अगर आपने रोहित वेमुला की आत्महत्या की ख़बर को भी उतनी ही तवज्जो दी जितनी आप किसी मंत्री की भैंस के भागने या किसी राजनेता की नाक पर मक्खी बैठने की ख़बर को देते हैं जो मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी. हो सकता है आपको यह भी न पता हो कि रोहित वेमुला था कौन.
हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पीएचडी की दूसरे साल साल की पढ़ाई करता था कुल छब्बीस साल का यह नौजवान जिसने घनघोर निराशा और डिप्रेशन के चलते बीते रविवार की शाम को अपनी जान दे दी. पिछले साल अगस्त में फिल्म 'मुज़फ्फ़रनगर बाक़ी है' के प्रदर्शन पर एबीवीपी के आक्रमण की निंदा करते हुए कुछ छात्र संगठनों ने, जिनमें कुछ दलितबहुल संगठन भी शामिल थे, इस घटना का सैद्धांतिक प्रतिकार किया था.
इसी महीने हैदराबाद यूनिवर्सिटी ने पांच दलित छात्रों को छात्रावास खाली करने का आदेश दिया था. उनसे कहा गया कि वे अपने रहने का इंतजाम कर लें. इस आदेश में उन्हें निकाले जाने के जो कारण गिनाये गए थे उनमें एक यह था कि इन छात्रों ने याकूब मेमन की फांसी का विरोध किया था. इन छात्रों में रोहित भी था.
बहरहाल पिछले पंद्रह दिन से इस एकतरफ़ा कार्रवाई का विरोध कर रहे इन पांच बच्चों को बीते कई दिनों से तम्बुओं में रातें बिताने को विवश होना पड़ रहा था - उन्हें तमाम तरह से अपमानित और प्रताड़ित किये जाने का सिलसिला तो काफ़ी पहले से शुरू हो चुका था. उन्हें "जातिवादी, अतिवादी और राष्ट्रविरोधी" जैसे विशेषणों से संबोधित किया गया. यह एक सोशल बॉयकॉट था जिससे भीतर तक आहत रोहित वेमुला को ऐसा कदम उठाने पर विवश कर दिया. कबाड़ी दिलीप मंडल ने अपनी फेसबुक वॉल पर प्रतिक्रिया देते हुए रोहित को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा - "हम शायद पर्याप्त नाराज नहीं हैं. हमें आदत सी पड़ गई है. हम उत्पीड़न के लिए नॉर्मलाइज़ हो चुके हैं. चलता है.... क्यों? रोहित को आदत नहीं पड़ी थी. वह हम लोगों की तरह नॉर्मल नहीं था."
रोहित ने अपनी मौत से पहले जो चिठ्ठी छोड़ी है वह केवल अपने माता-पिता, दोस्तों, पुलिस, वाइस-चांसलर या मीडिया के लिए नहीं है. वह हर उस भारतीय को लिखी गयी है जिसके भीतर थोड़ा बहुत इंसान अब भी बचा हुआ है और जो धरती, चाँद-तारे, विज्ञान और प्रेम जैसी ठोस वास्तविकताओं पर भरोसा करता है. तकरीबन कविता जैसी रूमानी भाषा में लिखी गयी इस चिठ्ठी को आपने बार-बार पढ़ना चाहिए ताकि आने वाले काले दिनों की आहट आपके मन में लगातार गूंजती रहे. इस चिठ्ठी को आपने औरों को भी पढ़वाना चाहिए ताकि आप यकीन कर सकें कि अभी आप उत्पीड़न के लिए नॉर्मलाइज़ नहीं हुए हैं.
अलविदा रोहित!
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रोहित के अंतिम पत्र का यह मोटा-मोटा अनुवाद बीबीसीडॉटकॉम से साभार लिया गया है-
हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पीएचडी की दूसरे साल साल की पढ़ाई करता था कुल छब्बीस साल का यह नौजवान जिसने घनघोर निराशा और डिप्रेशन के चलते बीते रविवार की शाम को अपनी जान दे दी. पिछले साल अगस्त में फिल्म 'मुज़फ्फ़रनगर बाक़ी है' के प्रदर्शन पर एबीवीपी के आक्रमण की निंदा करते हुए कुछ छात्र संगठनों ने, जिनमें कुछ दलितबहुल संगठन भी शामिल थे, इस घटना का सैद्धांतिक प्रतिकार किया था.
