई है. न ज्यादा मोटी, न दुबली जैसी हीरोइन होती है. हीरो जीतेन्दर है. गद्दार अभी नहीं आया पर मैंने पोस्टर में देख लिया था. प्रेम चोपड़ा है. हाँ वही शीशे से पत्थर तोड़ने वाला. हीरोइन नहा रही है. परदे के पीछे है. अल्ला कसम कुछ नहीं दिख रहा. गद्दार और हीरो में मारपीट हो रही है. हीरो रस्से से लटक कर बदमाशों को मार रहा है. ये पडी एक के लात - शीशा तोड़ते हुए बाहर छतक गया. हीरो क्यों हारेगा. हीरोइन को परेशान करता था न. हाँ ...  अच्छा गद्दार अगर फूल को जूते से मसल दे तो हीरोइन की इज्ज़त लुट जाएगी? कैसे पता? तजुर्बा क्या होता है? हीरो इज्जत क्यों नहीं लूटता? कोई भी आदमी फूल पे पाँव रख के इज्जत लूट सकता है? इज्जत क्या होती है? सलवार-कमीज़ में तो हीरोइन की इज्जत एक भी पिक्चर में नहीं लुटी ... क्यों ... चुप हो जाऊँगा तो कहोगे कि ठीक से बताया नहीं, मज़ा नहीं आया ... हाँ चलो हाफ टाइम हो गया. चाय पी लो, मैं पकौड़ा खाऊंगा.

इति फ्लैशबैक स्टोरी.

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