Sunday, January 18, 2015

ख़ुद को पाया न उम्र भर हम ने


अमीर आग़ा क़ज़लबाश की यह ग़ज़ल को कबाड़खाने के एक महत्वपूर्ण और अति-मूल्यवान पाठक जनाब अमित राव की फेसबुक वॉल से उठाई गयी है. 

अमित राव उर्फ़ abcd

अमित राव लम्बे समय तक एबीसीडी के नाम से इस ब्लॉग पर एक से एक उम्दा कमेन्ट कर मेरा उत्साह बढ़ाते रहे. ह्रदय से उन्हें कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए ग़ज़ल पेश करता हूँ-

इक परिंदा अभी उड़ान में है
तीर हर शख़्स की कमान में है



जिस को देखो वही है चुप-चुप सा
जैसे हर शख़्स इम्तिहान में है

खो चुके हम यक़ीन जैसी शय
तू अभी तक किसी गुमान में है

ज़िंदगी संग-दिल सही लेकिन
आईना भी इसी चटान में है

सर-बुलंदी नसीब हो कैसे
सर-निगूँ है के साए-बान में है

ख़ौफ़ ही ख़ौफ़ जागते सोते
कोई आसेब इस मकान में है

आसरा दिल को इक उम्मीद का है
ये हवा कब से बाद-बान में है

ख़ुद को पाया न उम्र भर हम ने
कौन है जो हमारे ध्यान में है

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अमीर आग़ा क़ज़लबाश (१९४८-२००३) मशहूर उर्दू कवि थे और कई बेहतरीन फ़िल्मी गीत भी उनकी कलम से निकले. 'प्रेम रोग' और 'राम तेरी गंगा मैली' के गीत इन्हीं ने लिखे थे. उनके दो संग्रह उनके जीवनकाल में छपे - 'बाज़ गश्त' (१९७४) 'इन्कार' (१९७६) और 'शिकायतें मेरी (१९७९). फ़ारूख अरगली के सम्पादन में कुल्लियात अमीर क़ज़लबाश उनकी मौत के बाद २००६ में छपा.

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अमीर आग़ा कज़लबाश की शायरी जिन्दगी की कड़ी धूप में कांच के शामियानों से होकर गुजरना है. फिर भी, ग़ज़ल कहें या नज़्म, अपने तल्ख़ तजुर्बात की नुमाइन्दगी वे इस खूबसुरत अंदाज़ में करते हैं कि शायरी आने वाले कल के लिए मशाल जलाने की लगातार जुस्तजू है. बड़ा ताज़ा कलाम है उनका. बात कहने का अन्दाज़ ऎसा कि हमारे ज़माने से अलग उनका अपना ज़माना बोलता हुआ नज़र आता है.
अमीर की शायरी में खुद्दारी के साथ इन्सान की अपनी अहमियत का परचम़ भी है और पस्तहिम्मती का वह आलम भी है जहाँ आदमी एक तनहाई के सिवा और कुछ नहीं होता.

उर्दू के प्रसिद्ध व्यंगकार जनाब मुज्तबा हुसैन ने उनका व्यक्तित्व इस प्रकार बयान किया हैः "एक खुशशक्ल, खुशलिबास, खुशमिजाज़, खुशगुलू और खुशगुफ्तार इन्सान. मिजाज़ में एक ऎसी नफ़ासत जो अमूमन उर्दू शायरों में नहीं पाई जाती. ऐसा मजलिसी आदमी जिसकी सोहबत में ज़िन्दगी की खुशगवारी का अहसास कुछ और भी बड़ जाता है."

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