Friday, December 5, 2014

हमदर्द क़ातिल समय में दोहराते हैं - “कुल्हाड़ी तो होगी?"


कुल्हाड़ी

- चन्द्रकांत देवताले

“तुम्हारे घर में क्या कुछ है बचाव के लिए?
“मैं समझा नहीं किसलिये”
“आत्मरक्षा के लिए , जैसे बन्दूक ...”
 चौंककर कहता हूँ , “नहीं.”
“तलवार - फरसा - धारिया जैसा कुछ है?
“नहीं.”
“तो लठ्ठ तो होगा ही?
“नहीं यह भी नहीं”
“तो मारे जाओगे बिना पहचान.”

समझाते हैं ऐसा बताते हैं वक़्त के भविष्यवक्ता शुभचिंतक
मैं दूसरा ही पचड़ा ले बैठता हूँ
गँदले पानी, मच्छर, चूहों और गन्दगी के बारे में
वे हँसते हैं और मानवीय लहजे में जगाते हैं
गोया मेरे भीतर सोया हो मध्ययुगीन योद्धा कोई गहरी नींद
फिर पूछते हैं - “कुल्हाड़ी?
और मैं चालीस बरस पहले की अपनी
प्रिय कुल्हाड़ी की याद में डूबने लगता हूँ
जिससे चीरा करता था ईंधन के लिए धावड़े के डूँड
यादों के गहरे पानी से खींच लाते हैं
हमदर्द क़ातिल समय में दोहराते हैं -
“कुल्हाड़ी तो होगी?
उस एक क्षण में भटक जाता हूँ शहर - दर- शहर
जगह जगह ढूँढ आता हूँ एकदम निराश
अब इन्हें कैसे बताऊँ उस कुल्हाड़ी के बारे में
जो न जाने कब विस्थापित हो गई
हमारे घर की ज़रूरत और सरहद से

वे चले जाते हैं कुछ नाराज़ी
और थोड़ी उपेक्षा के साथ
पर मैं जैसे अहसानमन्द उनका बैठा रह जाता हूँ
याद करते हत्था उस कुल्हाड़ी का
जिसे चमकाने, चिकना सुन्दर बनाने में
एक बार कितने खुरदरे गट्टेदार हो गये थे मेरे हाथ.




No comments: