Saturday, January 17, 2015

कैसी-कैसी क्रिकेट कमेंट्री - 15 - ब्रायन जॉनस्टन

जून १९५२ में अपने पहले टेस्ट में
भारत के खिलाफ गेंदबाजी कर रहे फ्रेड ट्रूमैन 

एक ऐसे शख्स के लिए जो अपनी मौत से एक महीना पहले पड़े दिल के दौरे तक लोगों के दिलों में ज़बरदस्त मजाकिया इंसान के तौर पर अपनी जगह बना चुका था, ब्रायन का बचपन खासा त्रासद रहा. जब वे दस साल के थे उनका परिवार एक पिकनिक पर गया हुआ था जिसके दौरान उनके पिता लेफ्टिनेंट कर्नल चार्ल्स जॉनस्टन कॉर्निश बीच में डूब गए थे और ब्रायन ने इस त्रासदी को अपने सामने घटता देखा था.

उसके बाद ईटन और ऑक्सफ़ोर्ड में पढ़ाई करने के बाद उन्हें बेमन से ब्राज़ील जाना पड़ा जहाँ कॉफ़ी का उनका पारिवारिक व्यवसाय था. ब्राज़ील में उन्हें एक भीषण स्नायुवीय बीमारी ने जकड़ लिया जिसमें उनके प्राण बमुश्किल बच सके.

इंग्लैण्ड वापस आने के बाद दूसरे विश्वयुद्ध में उन्हें बटालियन ग्रेनेडियर गार्ड्स में भारती कर लिया गया. बाद के दिनों में वे बेहद विनम्र अलबत्ता मज़ाकिया अंदाज़ में युद्ध के दिनों को याद किया करते थे. जब एक वरिष्ठ अधिकारी ने उनसे पूछा कि अगर वे अपनी पोज़ीशन पर तैनात हों और जर्मन सेना उनकी परफ आ रही हो तो वे कैसे कदम उठेंगे. इसके उत्तर में उन्होंने कहा था “उल्टी दिशा में, लम्बे लम्बे कदम!” यह और बात है कि दुश्मन द्वारा लगाई गयी आग के दौरान उन्होंने कुछ लोगों की जान बचाई थी जिसके एवज़ में उन्हें मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया. इस बात का ज़िक्र वे बहुत कम किया करते थे.

और हालांकि युद्ध के समय उन्होंने लोगों का मनोरंजन करने की अपनी प्रतिभा को तराशते हुए साथी सिपाहियों के साथ ख़ूब मौज की थी लेकिन अपने समूचेपन में उनका सेना का अनुभव डरावना ही था. अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है: “गर्मी और धूल, रौंदे गए मक्का के खेत, मलबे में बदल चुके परित्यक्त गाँव, शरणार्थी, मारी गायों की गंध, हमारी पहली बमबारी, असल खौफ, पहली मौतें, घायल या मृत दोस्त, जिनके साथ आपने चुटकुलों पर ठहाके लगाए थे, उन्हें एक औंधे टैंक की बगल में मरे पड़े देखना. नहीं साहब, ज़रा भी मज़ा नहीं था युद्ध में.”

तो भी युद्ध ने दो अच्छे मकसद पूरे किये. पहला कॉफ़ी-व्यवसाय में अपना बाकी जीवन बिताने से बच सकना. और दूसरा यह कि उन्हीं दिनों उनकी मुलाक़ात बीबीसी के युद्ध – संवाददाताओं स्टीवर्ट मैकफर्सन और विन्फोर्ड वॉन-जेम्स से हुई जिनके कारण ब्रायन जॉनस्टन को आउटसाइड ब्रॉडकास्ट्स के प्रमुख सेमूर दे लौब्तीनियरे से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ. 

ब्रायन जो समय की पाबंदी के लिए जाने जाते थे, सेमूर दे लौब्तीनियरे से मिलने देर से पहुँचे. यह और बात है कि इस बात को गंभीरता से नहीं लिया गया और उन्हें बीबीसी में नौकरी के लिए चुन लिया गया.
अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के चलते वे स्वच्छंद किस्म का काम करना चाहते थे और अपनी शुरुआती दिनों में उन्होंने तमान तरह के काम बीबीसी के लिए किये.

