शेफाली फ्रॉस्ट की कविताएं आप कबाड़खाने पर पढ़ते रहे हैं. आज उनकी एक और उम्दा साझा कर रहा हूँ. यह कविता शेफाली की अन्य कविताओं के साथ 'जलसा' के अगले अंक में प्रकाश्य है. फिलहाल इस वजह से इसे कबाड़खाना एक्सक्लूसिव कहा जा सकता है-
ऑस्ट्रियाई चित्रकार इगोन शीले की पेंटिंग 'प्रोसेशन' (१९११) |
मुसलमान रहो
-शेफाली फ्रॉस्ट
'मान लो कि ख़ैरख़्वाह हूँ मैं,
इश्क़ करती
हूँ उस क़ौम से
जो तुम्हारी
है,
जो तुम
हो... '
'मेरी है, मैं हूँ?'
'हाँ, बात
करो न उनकी प्लीज़,
वो पुरखे
तुम्हारे ईरान से, तुर्रान से,
गोरे, चमकीले, ब्राह्मण
तुम्हारी जात के,
सुना है
उनकी बीवियों ने
पर्दा नहीं
किया कभी … है ना?'
'बुर्क़ा पहनती हैं।'
'कौन?'
'अम्मी मेरी।'
'रियली! बट हाऊ कैन यू अलाऊ
दैट?'
'अलाऊ मतलब? उनकी मर्ज़ी।'
'पर तुम तो वैसे नहीं?'
'कैसे?'
'अरे हैं न वो काले काले,
काजल लगे, लोबान वाले,
मांगते हैं
मज़ारों का चंदा,
हरी चादर
में गाड़ी रोक,
अकेली पड़
जाऊं उनके हाथ कभी,
तौबा ! सोचो
क्या हशर होगा मेरा!'
'क्यों, छू
लेंगे तुम्हे?'
'उफ़! नॉटी!
उनकी सुनाओ
ना मुझे,
कार्ल
मार्क्स की हंसिया पकड़े,
फैज़ लपेटे
कान में,
नाप दें
रोज़े साल्हो साल,
दाब दें
ताज़िए बा-एहतराम, लेकिन,
पड़ोसियों
को ख़लल न पड़े,
लड़कियाँ
न्यूयॉर्क रहे, बीवियां कुर्रान पढ़ें
शराब से
तौबा नहीं, पर... '
'अरे! वो नहीं हूँ मैं,
मेरी जान!
अलिफ़ बे का
तालिब,
मीर, मोमिन और ग़ालिब,
सड़क से
गुज़रूँ तो
चप्पल की
चाप में उर्दू बसे,
भीड़ में
चलाता हूँ मारुती
हॉर्न बजा
बजा कर, एक्सैक्टली वैसे
जैसे
तुम्हारे बाप,
गालियां
देता हूँ पैदलों को बाकी,
कुछ
हिन्दुआनी, कुछ मुसलमानी,
मेरा हुजूम
मुझे वैसे ही निगलता है
जैसा
तुम्हारा तुम्हे,
वो अमरीकी
आसमान जब औंधा गिरा ज़मीन पर
उतना ही
बेखबर रहा मैं जितना की तुम,
नामा देखा, ट्रैफिक का अफ़सोस किया,
सब्ज़ियों
के दाम कर्फ्यू में कितने बढ़ेंगे
तिजारत की …'
'दैट इस ऑपर्चुनिज़्म!
यह
आइडेंटिटी दोगे हमारे बच्चों को तुम?'
'आइडेंटिटी?
अमरीकियों
की नौकरी बजाता हूँ,
साइबर पार्क
में नौ से पांच,
वीकेंड पर
शराब पीता हूँ, जर्मन,
जो न हिन्दू
है, न मुसलमान,
जुम्मा कब
आया याद नहीं,
ईद उतनी ही
इर्रेल्वेन्ट है जितनी दीवाली,
पर दोनों पर
दिए जलाता हूँ,
हाँ, जब हिन्दुओं के गढ़ में मकान ढूंढने जाता
हूँ,
सोचता हूँ, ले चलूँ तुम्हे भी साथ,
बिंदी लगाए, छै गज की साड़ी लिपटाये!
देर रात, बैरियर किनारे
मांगता है
लाइसेंस, पान चबाता ठुल्ला,
डर यह नहीं
कि,
गाड़ दिया
जाऊं, कि जला दिया जाऊं,
बस इसलिए कि
गुआंटानमो में न मार दिया जाऊं,
कर देता हूँ
तुम्हे आगे, बड़ा शर्मसार,
सोचा है नाम
दूंगा बच्चों को अपने
पीटर, टोनी, और निर्वाण,
अगली पुश्त
के लाइसेंस तो न कहलायें मुसलमान!'
'अरे, अरे!
ना कहीं,
यह कैसा
कुफ्र है तुम्हारा मेरे ख़िलाफ़!
तुम मुसलमान
न होगे,
मैं ख़ुद को
क्या कहूँगी?
नारे
लगाऊंगी, गाने गाऊंगी,
जेल के गेट
पर धरना लगाऊंगी,
शान से
कहूंगी,
हैं तो वही, पर वैसे नहीं!
इन्हे मैं
प्यार करती हूँ...
मर भी जाओ
तुम ऐसे-वैसे, इधर-उधर,
हक़ होगा
मेरा तुम पर, मय्यत पर करूंगी सोज़ख़्वानी,
मेरे महबूब, तुम्हे मेरी मुहब्बत की क़सम,
डोंट थिंक
इलेक्ट्रिक क्रेमटोरियम में होने दूँगी क्विक एंड ईज़ी!
मुंह घुमा
दूँगी तुम्हारा, जिस तरफ कहेंगे क़ाबा,
पूरे साढ़े
छै फुट नीचे करवाऊँगी दफ़न,
रो रो कर
कहूँगी सबसे
जब ज़िंदा
थे तब सबसे डरे,
पर प्यार
देखो मेरा,
मुसलमान थे, मुसलमान ही मरे!'
1 comment:
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
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