Tuesday, October 13, 2015

और मेरे रोने में तुम्हारा भी स्वार्थ है



महानगर बनते हुए शहर से नोट्स

-शेफ़ाली फ्रॉस्ट

1.

मैं असंख्य दर्शकों के सामने 
उस हरी बोतल को खड़ा हुआ देखती हूँ
जो अंदर की हवा को काट चुकी है 
बाहर की किसी भी आवाज़ से,
मैं अपनी अप्रतिम सोच पहुँचाना चाहती हूँ
उस प्रतिध्वनि में 
जो पटक रही है सर 
बंद ढक्कन के नीचे,
जिसे बाहर लाने के लिए
एक, दो, तीन, फिर चार आवर्तन से 
निकल जाने के लिए 
चाहिए मेरे दोनों खाली हाथ  
जो सिर्फ अपनी आवाज़ को सुनने में 
इतने रत है
की जान ही नहीं रहे  
वो जो कुछ कहना चाहते हैं  कहा जा चुका है बहुत पहले,
जो आ आ कर
ढक्कन के आत्ममुग्ध आकारों में  
उद्देलित हो रहे हैं, अपने ही आवर्तन से
जैसे पांचवी, छठी, सातवीं आवाज़ भी 
मेरी हो, सिर्फ मेरी,
जैसे मैं ढक्कन से कभी दबी ही नहीं
शीशी में कभी फँसी ही नहीं
जैसे वो असंख्य दर्शक 
जिन्हे देख रही हूँ,  
अपनी सोच के पार,
उस हरी बोतल में बंद नहीं 
मेरे ही के साथ

2.

स्टेशन की इस भीड़ में
प्लॅटफॉर्म की एक बेंच पर
जब अनजानों का सैलाब 
हमें सट कर बैठा दे,
एक बासी सी गर्मी 
थकी हुई आपस में टहले,
मुझे खुश रहने दो
कि मैं तुम्हे नहीं जानती,
क्या बिना टटोले,  
बिना कुछ भी बोले,
हम आख़री मैट्रो छोड़ नहीं सकते

3.

गोल छतरियां सी रही हैं,
काली थिगड़ियां पुतलियों में
आसमान से सहम कर रो रहे हैं
कितने लोग,
उतर गए हैं 
सड़क से अचानक,  
बाँध दिए हैं सबों ने सर अपने
कल वाली बात पर
दौड़ रही हैं चीटियाँ पगडंडियों पर पैर बचा,
दिन जूतों तले दब गया है 
लेकिन
एक बिस्तर भी ऐसा नहीं
जो ले ले भार शरीरों का
और कुछ देर के लिए सो जाये यह भीड़  
जो जमा हो गयी है मेरे 
आँगन के अँधेरे में,
न जाने क्यों


4.

'ए सर जी दे न!'
झपक रही थी 
लाल बत्ती की उलझन 
बंद गाड़ी के शीशों पर मेरी
एक पल को ठिठका मैं
नारंगी बत्ती पर बदलते हुए चाल,   
बुझी पलकों में 
रात थी उसकी
रुकी गाड़ियों से ली उधार,  
"शर्म नहीं आती?
इतनी छोटी हो तुम!"
मारा मुहं पर उसके उठा के दो हाथ,
"दस रुपया प्लेट चने की दाल  
गिलास भर रायता, पानी-बूंदी
रोटी, चावल 
साथ में खीरा और प्याज़,"  
हरी बत्ती पर सड़क छोड़ 
लगाने लगी मुझसे   
अपनी फटी गुदड़ी के दाम,
हंसती रही आँख भर भर
पीटती रही अपना हाथ, अपने ही हाथ.

5.

इस नंगे, अकेले सच के सामने 
कपड़े उतार खड़े हो जाने
बार बार पलटता है प्रेम,
फिर-फिर चिता पर जाता है 
पुराने बर्तनों में सच,
मुखाग्नि लेने 
फिर-फिर आगे आता है  
पुचकारता हुआ झूठ,
'मुट्ठी भर राख है बस, अस्थियां, गेंदे के फूल,
आत्मा नश्वर है, हमेशा आपके साथ रहेंगे,
बस कपड़े बदलेंगे,
वाहियात, सने हुए सुतन्ने  में  
संतान बन कर जन्मे लेंगे
वगैरह

बिलखते रहते है शब्द उनके
जिनके घर आज कोई मरा नहीं.  

मैं,
आज घोषणा करती हूँ  
मरना, मरना होता है 
और कुछ नहीं
जले हुए शरीर में
बचता नहीं बाकी कुछ भी
इस नंगे, अकेले 
कपडे उतार खड़े सच के समक्ष
मैं भयग्रस्त हूँ, आत्ममुग्ध हूँ
मुझे रोता देखने वालों 
चुप रहो और देखो,
मैं शोकमुक्त हूँ,
और मेरे रोने में तुम्हारा भी स्वार्थ है


6.

(सेक्टर छियालिस का कितना लोगे?) 

