दादरी में हिंसक भीड़ के हाथों क़त्ल हुए मोहम्मद अख़लाक़ |
दादरी का अख़लाक़
-राजेश जोशी
हर हत्या के बाद
ख़ामोश हो जाते हैं
हत्यारे
और उनके मित्रगण.
उनके दाँतों के बीच फँसे
रहते हैं
ताज़ा माँस के गुलाबी
रेशे,
रक्त की कुछ बूँदें भी
चिपकी होती हैं
होंठों के आसपास,
पर आँखें भावशून्य हो
जाती हैं
जैसे चकित सी होती हों
धरती पर निश्चल पड़ी
कुचली-नुची मृत मानव देह
को देखकर
हत्या के बाद हत्यारे
भूल जाते हैं हिंस्र होना
कुछ समय के लिए
वो चुपचाप सह लेते हैं
आलोचनाएँ,
हत्या के विरोध में लिखी
गई कविताएँ
सुन लेते हैं बिना कुछ
कहे
यहाँ तक कि वो होंठ
पोंछकर
दाँतों में फँसे माँस के
रेशे को
खोदकर, थूककर
तैयार हो जाते हैं हिंसा
की व्यर्थता पर
आयोजित सेमीनारों में
हिस्सेदारी को भी
हर हत्या के बाद
उदारवादी हो जाते हैं हत्यारे
कुछ समय के लिए
जब तलक अख़बार उबल कर
शांत न हो जाएँ
जब तलक पश्चिम परस्त, पढ़े लिखे नागरिक
जी भरकर न कोस लें
हत्यारों को
हमारे प्राचीन समावेशी
समाज की इस स्थिति पर
जब तलक अफ़सोस जताना बंद
न कर दें सर्वोदयी कार्यकर्ता
और जब तलक राइटविंग के
उत्थान पर
छककर न बोल लें
कम्युनिस्ट टाइप प्रोफ़ेसर
एनजीओ चलाने वाली सुघड़
महिलाएँ
जब तलक ह्यूमन राइट्स
वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल
अपनी फैक्ट फ़ाइंडिंग
पूरी न कर लें.
जब तलक हत्या के विरोध
में सैकड़ों कवि
लिख न डालें अपनी अपनी
छंद-मुक्त कविताएँ
तब तलक दयनीय बने रहते
हैं हत्यारे.
"देखो -
सब उन्हें ही घेर रहे हैं.
बुद्धिजीवी, मास्टर, पत्रकार, कवि और मानवाधिकार वाले
सभी हत्यारों को ही दोषी
क्यों ठहरा रहे हैं?
यह कहाँ का न्याय है?
आख़िर जो मारा गया -
उसका भी तो दोष रहा ही होगा?"
कोई भरी मासूमियत से
सवाल करता है कहीं साइबर-स्पेस में
दूसरी आवाज़ एक माननीय
सांसद की होती है:
आख़िर शांति-व्यवस्था
बनाए रखने की ज़िम्मेदारी
हत्यारों की ही क्यों
होनी चाहिए?
फिर एक टेलीविज़न का
एंकर
एत्तेहादुल मुसलमीन के
नेता से पूछता है सवाल:
अब मुसलमानों को भी
सोचना ही पड़ेगा
कि बार बार वो ही निशाना
क्यों बनते हैं?
क्या आप नहीं मानते कि
सिमी राष्ट्र-विरोधी है?
फिर आते है बाहर निकलकर
हत्यारों के सिद्धांतकार
ले आते हैं आँकड़े निकाल
कर पिछले बरसों के
कितने ख़ुदकुश हमलावर
मुसलमान थे और कितने थे दूसरे.
चेचन्या से लेकर यमन और
सोमालिया और नाइजीरिया तक
गज़ा पट्टी से लेकर
सीरिया,
इराक़ और ईरान तक
कश्मीर से लेकर हेलमंद
तक -
कहीं पर भी तो चैन नहीं
है इन लोगों को.
और फिर एक सहनशील समाज
कब तक बना रह सकता है
सहनशील?
एक जागरूक समाज में
खुलकर चलती है
हत्या के कारण और निवारण
पर स्वस्थ बहस
बहुत से तर्क तैयार हैं
कि
हत्या हमेशा नाजायज़
नहीं होती
बहुत से लोग सोचने लगते
हैं -
अरे, ये तो हमने सोचा ही नहीं.
वकील अदालत में पेश करते
हैं मेडिकल रिपोर्ट
मीलार्ड, हत्यारा धीरे धीरे अंधा हो रहा है,
उसके पेट में गंभीर
कैंसर पैदा हो गया है,
उसकी माँ मर गई है -
अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं.
मीलार्ड, हत्यारे को ज़मानत दी ही जानी चाहिए.
मुस्लिम्स हैव मूव्ड आन, मीलार्ड.
हत्यारा भी तो आख़िर
इंसान है.
वैसे भी हत्या को अब
बहुत वक़्त हो चुका है.
अब कब तक गड़े मुरदे
उखाड़े जाएँ.
अब कब तक चलता रहेगा
ब्लेम-गेम?
समाज में समरसता कैसे
आएगी अगर
सब मिलजुलकर नहीं चलेंगे, मीलार्ड?
समझदार न्यायमूर्ति
सहमति में हिलाते हैं सिर
वो कम्युनिस्टों के
प्रोपेगण्डा से, हह, भला प्रभावित होंगे?
न्याय सबके लिए समान है
और सबको मिलना ही चाहिए
- चाहे वो हत्यारा ही क्यों न हो.
फ़ैसला आ गया है, हत्यारो !!!
सब नियम ख़त्म हुए,
सब किताबें हुईं बंद,
सभी आलोचनाएँ भी ख़त्म
हुईं,
ख़त्म हुई टीवी की बहसें,
ख़त्म सब आलेख और बयान
ख़त्म हुआ कविता लेखन
भी.
जब सब ख़त्म हो रहा होता
है,
तब फिर से तुम्हारी तरफ़
देखता है ये उदार समाज
हमारी प्राचीनता और
हमारी शुद्धता के रक्षकों,
ओ हत्यारो !
(लंदन, १ अक्तूबर २०१५)
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