इसी महीने हैदराबाद यूनिवर्सिटी ने पांच दलित छात्रों को छात्रावास खाली करने का आदेश दिया था. उनसे कहा गया कि वे अपने रहने का इंतजाम कर लें. इस आदेश में उन्हें निकाले जाने के जो कारण गिनाये गए थे उनमें एक यह था कि इन छात्रों ने याकूब मेमन की फांसी का विरोध किया था. इन छात्रों में रोहित भी था.
बहरहाल पिछले पंद्रह दिन से इस एकतरफ़ा कार्रवाई का विरोध कर रहे इन पांच बच्चों को बीते कई दिनों से तम्बुओं में रातें बिताने को विवश होना पड़ रहा था - उन्हें तमाम तरह से अपमानित और प्रताड़ित किये जाने का सिलसिला तो काफ़ी पहले से शुरू हो चुका था. उन्हें "जातिवादी, अतिवादी और राष्ट्रविरोधी" जैसे विशेषणों से संबोधित किया गया. यह एक सोशल बॉयकॉट था जिससे भीतर तक आहत रोहित वेमुला को ऐसा कदम उठाने पर विवश कर दिया. कबाड़ी दिलीप मंडल ने अपनी फेसबुक वॉल पर प्रतिक्रिया देते हुए रोहित को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा - "हम शायद पर्याप्त नाराज नहीं हैं. हमें आदत सी पड़ गई है. हम उत्पीड़न के लिए नॉर्मलाइज़ हो चुके हैं. चलता है.... क्यों? रोहित को आदत नहीं पड़ी थी. वह हम लोगों की तरह नॉर्मल नहीं था."
रोहित ने अपनी मौत से पहले जो चिठ्ठी छोड़ी है वह केवल अपने माता-पिता, दोस्तों, पुलिस, वाइस-चांसलर या मीडिया के लिए नहीं है. वह हर उस भारतीय को लिखी गयी है जिसके भीतर थोड़ा बहुत इंसान अब भी बचा हुआ है और जो धरती, चाँद-तारे, विज्ञान और प्रेम जैसी ठोस वास्तविकताओं पर भरोसा करता है. तकरीबन कविता जैसी रूमानी भाषा में लिखी गयी इस चिठ्ठी को आपने बार-बार पढ़ना चाहिए ताकि आने वाले काले दिनों की आहट आपके मन में लगातार गूंजती रहे. इस चिठ्ठी को आपने औरों को भी पढ़वाना चाहिए ताकि आप यकीन कर सकें कि अभी आप उत्पीड़न के लिए नॉर्मलाइज़ नहीं हुए हैं.
अलविदा रोहित!
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रोहित वेमुला |
रोहित के अंतिम पत्र का यह मोटा-मोटा अनुवाद बीबीसीडॉटकॉम से साभार लिया गया है-
गुड मॉर्निंग,
आप जब ये पत्र पढ़ रहे होंगे तब मैं नहीं
होऊंगा. मुझ पर नाराज़ मत होना. मैं जानता हूं कि आप में से कई लोगों को मेरी
परवाह थी,
आप लोग मुझसे प्यार करते थे और आपने मेरा बहुत ख़्याल भी रखा. मुझे
किसी से कोई शिकायत नहीं है. मुझे हमेशा से ख़ुद से ही समस्या रही है. मैं अपनी
आत्मा और अपनी देह के बीच की खाई को बढ़ता हुआ महसूस करता रहा हूं. मैं एक दानव बन
गया हूं. मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था. विज्ञान पर लिखने वाला, कार्ल सगान की तरह. लेकिन अंत में मैं सिर्फ़ ये पत्र लिख पा रहा हूं.
मुझे विज्ञान से प्यार था, सितारों से, प्रकृति से, लेकिन
मैंने लोगों से प्यार किया और ये नहीं जान पाया कि वो कब के प्रकृति को तलाक़ दे
चुके हैं. हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हो गई हैं. हमारा प्रेम बनावटी है. हमारी
मान्यताएं झूठी हैं. हमारी मौलिकता वैध है बस कृत्रिम कला के ज़रिए. यह बेहद कठिन
हो गया है कि हम प्रेम करें और दुखी न हों.
एक आदमी की क़ीमत उसकी तात्कालिक पहचान और
नज़दीकी संभावना तक सीमित कर दी गई है. एक वोट तक. आदमी एक आंकड़ा बन कर रह गया
है. एक वस्तु मात्र. कभी भी एक आदमी को उसके दिमाग़ से नहीं आंका गया. एक ऐसी चीज़
जो स्टारडस्ट से बनी थी. हर क्षेत्र में, अध्ययन में,
गलियों में, राजनीति में, मरने में और जीने में.