वो
जिसका सुन्दर नाम नहीं है कोई
बीस रुपया सवारी से कर रहा है तक़रार,
मुड़े हुए नोट से निकाल रहा है 
सड़ा हुआ टेप
पोंछ रहा है माथा
गमछे के पसीने से  

वो
जो रोटी के नाम पर अब भी उबल रहा है,
नमक के दाम पर अब भी पिघल रहा है
शहर की सड़कों में आवाज़ बन कर उड़ गया है
दस मिनट हुए, ब्लूलाइन के पहिये में मुड़ गया है

वो
जिसका सुन्दर अंत नहीं है कोई,  
उस रिक्शेवाले पर 
पसर कर बैठा है चौड़ा आदमी
फैल रहा है खून जैसा आगोश में उसके,
कर रहा है इसरार,
'अरे चलो भी!
अभी मरे नहीं कहलाते तुम'    


7.

मटमैले अंगूठे पर चढ़ी हुई परतें 
उतारने लगीं धूल 
हर उस शहर की 
जहाँ गुजरने से पहले 
उसने चप्पल में पाँव डाला था,
रोक कर पूछा मैंने 
दायें पांव के अंगूठे से 
बाएं पाँव से बात करते हो कभी?
चिढ़ा के मुंह उचक गया - 
देखो गड्ढा ये, मेरे अंगूठे के नीचे!
एक बार छूट जाऊं
इस थुल-थुल खाल के लबादे से
बता दूँ किसे कहते हैं चलना!
रुक रुक के खांसता है रस्ता भर
ये तीन उंगली वाला बायां पैर,
जैसे ले जाएगा 
पूरे शरीर को वापिस
जहाँ से चल कर आया है
और पलट लूंगा मैं भी
जैसे घर की याद आती हो मुझे,
इस ढलते शरीर की बास से!"

8.


बीहड़ सड़कों पर अकेली गाड़ी 
गुनगुनाती जा रही है 
गीत संदेह का 
लगता नहीं रुकेगी ये
इस रात भी यहाँ 


9.

आसमान एक लकीर है पीली 
चढ़ गयी है तलुवों से  
घुटनों की कगार तक,
बचा नहीं उजाला
खिड़कियों के पास 
जो सुलगा दे बाकी की जांघ 
निकल जाये धधकती हुई वो  
लो वोल्टेज के मकान से,  
कौन उठ कर दरवाज़ा खोले?
बैठे हैं बेंत की कुर्सियों पर अँधेरे

जी रहे हैं बुझे कमरों में 
बिना आवाज़ किये कुछ लोग 

10.


बर्फीले पैर से मिलती है जुराब
और खुलती है रज़ाई
चादर बिछाने के बाद,
मैं तुमसे ऐसे मिलना चाहती हूँ 
जैसे उतरते कपड़े की बिजली
सर्र से खाल पर चढ़े,
मैं छुप जाना चाहती हूँ ऐसे 
जैसे बाहर से झांके तुम्हारे अलावा कोई
तो सोचे, आज नहीं कभी और,
मैं उतना भटक जाना चाहती हूँ
जितनी तुम्हारे सपने की महक और 
तकिये पर लगा मेरे बालों का तेल
मैं रुक जाना चाहती हूँ तुम्हारे पास 
जैसे ढलते हुए शरीर में 
कौंधता है रह रह 
कटी हुई उंगली से 
निकलता हुआ खून 


11.

बिजली घुल घुल जाती है पानी में
घुप्प हैं चेहरे सबके हवा के जलने से
एक बहुत बड़ा आदमी
शालीन, चुपचाप
ले रहा है सांस सबकी 
धरती से आसमान तक
देखना नहीं चाहता वो कुछ भी 
दर्ज़ नहीं करना चाहता 
कतरने सन्नाटों की,  
जिनसे बंद कर कान  
बाँध कर पैर 
मींच कर आँख उसने
ये लड़खड़ाता हुआ हँसना सीखा

सुन कर निकल नहीं पाये हम 
उस घुटे हुए कमरे से आज भी

12.

तुम कह दो तो नीली सियाही से रंग दूँ अपनी दुकान 
जोड़ दूँ दुखियारे आसमान में 
तारों की बरात 
चढा दूँ अकेली रात के माथे 
सोलह चांदों की सेज
पत्थर की छाती फटवा दूँ 
पराजित प्रेमी को मिलवा दूँ 
उस खोयी हुई राह से 
जिसे न जाने कितने कवियों ने 
रचना के हत्थे चढ़वाया है 
बता दो मुझे तो हट जाऊं 
शब्दों के उस अर्थ से 
जहां मेघ एक गड्ढा है
जिसमे सूरज डूब गया है 
जहां अँधेरा घना है,
और सौंदर्य के नाम पर 
चाँद का मुंह टेढ़ा है और
जले तारों का मुंह काला है,
बताओ मुझे तो समेट लूँ उजाला उस शून्य का 
जो ले कर हाथों में मेरा हाथ
लिख देना चाहता है 
किताबों के लेबल पर अपना महाकाव्य
जैसे वो अमर्त्य, कड़क, अरोक सम्मोहन जो 
बांधे हुए है मेरी ज़ुबान
चाँद पर की गयी टिप्पणियों से
टूट सकता है 
अगर कसरती अंगूठा 
उंगली पर ज़ोर डाल दे,
और कुछ न होने में से 
कुछ को निकाल दे,
दस रुपये में पांच खरीदी 
नीले बॉल पॉइंट वाली कलम के साथ

(सभी चित्र - पाब्लो पिकासो की पेंटिंग्स)

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