Thursday, January 21, 2016

हत्याएँ और आत्महत्याएँ एक जैसी रख दी गयी हैं इस आधे अँधेरे समय में

अज से ठीक तीन साल पहले यानी इक्कीस जनवरी २०१३ को मैंने आलोक धन्वा की यह कविता पोस्ट की थी. रोहित वेमुला की आत्महत्या के पसमंजर में यह कविता कितनी प्रासंगिक लगती है आज फिर से एक बार.


फ़र्क़
 
-आलोक धन्वा 

देखना
एक दिन मैं भी उसी तरह शाम में
कुछ देर के लिए घूमने निकलूंगा
और वापस नहीं आ पाऊँगा !
 
समझा जायेगा कि
मैंने ख़ुद को ख़त्म किया !
 
नहींयह असंभव होगा
बिल्कुल झूठ होगा !
तुम भी मत यक़ीन कर लेना
तुम तो मुझे थोड़ा जानते हो !
तुम
जो अनगिनत बार
मेरी कमीज़ के ऊपर ऐन दिल के पास
लाल झंडे का बैज लगा चुके हो
तुम भी मत यक़ीन कर लेना.
 
अपने कमज़ोर से कमज़ोर क्षण में भी
तुम यह मत सोचना
कि मेरे दिमाग़ की मौत हुई होगी !
नहींकभी नहीं !
हत्याएँ और आत्महत्याएँ एक जैसी रख दी गयी हैं
इस आधे अँधेरे समय में।
फ़र्क़ कर लेना साथी !

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