मैं पहली बार इस तरह का पत्र लिख रहा हूं.
पहली बार मैं आख़िरी पत्र लिख रहा हूं. मुझे माफ़ करना अगर इसका कोई मतलब न निकले
तो.
हो सकता है कि मैं ग़लत हूं अब तक दुनिया को
समझने में. प्रेम, दर्द, जीवन
और मृत्यु को समझने में. ऐसी कोई हड़बड़ी भी नहीं थी. लेकिन मैं हमेशा जल्दी में
था. बेचैन था एक जीवन शुरू करने के लिए. इस पूरे समय में मेरे जैसे लोगों के लिए
जीवन अभिशाप ही रहा. मेरा जन्म एक भयंकर दुर्घटना थी. मैं अपने बचपन के अकेलेपन से
कभी उबर नहीं पाया. बचपन में मुझे किसी का प्यार नहीं मिला.
इस क्षण मैं आहत नहीं हूं. मैं दुखी नहीं हूं.
मैं बस ख़ाली हूं. मुझे अपनी भी चिंता नहीं है. ये दयनीय है और यही कारण है कि मैं
ऐसा कर रहा हूं.
लोग मुझे कायर क़रार देंगे. स्वार्थी भी, मूर्ख भी. जब मैं चला जाऊंगा. मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लोग मुझे क्या
कहेंगे. मैं मरने के बाद की कहानियों भूत प्रेत में यक़ीन नहीं करता. अगर किसी
चीज़ पर मेरा यक़ीन है तो वो ये कि मैं सितारों तक यात्रा कर पाऊंगा और जान पाऊंगा
कि दूसरी दुनिया कैसी है.
आप जो मेरा पत्र पढ़ रहे हैं, अगर कुछ कर सकते हैं तो मुझे अपनी सात महीने की फ़ेलोशिप मिलनी बाक़ी है.
एक लाख 75 हज़ार रुपए. कृपया ये सुनिश्चित कर दें कि ये पैसा
मेरे परिवार को मिल जाए. मुझे रामजी को चालीस हज़ार रुपए देने थे. उन्होंने कभी
पैसे वापस नहीं मांगे. लेकिन प्लीज़ फ़ेलोशिप के पैसे से रामजी को पैसे दे दें.
मैं चाहूंगा कि मेरी शवयात्रा शांति से और
चुपचाप हो. लोग ऐसा व्यवहार करें कि मैं आया था और चला गया. मेरे लिए आंसू न बहाए
जाएं. आप जान जाएं कि मैं मर कर ख़ुश हूं जीने से अधिक.
'छाया से सितारों तक'
उमा अन्ना, ये काम आपके
कमरे में करने के लिए माफ़ी चाहता हूं.
अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन परिवार, आप सब को निराश करने के लिए माफ़ी. आप सबने मुझे बहुत प्यार किया. सबको
भविष्य के लिए शुभकामना.
आख़िरी बार
जय भीम
मैं औपचारिकताएं लिखना भूल गया. ख़ुद को मारने
के मेरे इस कृत्य के लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं है.
किसी ने मुझे ऐसा करने के लिए भड़काया नहीं, न तो अपने कृत्य से और न ही अपने शब्दों से.
ये मेरा फ़ैसला है और मैं इसके लिए ज़िम्मेदार
हूं.
मेरे जाने के बाद मेरे दोस्तों और दुश्मनों को
परेशान न किया जाए.
2 comments:
बहुत अच्छी पोस्ट ,
आप ये भी देखें - https://www.youtube.com/watch?v=NJicdSM2xP4
किसी की मृत्यु के बाद ऐसी प्रतिक्रिया के लिये क्षमा चाहूँगा किंतु जिस तरह से वकालत की जा रही है वह प्रतिक्रिया के लिये विवश करती है । तो आपके अनुसार याक़ूब मेमन की फ़ांसी का विरोध एक राष्ट्रवादी कदम था ?
घटनाक्रम विकृत होता चला गया और रोहित को ऐसा आत्मघाती कदम उठाना पड़ा । हम अधिक तर्क नहीं करेंगे सिवाय इसके कि क्या हम अभी तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सदुपयोग करना सीख सके हैं ? वास्तव में हम निरंकुश स्वेच्छाचारिता को ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मान बैठे हैं । हमें ऐसे विद्रोही कार्य करने से पहले गम्भीर चिंतन करना चाहिये कि वह समाज और देश के हित में कितना उपादेय सिद्ध हो सकेगा ।
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