फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्म सियालकोट में १९११ में
हुआ. शिक्षा दीक्षा लाहौर में हुई जहाँ से १९३४ में उन्होंने एम.ए. की डिग्री
हासिल की. पहले वे एक कॉलेज में अंग्रेज़ी के अध्यापक हुए उसके बाद फ़ौज में भरती हो
गए. वहां उन्हें लेफ्टिनेंट कर्नल तक का ओहदा मिला और युद्ध की सेवाओं के एवज़ में
एम.बी.ई. का तमगा. देश के विभाजन के बाद उन्हें पाकिस्तान टाइम्स का संपादक
नियुक्त किया गया. रावलपिन्डी केस में उन्हें जेल की सज़ा काटनी पडी. कालान्तर में
उन्होंने एफ्रो-एशियाई लेखक संघ की पत्रिका ‘लोटस’ का लेबनान से सम्पादन किया.
१९८४ में वे पाकिस्तान लौटे और उसी साल उनका निधन हो गया. प्रगतिशील लेखक संघ के
महत्वपूर्ण साहित्यकारों में उनकी गिनती होती है लेकिन दरअसल वे एक ऐसे शायर हैं
जिनके यहाँ संवाद और कला का अनूठा सामंजस्य पाया जाता है. शायरी की उनकी सात
किताबें छपीं और उन्हें अनेक सम्मान मिले जिनमें लेनिन शांति पुरुस्कार सबसे
महत्वपूर्ण है.
तुम मेरे पास रहो
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
-
तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी के सियह रात चले
मर्हम-ए-मुश्क लिये नश्तर-ए-अल्मास चले
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले
दर्द के कासनी, पाज़ेब बजाती निकले
जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिल
आस्तीनों में निहाँ हाथों की,
रह तकने लगे, आस लिये
और बच्चों के बिलखने की तरह, क़ुल-क़ुल-ए-मय
बहर-ए-नासुदगी मचले तो मनाये न मने
जब कोई बात बनाये न बने
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी, सुन-सान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी के सियह रात चले
मर्हम-ए-मुश्क लिये नश्तर-ए-अल्मास चले
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले
दर्द के कासनी, पाज़ेब बजाती निकले
जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिल
आस्तीनों में निहाँ हाथों की,
रह तकने लगे, आस लिये
और बच्चों के बिलखने की तरह, क़ुल-क़ुल-ए-मय
बहर-ए-नासुदगी मचले तो मनाये न मने
जब कोई बात बनाये न बने
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी, सुन-सान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
(सियह - काली, मर्हम-ए-मुश्क - कस्तूरी मलहम, नश्तर-ए-अल्मास - हीरे की छुरी)
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