पैदा होंगे ही कुछ ऐसे
भी सोचने वाले
-संजय चतुर्वेदी
साथी अपल सिंह और उनके गोमती अभियान की टीम के साथ अपने घर बरेली में वीरेन डंगवाल. फोटो: रोहित उमराव |
वीरेन जी कैसे एक
विरोधाभासी दुनिया और शोर शराबे में सहज होकर हंसते हुए रह लेते थे यह शायद हम कभी
न सीख पाएंगे. उनसे मिलकर ऐसा लगता था जैसे शिवजी के ब्याह से कोई बाराती लौटा हो.
उनकी यारबाशी का दायरा भी शिव जी की बारात जैसा ही था. ये और बात है की उनके
औपचारिक संपर्क की साहित्यिक गोलबन्दी में शायद ही कोई, दूर-दूर तक
भी, उनके
जैसा हो. उस गोलबन्दी में सहजता भी तनी हुई रस्सी जैसी लगती है. फिर भी वे सच में
सहज रह पाए और एक भरे पूरे औपचारिक कवि जीवन का भी उन्होंने निर्वाह किया.
वीरेन जी के चाहने वाले
उन्हें उनके व्यक्तिगत गुणों के कारण याद करते रहेंगे. उनकी कविताएं अक्सर साहित्य
के कारोबारी व्याकरण को छोड़कर उनके अबाध्य गुणोंकी गुलेल पर चढ़ीं और “सनसनाते समोसों” की तरह दूर तक पंहुचीं. “मरते तो सभी हैं साथी – यह तो हुई वही पुरानी बात” लेकिन मनहूस महानता के इस दौर में दूर तक ख़लल बनकर तुम्हारी
आवाज़ रहेगी – पाक़ीज़ा
में रेलगाड़ी की तरह. “आशिक़ जैसी गर्म उसांसें – वह सीटी भरपूर”.
उस मन्ज़रकशी में
सरीर-ए-ख़ामा यहां तंग हो रही है.
उत्पत्स्यते हि नः कोपि समानधर्मा - भवभूति
1 comment:
आधुनिक कविता में वीरेन डंगवाल का क्या योगदान है यह बताने की जरूरत नहीं है। रोजमर्रा की जिंदगी के सामान्य पहलुओं को असामान्य कवि-दृष्टि से देखने की उनकी क्षमता उन्हें श्रेष्ठ कवियों की श्रेणी में ला खड़ा करती है।
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