जॉनस्टन का पहला प्रोजेक्ट था लन्दन के हाइड पार्क में एक बम को निष्क्रिय किये जाने की रिपोर्टिंग करना. इस काम के लिए अपनी सुरक्षा के लिए उन्हें महिला शौचालय में बैठना पड़ा, जहा से बाहर निकलने पर उन्हें जो महसूस हो रहा था उसे सही मायनों में अंग्रेज़ी भाषा में ही समझा जा सकता है. उन्होंने लिखा है कि जव मैं वहां से बाहर निकला तो “आई वॉज़ लुकिंग अ बिट फ्लशड!”

इस तरह की घटनाओं के चलते बीबीसी ने उन्हें उनका अपना स्पॉट तैयार करने को दे दिया जिसका नाम था – ‘लेट्स गो समवेयर’ – जो ‘टाउन टुनाइट’ कार्यक्रम का हिस्सा बनने वाला था. इस कार्यक्रम के लिए वे एक से एक अटपटी जगह से ब्रॉडकास्ट किया करते थे – एक्सप्रेस ट्रेन के नीचे, चैंबर ऑफ़ हॉरर्स में अकेले रात बिताते हुए, पुलिस के कुत्ते के आक्रमण से बचते, क्रिसमस के समय किसी पोस्ट बॉक्स के अंदर बैठकर पत्र डालने वालों को हक्का बका करते.

१९४६ में ही, जो बीबीसी में जॉनस्टन का पहला साल था, उन्हें क्रिकेट कमेंट्री करने के लिए न्यौता गया. यह उनके एक पुराने मित्र इयान ओर-एविंग की तरफ से दिया गया एक शालीन और विनम्र प्रस्ताव था. इयान ओर-एविंग उन दिनों बीबीसी टेलीविज़न के आउटसाइड ब्रॉडकास्ट्स के मुखिया हुआ करते थे.

टीवी के वे शुरुआती दिन थे. युद्ध से पहले केवल चार टेस्ट मैचों का प्रसारण ही लाइव हुआ था. तो एक दिन ऐसे ही, बिना किसी औपचारिक दिशानिर्देशों के जॉनस्टन के अपने आप को कैमरे के आगे पाया. उनके साथ पर्सी फेंडर थे जो सरे और इंग्लैण्ड के पूर्व कप्तान रहे थे, जनता में बेहद प्रिय पर्सी नाक के आकार के मामले में जॉनस्टन से टक्कर ले सकने वाले अकेले थे. पर्सी के अलावा उनके साथ थे अपने ज़माने के बड़े क्रिकेट लेखक और असाधारण विट से भरपूर आर. सी. रॉबर्टसन-ग्लासगो.

“टीवी कमेंट्री के लिए हमें कोई भी पाठ नहीं दिए गए थे. उसके लिए न कोई नियत तरीका था न पैटर्न. लॉबी (सेमूर दे लौब्तीनियरे)  ने कुछ मोटे-मोटे नियम गिना रखे थे ... मसलन स्कोर क्या है, विकेट किसने लिए वगैरह ... इकलौती सलाह यह दी गयी थी कि अगर आपके पास तस्वीर में कुछ जोड़ सकने के लिए कुछ है तभी बोलें वरना चुप रहें.”

इस तरह इंग्लैण्ड भर में जॉनस्टन एक अज़ीज़ और जाना-पहचाना चेहरा बन गए – यह और बात है कि इस बात को कहनेवालों की संख्या भी ख़ासी बड़ी है कि टेलीविज़न के औपचारिक माहौल के कारण जॉनस्टन की नैसर्गिकता ख़ासी बाधित हुई.

निस्संदेह अविस्मरणीय क्षण यहाँ भी कम न थे.

१९५२ में हैडिंगली में जब अंग्रेजों ने भारतीय टीम को ध्वस्त किया था, जॉनस्टन कमेंट्री बॉक्स में ई. डब्लू. (जिम) स्वान्टन के साथ मौजूद थे.

यहाँ बता देना अनावश्यक न होगा कि उस मैच में फ्रेड ट्रूमैन ने अपने करियर का आगाज़ किया था और अपने एक घातक स्पैल के चलते भारत का स्कोर बिना कोई रन  के चार विकेट पहुंचाया था. ट्रूमैन के इस स्पैल को ‘स्पैल फ्रॉम हैल’ के नाम से जाना जाता है. यह सात जून १९५२ की बात है.


(जारी)

No comments: