निदा फ़ाज़ली का देहांत हो गया. कबाड़ख़ाने की श्रद्धांजलि.
उन्हें याद करते हुए उनकी रचनाओं की एक किताब में कन्हैयालाल नंदन की लिखी भूमिका -
ज़मी जो कहीं धूप, कहीं साया है
-कन्हैयालाल
नंदन
फ़ज़ल अल्लाह का, फ़ाज़ली को मैं थोडा बहुत जानता हूँ तो यह दावा भी कर सकता हूँ, उनकी रचनात्मक को थोड़ा क़रीब से जानता हूँ और कह सकता हूँ कि वो मेरी पीढ़ी के अदीबों में उर्दू की ही नहीं, एशिया की अदबी ज़बानों की समकालीन आवाज़ हैं. उनसे मेरी अनगिनत मुलाकातें हुई हैं, उन्हें पढ़ा भी है और सुना भी. उनके साथ कवि सम्मेलनों-मशायरों में सिरकत भी कि है और कभी-कभी थोड़ी गुफ़्तगू भी हुई, लेकिन निदा फ़ाज़ली को मैं ठीक-ठीक और पूरी तरह समझता हूँ, यह दावा करना ज़रा मुश्किल है. यह आलेख उन्हें सही ढंक से समझने की एक सच्ची कोशिश ज़रूर है. मैंने प्रायः यह भी है. इसलिए हम शायर के सलाम को ही उनकी पहचान मान कर पेश किया हैः
फ़ज़ल अल्लाह का, फ़ाज़ली को मैं थोडा बहुत जानता हूँ तो यह दावा भी कर सकता हूँ, उनकी रचनात्मक को थोड़ा क़रीब से जानता हूँ और कह सकता हूँ कि वो मेरी पीढ़ी के अदीबों में उर्दू की ही नहीं, एशिया की अदबी ज़बानों की समकालीन आवाज़ हैं. उनसे मेरी अनगिनत मुलाकातें हुई हैं, उन्हें पढ़ा भी है और सुना भी. उनके साथ कवि सम्मेलनों-मशायरों में सिरकत भी कि है और कभी-कभी थोड़ी गुफ़्तगू भी हुई, लेकिन निदा फ़ाज़ली को मैं ठीक-ठीक और पूरी तरह समझता हूँ, यह दावा करना ज़रा मुश्किल है. यह आलेख उन्हें सही ढंक से समझने की एक सच्ची कोशिश ज़रूर है. मैंने प्रायः यह भी है. इसलिए हम शायर के सलाम को ही उनकी पहचान मान कर पेश किया हैः
आँख हो तो आईनाख़ाना है दहर
मुँह नज़र आते है दीवारों के बीच
मुँह नज़र आते है दीवारों के बीच
अगर निदा की
आँखों से ही दुनिया को देखा जाए तो वह एक शीशों का घर है जिसकी दीवारों में भी
सूरतें नज़र आती हैं.
अगर यह जानने की ख़्वाहिश हो कि निदा खुद को किस नज़र से देखते हैं तो ‘दीवारों के बीच’ पढ़ने की ज़हमत उठानी पड़ेगी जिसका मुख्य पात्र स्वयं निदा हैं. उसमें उन्होंने बड़ी बेबाकी और कहीं-कहीं तो बड़ी बेदर्दी से अपना, अपने परिवार, अपनी दीन-ओ-दुनिया का नक़्शा खींचा है. अगर उनके नाम की व्याख्या करूँ तो निदा का अर्थ ‘आवाज़’. और निदा बेशक आज उर्दू की एक लोकप्रिय, मनरंजक और मोतबिर आवाज़ हैं. उनके कविता संग्रहों ‘तूफानों का पुल’ और ‘मोर नाच’ में उनकी नज़्में ग़ज़ले और उनके गीत तथा दोहें हैं जो लोक-संवेदना, लोक,-भावना और लोकनाद की फड़कन, ललकार और चीत्कार लिये नज़र आएँगी. यह आवाज़ एक निदा और ‘फड़कती’ हुई आवाज़ है.
