Monday, June 15, 2015

मोहब्बत को तुम लाख फेंक आओ : पाकिस्तान से आधुनिक कवितायेँ - 6

मख़दूम मोहिउद्दीन

लख़्ते जिगर
- मख़दूम मोहिउद्दीन

मोहब्बत को तुम लाख फेंक आओ गहरे कुँए में
मगर एक आवाज़ पीछा करेगी
कभी चांदनी रात का गीत बनकर
कभी घुप अँधेरे की पगली हंसी बनके
पीछा करेगी
मगर एक आवाज़ पीछा करेगी

वो आवाज़
नाख़्वास्ता तिफ़्लके-बेपिदर
एक दिन
सूलियों के सहारे
बनी-नौअ-इंसां का हादी बनी
फिर ख़ुदा बन गयी

कोई माँ
कई साल पहले
ज़माने के डर से
सरे-रहगुज़र
अपना लख़्ते जिगर छोड़ आई
वो नाख़्वास्ता तिफ़्लके-बेपिदर
एक दिन
सूलियों के सहारे
बनी-नौअ-इंसां का हादी बना
फिर ख़ुदा बन गया


[नाख़्वास्ता: अनिच्छित, तिफ़्लके-बेपिदर: बिन बाप का बच्चा, बनी-नौअ-इंसां: मानव जाति, हादी: पथप्रदर्शक]

-------------------------

१९०८ में हैदराबाद में जन्मे मख़दूम मोहिउद्दीन ने वहीं के उस्मानिया विश्वविद्यालय से एम.ए. किया. शुरुआती दिनों से ही अपने क्रांतिकारी रुझान के कारण वे ख़ासे चर्चित हो गए. सक्रिय कम्युनिस्ट नेता और ट्रेड यूनियनिस्ट मख़दूम मोहिउद्दीन को अपने विचारों के कारण १९४६ से १९५१ के बीच कई दफ़ा जेल जाना पड़ा. बाद में वे आंध्र प्रदेश की विधान सभा में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बने. उनका लम्बा सम्बन्ध प्रगतिशील लेखक संघ से रहा. अपने समकालीनों में सबसे अधिक लोकप्रिय शायरों में शुमार हुए. १९६९ में निधन से पहले उनके तीन कविता संग्रह सुर्ख सवेरा, गुलेतर और बिसात-ए-रक्स प्रकाशित हुए.

No comments: