यह एक सड़क का गीत है जिसने हमारे प्यारे कबाड़ी
संजय व्यास के गद्य में जगह पाई है. संजय के ब्लॉग से पढ़िए गद्य का यह टुकड़ा -
फ़ोटो http://chicagoboyz.net/ से साभार |
कोलतार की शै
- संजय व्यास
इस शहर की एक सड़क ऐसी थी जो उसके दैनंदिन
विश्व के भूगोल से बाहर लगती थी. ये किसी
अजाने क़स्बे की सड़क लगती थी, यद्यपि ये थी उसी शहर में जिसमें
वो रहता था. वो शहर की आतंरिक संरचना का
भाग नहीं लगती थी. वो शहर के
अंगों-उपांगों में से कोई एक नहीं लगती थी. ऐसा सिर्फ उस सड़क के मिज़ाज के कारण नहीं था. न जाने क्यों उसका रंग भी शहर की बाकी सड़कों
जैसा नहीं था. वो काली न होकर हरी- मटमैली सी दिखती थी. और करीब आने पर वो किसी और तरह के हलके रंग में
दिख जाती थी. वो कोई पुरातात्विक रचना नहीं थी यद्यपि वो कई प्राचीन इमारात के
करीब से सकुचाती सी चलती थी. सड़क की ऊपरी ओपदार परत इतनी आश्वस्त करती थी कि जैसे
आसपास के पुरातात्विक मलबे को वो अकेली थिर रखे हुए थी. यूँ वो दिखने में ठोस थी
पर उस पर चलते वक्त लगता था जैसे वो रेत पर चल रहा हो. क़दम रखते ही जूते के ठीक
नीचे का हिस्सा किसी मखमली चूर्ण में बदल जाता था और आगे बढ़ते ही सारे अणु जैसे
सटकर फिर से ठोस रूपाकार में आ जाते थे.
उसका उस सड़क पर जाना कम होता ही था. पर उस पर चलना हमेशा जैसे उस के साथ चलना होता
था. शहर की बाकी सड़कें खुद मुर्दा लगतीं
सिर्फ़ उनके गिर्द का परिदृश्य ही ज़िन्दा कहा जा सकने वाला था. इस एक सड़क के साथ
ऐसा नहीं था. वो कभी भी एक निर्जीव काली
चपटी पट्टी नहीं लगी. वो बल्कि करतब करने वाली कोई शै लगती थी. वो नगर की प्राचीन प्रोलों के भीतर से गुज़र कर
कई घरों और आटा चक्कियों से सट कर चलती थी. वो ब्लाउज मैचिंग की दुकानों को करीब
से झांकती चलती थी. उसके ठीक ऊपर लटके बिजली के सामानांतर तार अपने ऊपर के आसमान
को इस तरह प्रस्तुत करते थे जैसे वो कोई सलेटी आइना हो और उसमें सड़क का प्रतिबिम्ब
देखा जाता तो वो तारों पर झूलती नज़र आती.
सड़क सबसे चुलबुली पतंग और मांझे की दुकान के
पास होती थी. सड़क को समकोण पर जिस जगह एक
गली काटती थी ये दुकान ठीक वहीं थी. यहाँ सड़क बच्चों के शोर और साइकल की घंटियों
से गूंजती रहती. ऐसा नहीं है कि सड़क इसी जगह शोर करती थी बल्कि वो हर कहीं एक
बोलती सड़क थी. सड़क पर वैसे भी ट्रैफिक ठसाठस और निस्बतन सुस्त ही रहता था. यहाँ
खड़ी,
रेंगती और चलती गाड़ियों का अपना शोर था. इस पर ट्रैफिक चलने और
रेंगने की गति में ही सीमित रहता था पर जहां जहां इसके साथ गलियां मिलने आतीं थीं,
वहां तो वो रुंधा हुआ ही
मिलता. फिर किसी की पहल पर वो रफ़्तार पकड़ने लगता. अगर कोई पहल न करे तो किसी को
कोई जल्दी नहीं थी. शहर की मुख्य कही जाने वाली सड़कों पर जो जल्दबाज़ी मची रहती थी
वो यहाँ नहीं दिखती थी.
सड़क पर सब कुछ बहुत करीब से और चुपचाप घटता था.
लोग आपस में रगड़ खाकर गुजरते तो भी नज़रंदाज़ कर चले जाते थे. इस पर चलते समय वो
आदमी बार बार चिकोटी काट कर अपने को 'रियल'
साबित करता था.
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