उनकी जिद्दतपंसदी यानी नवीनता के प्रेम ने भूली-बिसरी यादों को एक नावेल का रूप दिया है. यह आत्मकथामक उपन्यास एक लम्बें सामाजिक और सांस्कृतिक दौर ही दृश्य कथा का आरम्भ है जिसमें स्वयं निदा फाज़ली प्रमुख भूमिका निभानेवाले पात्र हैं. सबसे पहले निदा ने इस अनूठे आत्मकथात्मक उपन्यास के माध्यम से निदा और उनकी लेखन की शैली को पहचानने की कोशिश की हैः
निदा फ़ाज़ली ने ‘दीवारों के बीच’ को उन यादों के नाम समर्पित कियाः
जो वर्तमान
होती हैं तो सताती हैं
जब अतीत बन जाती है तो भुलाती हैं
मुमुकिन है वर्तमान से अतीत बनने के सफ़र में,
इन यादों में
कहीं कहीं वक्त की दूरियाँ शामिल हो गयी
हों
और ये अब वैसी नहीं रही हों
जैसी पहले थीं
इन यादों का सिलसिला काफ़ी तबील है
मैं ही एक मोड़ तक आकर
रुक-सा गया हूँ.
जब अतीत बन जाती है तो भुलाती हैं
मुमुकिन है वर्तमान से अतीत बनने के सफ़र में,
इन यादों में
कहीं कहीं वक्त की दूरियाँ शामिल हो गयी
हों
और ये अब वैसी नहीं रही हों
जैसी पहले थीं
इन यादों का सिलसिला काफ़ी तबील है
मैं ही एक मोड़ तक आकर
रुक-सा गया हूँ.
मगर सच है
निदा का रचनाकार वहाँ रुका ही नहीं जहाँ उसने एक नज़्म में ज़िन्दगी की कहानी को
अपनी बचपन की शरारत और मासूमियत से जुगनू की तरह चमकती आँखों से देखकर यूँ पेश
कियाः
सूरज एक नटखट
बालक सा
दिन भर शोर मचाये
इधर उधर चिड़ियों को बखेरे
चिड़ियों को छितराये
क़लम, दराँती, बुरुश, हथौड़ा
जगह जगह फैलाये
शाम, थकी हारी माँ जैसी
एक दिया मिलकाये
धीमे धीमे सारी बिखरी चीज़ें
चुनती जाए........
दिन भर शोर मचाये
इधर उधर चिड़ियों को बखेरे
चिड़ियों को छितराये
क़लम, दराँती, बुरुश, हथौड़ा
जगह जगह फैलाये
शाम, थकी हारी माँ जैसी
एक दिया मिलकाये
धीमे धीमे सारी बिखरी चीज़ें
चुनती जाए........
निदा ने अपनी
जीवन-कथा में शैली के रूप में फ़िक्शन के लिबास में हक़ीक़त पेश करने की अपनी
रचनात्मक शक्ति का भरपूर इस्तेमाल किया है,
इसी के साथ अपने पास पड़ोस, घर-परिवार के
माहौल में चिरकाल से कदम जमाये रूढियों, रीतियों तथा
अन्धविश्वासों के मकड़जाल को काट कर अपने ही जीवन के माध्यम में अतीत और वर्तमान
के बीच ख़ड़े उस भारत अन्तर में झाँकने का सफल प्रायास किया जिसमें स्वयं वो
जन्में और सुख-दुख मोहब्बत-नफ़रत, दया-करूणा और मानवीय ममता
और क्रूरता की परछाइयों से गुजरतें, हँसते, रोते और सच्चाइयों की गहराइयों को छूते अपनी जीवन यात्रा पर आगे बढ़ते रहे.
