Tuesday, June 16, 2015

ऐ हसीन-ओ-अजनबी औरत मुझे अब थाम ले - पाकिस्तान से आधुनिक कवितायेँ - 7

नून मीम रशीद

नून मीम राशिद का जन्म 1910 में पश्चिमी पंजाब के गुजरांवाला में हुआ था. पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से उन्होंने 1932 में एम.ए. किया. विभाजन से पहले वे आल इण्डिया रेडियो में काम करते रहे. बाद में वे संयुक्त राष्ट्र संघ में कई महत्वपूर्ण स्थानों पर रहे. उर्दू कविता में आधुनिकता के बड़े संस्थापकों में उनका भी नाम लिया जाता है. वे प्रगतिशील लेखक संघ के समानान्तर चलने वाली संस्था हल्क-ए-अरबाब-ए- ज़ौक़ से सम्बन्ध रखते थे. उन पर पाश्चात्य साहित्य का बड़ा प्रभाव रहा जो उनके लेखन में स्पष्ट दिखाई देता है. 1975 में उनके पहले उनकी जो किताबें छपीं उनमें प्रमुख थीं – मावरा, ईरान में अजनबी, लामुसावी इंसान और गुमनाम का मुमकिन.

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
- नून मीम राशिद

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
जिंदगी से भाग कर आया हूँ मैं
डर से लरजाँ हूँ कहीं ऐसा न हो
रक्स-गह के चोर दरवाज़े से आकर जिंदगी
ढूंढ ले मुझको निशाँ पा ले मेरा
और जुरमे-ऐश करते देख ले

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
रक्स की ये गरदिशें
एक मुबहम आसिया के दौर हैं
कैसी सरगर्मी से गम को रौंदता जाता हूँ मैं
जी में कहता हूँ कि हाँ
रक्स-गह में जिंदगी के झांकने से पेश्तर
कुल्फतों का संगरेज़ा एक भी रहने न पाय

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
जिंदगी मेरे लिए
एक ख़ूनी भेड़िये से कम नहीं
ऐ हसीन-ओ-अजनबी औरत उसी के डर से मैं
हो रहा हूँ लम्हा-लम्हा और भी तेरे क़रीब
जानता हूँ तू मेरी जाँ भी नहीं
तुझसे मिलने का फिर इम्काँ भी नहीं
तू ही मेरी आरज़ूओं की मगर तफ़सील है
जो रही मुझसे गुरेज़ाँ आज तक

ऐ मेरे हम-रक्स मुझको थाम ले
अहदे पारीना का मैं इन्सां नहीं
बंदगी से इस दरो-दीवार की
हो चुकी है हैं ख्वाहिशें बेसोज़ो-रंगों-नातवाँ
जिस्म से तेरे लिपट सकता तो हूँ
जिंदगी पर मैं झपट सकता तो हूँ
इस लिए अब थाम ले
ऐ हसीन-ओ-अजनबी औरत मुझे अब थाम ले  

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