आज कबाड़खाने के प्रिय कवियों में से एक फ़रीद खां का जन्मदिन है. पटना में पले-बढ़े फ़रीद ने पहले उर्दू में स्नातकोत्तर की शिक्षा ली और उसके बाद भारतेंदु नाट्य अकादेमी से नाट्य कला में दो सालों का डिप्लोमा. पिछले दस सालों से वे मुम्बई में फिल्मों और टीवी के लिए पटकथा-लेखन कर रहे हैं. टीवी धारावाहिक 'उपनिषद गंगा' में उन्होंने डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेद्वी के साथ सह-लेखन किया है और विवेक बोडाकोटी द्वारा निर्देशित फिल्म 'पाईड पाईपर' में उनकी लिखी पटकथा को कार्डिफ़ इंडिपेंडेंट फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले का अवार्ड मिला.
बेहतरीन कवि फ़रीद की कविताएं समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
जन्मदिन के अवसर पर उन्हें बधाई देते हुए मैं उन्हीं की एक कविता आज उनके सम्मान में आपके लिए पेश कर रहा हूँ.
गंगा मस्जिद
-फ़रीद खां
यह बचपन की बात है, पटना की.
गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ की मीनार पर,
खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था.
गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,
कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”.
और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती.
मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती.
परिन्दे ख़ूब कलरव करते.
इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,
और झट से मस्जिद किनारे आ लगती.
गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती.
परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते.
मीनार से बाल्टी लटका,
मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल.
वुज़ू करता.
आज़ान देता.
लोग भी आते,
खींचते गंगा जल,
वुज़ू करते, नमाज़ पढ़ते,
और चले जाते.
आज अट्ठारह साल बाद,
मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर.
गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते.
सरकार ने अब वुज़ू के लिए
साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है.
मुअज़्ज़िन की दोपहर,
अब करवटों में गुज़रती है.
गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,
मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है.
गंगा मुझे देखती है,
और मैं गंगा को.
मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है.
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गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ की मीनार पर,
खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था.
गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,
कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”.
और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती.
मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती.
परिन्दे ख़ूब कलरव करते.
इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,
और झट से मस्जिद किनारे आ लगती.
गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती.
परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते.
मीनार से बाल्टी लटका,
मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल.
वुज़ू करता.
आज़ान देता.
लोग भी आते,
खींचते गंगा जल,
वुज़ू करते, नमाज़ पढ़ते,
और चले जाते.
आज अट्ठारह साल बाद,
मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर.
गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते.
सरकार ने अब वुज़ू के लिए
साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है.
मुअज़्ज़िन की दोपहर,
अब करवटों में गुज़रती है.
गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,
मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है.
गंगा मुझे देखती है,
और मैं गंगा को.
मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है.
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(मुअज़्ज़िन - अज़ान देने वाला)
2 comments:
बेहतरीन कविता।
shukriya fareed sahab. Kaash....
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