‘दीवारों, के बीच एक महत्वपूर्ण
विशेषता यह भी है कि यदि आप पंक्तियों के बीच पढ़ लेने की कला जानते हैं तो यह
फ़ाज़ली के जीवन और चिन्तन का एक ऐसा दस्तावेज़ भी है जिसमें अपनी स्वाभाविक और
अत्यन्त आकर्षण व्यंग्यशक्ति के सहारे उन्होंने अपने जीवन की घटनाओं और मानवीय
रिश्तों के खट्टे-मीठे, फीके और कड़वे अनुभवों का जिक्र इस
सरलता से किया है जैसे कोई मछली कभी पानी की लहरों के ऊपर और कभी उनके नीचे तैर कर
मज़े-म़ज़े में अपनी जल-यात्रा जारी रखती है.
निदा फ़ाजली तीन शहरों का बेटा कहलानें के हकदार हैं. एक है ग़ालिब और मीर की दिल्ली, दूसरा है तानसेन और उनके मेघ मल्हार दीपक राग को साँसों में संजोय ग्वालियर और तीसरा है सितारों की महफ़िल सजाने वाले हीरों और मोतियों की फ़िल्म नगर मुम्बई. तीनों ऐतिहासिक महानगरों ने निदा फ़ाज़ली के गद्य को लहक, महक और स्वर-ताल दिया है.
निदा अपने ही जन्म को बीसवीं सदी के तीसरे दशक के माध्यम वर्गीय मुस्लिम घराने में बेटे की पैदाइश के वाकये की सूरत में पेश करते हैं. उसे पढ़कर ऐसा लगता है कि पैदा होने से कुछ पहले ही, फिर पैदा होते वक़्त और उनके फ़ौरन बाद इस बच्चे ने ख़ासी पैनी नज़र से देखना, पतले कानों सुनना और शैतानी मुस्कराहट के साथ दुनिया और उसके बसने वालों को देखना शुरू कर दिया था मानों आज के निदा में बैठा सूक्ष्म व्यंग्यकार और साहित्यकार उसी 12 अक्टूबर सन् 1938 के दिन सम्पूर्ण चेतना और संवेदना के साथ पैदा हो गया था उसने अपनी माँ की गोद मैं आँखें खोली थी. अब निदा अपनी साठोत्तरी में चल रहे हैं. मगर उन्होंने अपनी क़लम से अपनी पैदाइश, अपने परिवार और इमली के भूत के साथ अपने जज़बात-ओ-अहसास का बयान जिस तरह किया है वह मुस्कुरानेवाला बच्चा आज भी जिन्दा है.
वह पहले यादों को जवाहरात की तरह तराशता-सँवारता है और उन्हें अपनी साहित्यिक दौलत का हिस्सा बनाता है और फिर उस दौलत को बडी सख़ावत और मुहब्ब्त से दूसरों को ब़ेहिचक बाँटता है. यहाँ इमली का भूत थोड़े विस्तार से ज़िक्र की दरकार रखता है.
निदा फ़ाजली तीन शहरों का बेटा कहलानें के हकदार हैं. एक है ग़ालिब और मीर की दिल्ली, दूसरा है तानसेन और उनके मेघ मल्हार दीपक राग को साँसों में संजोय ग्वालियर और तीसरा है सितारों की महफ़िल सजाने वाले हीरों और मोतियों की फ़िल्म नगर मुम्बई. तीनों ऐतिहासिक महानगरों ने निदा फ़ाज़ली के गद्य को लहक, महक और स्वर-ताल दिया है.
निदा अपने ही जन्म को बीसवीं सदी के तीसरे दशक के माध्यम वर्गीय मुस्लिम घराने में बेटे की पैदाइश के वाकये की सूरत में पेश करते हैं. उसे पढ़कर ऐसा लगता है कि पैदा होने से कुछ पहले ही, फिर पैदा होते वक़्त और उनके फ़ौरन बाद इस बच्चे ने ख़ासी पैनी नज़र से देखना, पतले कानों सुनना और शैतानी मुस्कराहट के साथ दुनिया और उसके बसने वालों को देखना शुरू कर दिया था मानों आज के निदा में बैठा सूक्ष्म व्यंग्यकार और साहित्यकार उसी 12 अक्टूबर सन् 1938 के दिन सम्पूर्ण चेतना और संवेदना के साथ पैदा हो गया था उसने अपनी माँ की गोद मैं आँखें खोली थी. अब निदा अपनी साठोत्तरी में चल रहे हैं. मगर उन्होंने अपनी क़लम से अपनी पैदाइश, अपने परिवार और इमली के भूत के साथ अपने जज़बात-ओ-अहसास का बयान जिस तरह किया है वह मुस्कुरानेवाला बच्चा आज भी जिन्दा है.
