Saturday, January 31, 2015

जीवन से गायब होते लोग – 3


शमशेर नेगी

(यह पोस्ट पूरी तरह से मित्र शमशेर नेगी की है. मैंने इसे ब्लॉग के लिए तैयार भर किया है)


बागेश्वर के कन्यालीकोट गाँव के लोग परंपरा से ही लकड़ी की ठेकियां बनाते आ रहे हैं. बड़े पैमाने पर लकड़ी की ठेकियों का इस्तेमाल कुमाऊँ में अनाज भंडारण में तो इस्तेमाल होता ही था, उनका सबसे अधिक इस्तेमाल दही जमाने के लिए किया जाता रहा है.

इधर कुछ बीसेक सालों से ये ठेकियाँ दिखनी या मिलनी बिलकुल बंद हो गयी हैं.

अमर उजाला, हल्दानी में कार्यरत पत्रकार और प्रिय मित्र शमशेर नेगी ने ठेकी बनाने वाले इन शिल्पकारों की बाबत कुछ दिलचस्प जानकारियाँ इकठ्ठा की हैं.

हर साल जाड़ों में ये लोग अपना गाँव छोड़कर कोई दो-एक सौ किलोमीटर दूर हल्द्वानी के समीप कॉर्बेट की कर्मभूमि कालाढूंगी में बहने वाली बौर नदी के किनारे आकर अब भी अपना परंपरागत पेशा करने में लगे रहते हैं.

यहाँ के जंगलों में मिलने वाली सांदन की मुलायम लकड़ी ठेकियां बनाने के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है. कालाढूंगी से करीब तीन किलोमीटर चलकर आप पहले बौर नदी तक पहुँचते हैं. और फिर नदी पार करके इन लोगों के ठिकाने पर.

गाड़ी, मोटरसाइकिल वगैरह से यहाँ नहीं पहुंचा जा सकता. इसके लिए ट्रैक्टर ट्रॉली में बैठकर जाना होता है. नदी के पानी के बहाव से चलने वाली लकड़ी की बनी एक मोटरनुमा घिर्री की मदद से यह जटिल कार्य संपन्न होता है. 

कुछ साल पहले तक करीब १०० लोग यहाँ आते थे. इस साल कुल ९ आये हैं. चन्दन, रमेश, गोपाल, गोविन्द, सुरेश, तेज और धनराम के अलावा इनके मुखिया पुष्कर राम.


जिस औज़ार का इस्तेमाल वीडियो और तस्वीरों में पुष्कर कर रहे हैं उसे बांक कहा जाता है. पुष्कर की टीम के बाकी सदस्य जंगल से लकड़ी लेकर आते हैं जबकि कलाकारी का सारा काम पुष्कर राम का होता है.

आमतौर पर दो से लेकर दस किलो क्षमता की लगभग सौ ठेकियां बनती हैं एक सीज़न में, जिन्हें ये वापस अपने गाँव जाकर बेचते हैं - अमूमन सौ रूपये प्रति किलो क्षमता की दर से. कई बार अनाज के बदले भी ठेकी दे दी जाती है.

कुछ महीने पेट पालने को तो पैसा आ जाएगा पर बाकी के महीने कैसे बिताते हैं, इसका कोई ठोस जवाब उनके पास नहीं. बाकी अगले साल भी आएँगे क्या? – इसका भी नहीं.

समाप्त होते हुए ये भी कुछ लोग हैं जो किसी भी तरह के विकास के दायरे में नहीं आते. 

कुमाऊनी हस्तशिल्प के इन नायाब नमूनों को लोग आजकल अपने बैठक के कमरों में भी सजाने लगे हैं.

लेकिन कभी ठेकी के दही का स्वाद किसी कुमाऊनी बुज़ुर्ग से पूछिए.  

अरे मुझसे ही पूछिए न.






       



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