Thursday, January 22, 2015

बहोत काम पड़ा है आर. डी.- ऋषि उपाध्याय से मिलिए

ऋषि उपाध्याय से मेरा परिचय इंटरनेट के ज़रिये है. पिछले कोई पांचेक बरस से. मुझे इनके लिखे का खिलंदड़ा मिजाज़ पसंद है. 

मनावर, जिला धार, मध्यप्रदेश के बाशिंदे ऋषि मुम्बई में रहते हैं . साची एंड साची नाम की विख्यात विज्ञापन कम्पनी में सीनियर क्रिएटिव डायरेक्टर हैं. उनकी फेसबुक वॉल से पेश हैं आज की कुछ कविताएं. -

ऋषि उपाध्याय

1.

नहीं तो ये बारिश भी

इस बारिश,
एक मेढक से दोस्ती करो,
आवारागर्दी करते मिलेगा किसी भी सड़क पर,
लाओ उसे सनग्लास के डिब्बे में छुपा के,
उसे ऑफिस के डरपोक दोस्तों से मिलवाना,
कैन्टीन में ले जा के पता करना
कि उसे पिज़्ज़ा पसंद है के नहीं...

इस बारिश,
एक वीर बहूटी तलाशो,
शहर से दूर जाकर,
किसी खेत की मेढ़ पर रेंगती मिलेगी,
ये सुर्ख-लाल खून की बूँद जैसी कीट,
इसे माचिस की डिब्बी में बंद करके घर लाना,
फिर मोबाइल से तस्वीरें निकाल कर,
दिखाना अपने बचपन के दोस्तों को फेसबुक पर...

इस बारिश,
छुट्टी के दिन का इंतज़ार मत करना,
अचानक किसी दिन याद कर लेना उसे,
जिसके साथ किसी बरसाती दिन,
टपरी की चाय पी थी
फिर रोये थे देर तक मिल कर
और चाय वाला समझा
टपरी से झरते पानी की बूँदें थी
हमारी आँखों में,

इस बारिश,
कुछ पुराना सा बेहूदा काम करना यार,
नहीं तो ये बारिश भी लौट जायेगी खाली हाथ,
पिछली दस बारिशों की तरह ...

2.

आर. डी.

बस करो आर.डी....
बहोत काम पड़ा है.

माना बरसाती दिन है,
रेडिओ के हर चैनल पर तुम्हारा 'शो-ऑफ' चालू है,
मोबाइल की आधी मेमोरी पर तुम्हारा कब्ज़ा है,
पर तुम्हारी तरह पगले नहीं हम आजकल,
अपना नास्टैल्जिया अपनी जेब में रखो,
बस करो...
बहोत काम पड़ा है.

माना तुम प्यारे दोस्त हो,
हर आवारगी,हर तन्हाई के साथी हो,
पर ये क्या बेवक्त माउथ ऑर्गन लिए आ जाना,
और निगोड़े 'गुल्लू' के गीत मेरी ऑफिस टेबल पे छोड़ जाना,
तुम दोनों की तरह आवारा नहीं हम आजकल,
अपनी नशेड़ी धुनें अपनी जेब में रखो,
बस करो यार...
बहोत काम पड़ा है.

मेरा कॉफ़ी कप बजाते रहोगे तो
काम कैसे करूंगा?
बासू-मनोहारी की महफ़िल जमा लोगे तो
डेडलाइन कैसे पूरी करूँगा?
और लोये मीनू कात्रक दादा की कमी थी
हो चूका मेरा प्रोजेक्ट!
आशा ताई समझाओ ना इस्को…!!
अपनी फक्कड़ी रखो अपनी जेब में,
बस करो पंचम...
बहोत काम पड़ा है.

3.

बूढ़ा बरगद

घर का वो बुढ़ा बरगद मेरा पुराना दोस्त था.
मेरे पैदा होने पर उसने
अपनी शाखों से बताशे बरसाए,
कभी उसपर गीत लटके देखे,
कभी नम हो चुके बिस्किट.
रात को उसकी छाया में कई परी देशों की सैर की,
भूत के डर कितनी बार लिपटा हूँ उससे.
पर अचानक वह सफ़ेद जटाधारी नाराज़ हो गया,
अपनी जड़ों को समेट लेट गया ज़मीन पर...
उस प्यारे दरख़्त की राख़ जब नर्मदा में डाल कर लौटा

तो मैंने दरवाज़े पर तीन बार पुकारा" दादी! दादी! दा

2 comments:

Reetesh Khare said...

लाजवाब

jatinkumar said...

Aeise me to Rishi ka woh gaana yaad aata hei jo hum saath me banaya karate the ..
Aaj phir khumaar hei...