वह पहले यादों को जवाहरात की तरह तराशता-सँवारता है और उन्हें अपनी साहित्यिक दौलत का हिस्सा बनाता है और फिर उस दौलत को बडी सख़ावत और मुहब्ब्त से दूसरों को ब़ेहिचक बाँटता है. यहाँ इमली का भूत थोड़े विस्तार से ज़िक्र की दरकार रखता है.
इमली का भूत शायद निदा के जीवन में अन्धविश्वास का अहसास लेकर बचपन में ही दाख़िल हो गया था. जब उन्होंने अपनी जीवन कथा का पहला ही अध्याय लिखा तो उनका बचपन का साथी, इमली का भूत फ़ौरन सामने आ गया. वह भूत, उनके पिता मुर्तज़ा हसन के अलावा किसी से न डरता था.
पेश है एक पन्ना निदा फ़ाज़ली के पारिवारिक चित्र में से इमली के भूत का. इसमें निदा के बेलौस गद्य की आत्मकथा की कथात्मक बानगी भी मिलेगी और निदा का अपने बचपन का परिवेश भी. सो उनकी थोड़ी सी कहानी उन्हीं की ज़बानीः
“सूरज ग़रूब हो रहा है एक बेहोश औरत के इर्द-गिर्द तीन-चार बच्चे, सहमे-डरे बैठे हैं, बड़ी बहन उठकर लालटेन कि चिमनी साफ़ करके उसे रोशन करती है. चारों तरफ़ चितकबरी रोशन फैल जाती है. सामने इमली के दरख़्त पर डरावना भूत रोज़ की तरह आज भी आकर बैठ गया है. लम्बें-लम्बे दाँत, टेड़े-मेड़े हाथ-पाँव, हवा से शाख़ें हिलती है तो उसकी गर्म साँसें बहुत करीब महसूस होती हैं. दालान के आँगन में आते भी डर लगता है.”
“ब़डी बहन भूत को दफ़ा करने के लिए अन्दर से कुरबान शरीफ़ लाकर बाहर स्टूल पर रख देती है. बच्चों और भूत के दरमियान अल्लाह कलाम की हद बन जाती है. भूत में इस फलाँगने की हिम्मत नहीं है. लेकिन जब भी नज़र उठती है वह इमली की शाखाओं से झांकता दिखाई देता है.”
“यह भूत कुरान की हद में दाख़िल तो नहीं होता लेकिन अपनी मौजूदगी का एहसास फिर भी दिलाता रहता है. इस ख़ौफ से भूख, प्यास सब ग़ायब हो जाती है.”
“भूत सिर्फ़ मुर्तज़ा हसन के कदमों से डरता है. जैसे गली में उनके क़दमों की आहट फैलती है यह आप सिमट कर हवा में तहलील हो जाता है, (घुलकर ग़ायब हो जाता है,) लेकिन मुर्तज़ा हसन के आने तक आधी रात गुज़र चुकी होती है और आधी रात नींद पलकों से आँख-मिचौली खेलती रहती है.”
“बेहोश औरत जो इन बच्चों की माँ है; होश में आती है, इर्द-गिर्द बैठे हुए इन बच्चों को देखती है और मुँह ही मुँह में कुछ पढ़कर उँगली से चारों तरफ हिसार (लक्ष्मण रेखा) खींचती है. मुर्तजा हसन आते ही अपनी शेरवानी खूँटी पर टाँग कर बिस्तर पर दराज़ हो जाते हैं.”
