Thursday, October 15, 2015

इस विध्वंस में भी प्रेम बेतरतीब


जहाँ की महिलाएं हों गयीं कहीं

-वीरेन डंगवाल

मुझे भला लगे जाना उस घर
जहाँ की महिलाएं हों गयीं कहीं.
एक निर्विघ्न स्वतंत्रता
चारपाई पर पड़ा पाजामा
चाय के भगौने में सड़ती पत्ती
इस विध्वंस में भी
प्रेम बेतरतीब.
जायेंगी तो खैर जायेंगी कहाँ तक?
मायके,
थोड़ा अधेड़ हो चलीं तो भाई के घर,
या फिर आस-पड़ोस
मगर इसमें खटका है
कभी भी लौट आने का.
फिर भी
हम तो टहल ही लेंगे इस दौरान सब जगह,
लेट लेंगे कहीं भी
कुछ पका भी लेंगे
किसी डिब्बे में मिल ही जाएगा कुछ
फिर नापेंगे अपना रास्ता.
कुछ अनमनी मायके
भाभी से कुछ रूठी
तनिक ख़ुश
अपने नरक की बेतरतीबी में ही ढूंढेंगी वे
अपनी अपरिहार्यता की तसल्ली
खीझ भरी प्रसन्नता के साथ.

2 comments:

Unknown said...

एकदम खरा सच ,वहीं वहीं लौटना है उन्हें खीझ भरी प्रसन्नता के साथ !

Unknown said...

एकदम खरा सच ,वहीं वहीं लौटना है उन्हें खीझ भरी प्रसन्नता के साथ !