Wednesday, December 3, 2014

स्व. अशोक सेकसरिया को श्रद्धांजलि


स्व. अशोक सेकसरिया पर यह महत्वपूर्ण आलेख मुझे गोरखपुर में रहनेवाले जनाब पंकज मिश्र ने उपलब्ध कराया है. उनका धन्यवाद एवं आभार.

फ़कीर के घर का दरवाजा है , हरदम खुला रहा .....हरदम खुला रहे ...

- प्रो. राम देव शुक्ल

अशोक सेकसरिया जितने प्रखर प्रतिभा के रचनाकार थे, उससे कहीं बड़े फकीर थे. उनकी करुणा ने उन्हें निरंतर दूसरों के लिए सक्रिय रखा. 'अपने लिए ' - इस पद का उनके लिए कोई अर्थ कभी नही रहा. १९५५-५६ में ' हिन्दुस्तान ' के सहायक सम्पादक के रूप में रघुवीर सहाय के साथ दिल्ली में काम करना शुरू किया लेकिन किसी की चाकरी के लिए वे नहीं बनाए गए थे. कोलकाता के लार्ड सिन्हा रोड के पैतृक घर का दो कमरे का फ़्लैट, उन्हें पिता पदमभूषण सीताराम सेकसरिया से मिला था. मकान का पूरा निचला हिस्सा उनके अनुज प्रदीप के पास था. ऊपर का दूसरा फ़्लैट भी उन्ही के पास था. प्रदीप का विदेशों में उच्च गुणवत्ता के वस्त्र निर्यात का कारोबार था. कभी कभी वस्त्रों की बड़ी बड़ी गांठें रखीं रहतीं. जब कोई साधारण व्यक्ति पोर्टिको की ओर मुड़ता तो उसे चौकन्ने सुरक्षा गार्डों की निगाहों का सामना करना पड़ता. ज्यों ही वह ' अशोक जी ' कहता , गार्डों की आँखों में आदर के साथ आमंत्रण उभर आता. उपर जाने का इशारा कर वो एक ओर हट जाते. उनके पास आने जाने वालों की न कभी संख्या सीमित रही और न ही कभी काम का दबाव कम हुआ. कोई उनसे साहित्य, समाज, संस्कृति, कला, दर्शन या राजनीतिक आंदोलनों पर बहस के लिए जाता तो कोई सिर्फ पास बैठ कर शान्ति पाने के लिए. डा. लोहिया, जयप्रकाश, किशन पटनायक, दिनेश दासगुप्त, योगेन्द्र पाल सिंह, डा. रमेश चन्द्र सिंह, राम पलट भारती, उमराव आदि के साथ अशोक जी ने ' चौरंगी वार्ता ' का प्रकाशन शुरू किया. १९७४ में योगेन्द्र पाल ने मेरी कहानी 'ग्राम देवता ' उन्हें थमा दी. अशोक जी ने १९७५ के गणतंत्र दिवस अंक में उसे प्रकाशित किया. उसके बाद कोलकाता का उनका फ़्लैट मेरा भी घर बन गया, जैसा अगणित लोगों का. 

उस घर में आने जाने वाले ऐसे भी थे जो जो सूर्योदय से पहले अपने डेरे से लोकल ट्रेन से अपने काम पर जाते और तीसरे पहर अशोक जी रहे या न रहे, वे उनके फ़्लैट में आकर नहाते, जो कुछ मिलता खाते और दूसरे काम पर चले जाते. 'भारतीय भाषा परिषद ' में मिथिलांचल के बालेश्वर राय को मकाम दिलाने के बाद अशोक जी ने अपना पूरा घर उन्ही को सौंप दिया. वे माँ बनकर अशोक जी को सहेजते सम्भालते रहे. एक बार नेशनल लाइब्रेरी से मैं लौटा तो अशोक जी कहीं गए हुए थे. बालेश्वर ने मुझसे कहा कि आज अशोक जी को एक विवाह समारोह में भोजन करना है. उसी समय वे आ गए. उन्होंने कार्ड दिखा कर मुझसे कहा इस समारोह में भोजन की एक प्लेट बारह सौ रूपये की है. वह समय १९८० के आस पास का था. न जाने कितने भूखे लोगों की पीड़ा अशोक जी की आँखों में झिलमिलाई. बोले , 'बारह सौ रूपये में कितने भूखों को पेट भर खाना मिल जाता ?" बालेश्वर से उन्होंने कहा – “खिचड़ी बनाइये.” हमने उस रात खिचड़ी खाई.

अपनी रचनाओं के अस्वीकार से उदास न जाने कितने लोगों की कृतियों पर रात दिन कठिन श्रम कर के अशोक जी ने उन्हें लेखक बना दिया. किशन पटनायक की एक एक रचना को तलाश कर  “विकल्पहीन नही है दुनिया " जैसी अद्भुत किताब का अशोक जी ने सम्पादन किया. 'चौरंगी वार्ता' बाद में 'समकालीन वार्ता ' को अकेले दम पर निकालते रहे. दिल्ली-प्रवास में प्रकाशित अशोक जी की कुछ श्रेष्ठ कहानियों को बहुत बाद में प्रयाग शुक्ल और योगेन्द्र पाल ने मिलकर पुस्तक के रूप में प्रकाशित करा दिया. अशोक जी को पता चला तो दुःख से घिर गए. उन्हें दूसरों को लेखक, कवि रूप में स्थापित करा कर सुख -संतोष मिलता था. अपने को लेखक के रूप में स्वीकार ही नही करते थे. न जाने कितने अनाथ बालकों को उनके घर जाकर पढाने के बाद उन्हें छोटी-मोटी नौकरी दिलाने या रोज़गार से लगा देने जैसे काम में अशोक जी अपनी कृतार्थता मानते थे. 

अशोक जी के घर का दरवाजा कभी बंद नहीं होता था. उनके अनुज अब नही रहे. उनके पुत्र हैं, जिनका नाम मुझे स्मरण नहीं. मैं जानता हूँ, अपने ताऊ अशोक जी का वे कितना ख्याल रखते थे. उनके पास सम्पत्ति की कमी नहीं. मेरा उनसे अनुरोध है कि उस फकीर के घर के दरवाजे में ताला कभी न लगे, इसकी व्यवस्था करे. कोलकाता में सांस्कृतिक चेतना के अगणित केंद्र हैं. अशोक जी का घर अपने ढंग का अप्रतिम केंद्र है. उसके दरवाजे खुले रहेंगे तो देश-विदेश से आकर उस फकीर की स्नेह छाया में जुडाने वाले लोग उनके न रहने पर भी उस शीतलता का स्पर्श पा सकेंगे.

1 comment:

jitendra jitanshu said...

achha lekh
humlog nse lagatar milte hain
j jitanshu 9231845289
kolkata
unper pustak likhne ka prstav hain sewwwkren