“सुबह के धुँधलकों से ग्वालियर का एक मोहल्ला धीमे-धीमे उभर रहा है. नई सड़क, बड़े दालान और आँगन और कई कुशादा, खुले-खुले कमरों का एक ऊँची दीवारों का पुराना घर. उस में दायें-बायें दरवाजे़ हैं. सामने इमली का घना दरख़्त है जिसमें बारह महीने खट्टे कटारे झूलते हैं. उनको पूरी दोपहर मोहल्ला भर के बच्चें पत्थर मार-मार कर गिराते हैं. इन कतारों की छीनाझपटी में हर रोज़ कई छोटी-बड़ी लड़ाइयाँ होती हैं. इन लडाइयों में कभी बड़ी औरतें भी शरीक हो जाती हैं. औरतें आपस में उलझकर कई दिन तक एक-दूसरी से नहीं बोलतीं. लेकिन बच्चें थोड़ी देर में ही पिछली बातों को भूलकर एक हो जाते हैं.”
“इस इमली के पेड़ का एक बड़ा भाई भी है.
“घर के बायें दरवाज़े के सामने लम्बें-चौड़े पेट और कई मोटे भारी हाथों वाला कोई इस मोहल्ले में नहीं है. दोपहर भर ये दोनों छोटे बच्चों के साथ खेलते हैं शाम होते ही संजीदा होकर हर एक को बिना नाम के पहचानते हैं. रात के वक़्त जैसे ही कोई अजनबी इस तरह इलाक़ें में दाख़िल होता है, ये चिल्ला-चिल्ला कर तूफ़ान सिर पर उठा लेते हैं. इनको चुप कराने के लिए दाख़िले का कार्ड दिखाना पड़ता है. और यह कार्ड होता है मोहल्ले का ही कोई आदमी...”
“मकान के पीछे एक तंग सी गली है. उस गली के कोने पर एक पुराना कुआँ है जिस पर हमेशा पानी भरने वाली लड़कियों का जमघट रहता है. यह कुआँ सारी लड़कियों का हमराज़ है. यह किसी की बात दूसरे से नहीं कहता. मगर है बहुत मज़ाकिया, दिन भर इसकी बातों पर ल़डकियाँ क़हक़हे लगाती रहती हैं.”
यह है निदा फ़ाज़ली के बचपन और लड़कपन के ग्वालियर के घर-परिवार और परिवेश का चित्र जिसका एक नमूना उनकी शायरी से जूझने सो पहले देना मैंने इसलिए मुनासिब माना कि पाठकों को पता चल जाए कि निदा फ़ाज़ली के सोचने की ज़मीन क्या है और वे अपनी शायरी में ही नहीं, अपने गद्य में भी अपने समकालीनों में कितने बेजो़ड़ लगते हैं.
निदा के वालिद, मुर्तज़ा हसन साहब, सिंधिया स्टेट रेलवे में एक बड़े अफ़सर थे, वही जिनसे इमली के पेड़ का भूत डरता था. उनकी तस्वीर खुद निदा ने कुछ इस तरह खींचीः “अच्छी ख़ासी तनख़्वाह है. इसके अलावा ऊपर की आमदनी की भी रेल-पेल है. शायर भी हैं. दाग़ के जानशीन ‘नूह’ नारवी के मुमुताज़ शागिर्द हैं. दो शेयरी मजमुए ‘तस्वीर-ए-दुआ’ और ‘तासीर-ए-दुआ’ (1938 ईं.) के मुसन्न्फ़ि, रचयिता हैं.” उनकी शायरी का नमूना भी निदा ने पेश कियाः
मेरी जान माँगी तो क्या तुमने माँगी, मेरी जान का क्या मेरी जान होगा यह खुदा भी परीशान है जिन्दगी से, इसे जो भी लेगा परीशान होगा और शान के लोग कम रह गए और एक तुम एक हम रह गए.
निदा अपने माता-पिता की तस्वीर खींचने में किसी हिचक से काम नहीं लेते. बेदर्द हाकिम की तरह फैसलाकुन अन्दाज़ में वालिद का ख़ाका यों खींचते हैं:
“अलीगढ के पास एक छोटे से डबाई नाम के क़स्बें के रहने वाले हैं (मुर्तज़ा हैं. काफ़ी रंगीन मिज़ाज हैं. मुजरे, मुशायरे और नए-नए इश्क, पुराने शौक हैं. ग्वालियर में अपने बहन-भाइयों से दूर, तन्हा रहे हैं. इन तन्हाइयों को जवानी के हाथों खूब तक़सीम किया. कई तवायफ़ों से शनासाइयाँ हैं. एक तो सुनते हैं दो लड़के भी हैं. लेकिन उनके नामों में इसका नाम शामिल नहीं है.”
“घर में अच्छी शक्ल-ओ-सूरत की बीवी है और साथ में सिंधिया दरबार की एक मुग़निया, गायिका की जुल्फ के असीर भी हैं. इस मुग़निया का नाम ज़ैनबुन्निसा है. रेडियो से भी क्लासिकी म्यूज़िक का प्रोग्राम देती है. बच्चा कोई नहीं है. मुर्तज़ा हसन के बच्चों को जहाँ देख लेती है, टूट के प्यार करती है. बलायें लेती है, पैसे देती है. लेकिन इन सबके बावजूद बच्चों को वह पसन्द नहीं है.”
निदा फ़ाज़ली ने बचपन में ही इन्सानी रिश्तों की उलझनों को तीखी नज़र से देखने का हुनर पा लिया. इस हुस्न से उन्होंने उन रिश्तों की तह तक पहुँचने की कोशिश की. मुहब्बत, इज्जृ़त, हमदर्दी और बेबाकी से दूर और नजदीक दोनों की घटनाओं, अपनों और बेगानों के मन की गहराइयों और बीती परछाइयों में झाँक-झाँक कर देखने की कला बचपन से निदा के मस्तिष्क में फलने-फूलने लगी थी. अपनी माँ का शब्द चित्र निदा ने यूँ खींचा हैः
‘बीवी का नाम जमील फ़तिमा है. दिल्ली के एक सैयद घराने से हैं. मिज़ाज मज़हबी है. शे’र-ओ-शायरी का ज़ौक़ रखती हैं. शें’र कहती हैं और खवातिन (महिलाओं) की नाशिस्तों (बैठकों) में सुनाती हैं. शे’र कहने का जब मूड होता है तो झाड़ू दे रही हों या रोटी पका रही हों, काग़ज़ पेंसिल साथ ही होते हैं. फ़िक्रे-सुखन, यानी काव्य-रचना की चिन्ता की महवियत कभी रोटी जला देती है और कबी सलान में नमक का सन्तुलन बिगाड़ देती है.”
आप देखें कि अपने माँ-बाप के रिश्ते का ज़िक्र निदा बड़ी ईमानदारी और ग़ैर जानबगदारी से करते हैं. अपने वालिद की शादी का ज़िक्र करते हुए निदा ने लिखाः
“मुर्तज़ा हसन ज़िन्दगी के पैंतीस साल गुज़ार चुके हैं. घर वालों से दूर ग्वालियर में बिना रोक-टोक जैसे चाहा जिए.
आशनाइयाँ कई हुईं लेकिन किसी ने शादी क रूप नहीं लिया. तफ़रीह की आज़ादी है लेकिन शादी के लिए ज़ात-बिरादरी की इख़लाकी पाबंदी ज़रूर है. दिल्ली के एक परिवार की छोटी लड़की के लिए पैग़ाम भेजा जाता है. ज्यादा छान-बीन के बिना रिश्ता मंजूर हो जाता है और जमील फ़ातिमा दस साल के फ़र्क के बावजूद मुर्तज़ा हसन के हवाले कर दी जाती हैं. लेकिन उनकी बरसों की आज़ादी मिज़ाजी को गृहस्थी की ज़िन्दगी में ढलने में काफ़ी वक्त लगता है.”
“जमील फ़ातिमा जिस मुआशरे (सभ्यता) से आयी हैं उसमें औरत और मर्द का रिश्ता आसमान पर तय होकर ज़मीन पर उतरता है. इस रिश्तें के फ़राइज़ यानी उत्तरदायित्तवों के साथ ज़मीन-ओ-आसमान ही मुख़तलिफ़ हैं. शौहर अपनी मर्जी़ का मुख़ातार है. औरत घर की ज़ीनत है, गृहशोभा है, होने वाले बच्चें की माँ है. उसे शौहर के मामुलात में, उनकी दिनचर्या में शिरकत की आज़ादी नहीं है. मुर्तज़ा हसन की घर से बाहर की ज़िन्दगी उनकी अपनी है. उसमें किसी किस्म की तबदीली के लिए वो तैयार नहीं हैं. सुबह आफिस के लिए निकलते हैं और फिर आधी रात तक लौटते हैं.”
“जमील फ़ातिमा
भाँय-भाँय करते घर में अकेली एक नौकरीनी के साथ वक्त गुज़ारती हैं. दूर-दूर तक कोई
रिश्तेदारी नहीं है. मोहल्ले की औरतें शौहर को बस में करने की नयी-नयी तरकीबें
समझती हैं. कहीं से अच्छी-ख़ासी रक़म देकर तावीज़ मँगाया जाता है. कोई रात को देर
तक पढ़ने वाला मुक़ामी बुजुर्ग की दरगाह पर हाज़री देकर मन्नत माँगती हैं. हर
दूसरे, तीसरे दिन मुराद का रोज़ा माँगती हैं.”
“जिस मक़सद के लिए शादी की गई थी वह भी पूरा होता है. दो साल की मुद्दत में मुर्तज़ा हसन दो बच्चों के बाप बन जाते हैं. अब इन बच्चों और माँ के दरमियान पहाड़ सी डरावनी रात है और इमली का भूत है.”
निदा की यह तर्ज़ेबयानी बताती है कि निदा अपनों के चरित्र-चित्रण में जहाँ काफ़ी बेबाकी से शब्द प्रयोग करते हैं वहीं, अपनी माँ की सूरत में रूढ़िवादी भारतीय मुस्लिम समाज के मध्यम वर्ग की शरीफ़ नारी के सामाजिक स्थान और उसकी कुंठाओं के प्रति अपार सहानुभूति भी प्रकट करते हैं. उनके व्यंग्य में भी हमदर्दी की भावना है और इमली का भूत दुख, संशय और अनिश्चित के भय का प्रतीक है. पारिवारिक गाथा और आत्मकथा साहित्य में सत्य को बिना तोड़े-मरोड़े, मगर अत्यन्त रोचक कथानक में प्रस्तुत करना निदा की आत्मकथा का विशष गुण है. जिस ढंग से वे अपने माँ बाप के रिश्तों का ज़िक्र करते हैं उसी प्रकार स्वयं अपने जन्म को एक घटना बनाकर यूँ पेश करते हैं कि बच्चा पैदा भी हो रहा है और अपनी पैदाइश से जुडी एक-एक घटना को खुली आँखों देख भी रहा है. अपनी बहन और भाई के जन्म की घटनाओं का बयान करते हुए निदा अपने जन्म का हाल सुनाते हुए ऐसे कलम चलाते है मानो एक जासूसी उपन्यास लिख रहे हों :
“हर बच्चें की पैदाइश दिल्ली में होती है. जमील फ़ातिमा, अब तीसरे बच्चें की माँ बनने वाली हैं. दो के बाद तीसरा बच्चा ऐसी हालत में मुनासिब नहीं है. लेकिन क्या किया जाये. तीन महीने पूरे हो चुके हैं....ऐसे काम छुप-छुपा कर ही किये जाते हैं. सुनी-सुनाई जड़ी-बूटियों से ही खुदा के काम में दख़ल अन्दाज़ी की जाती है. कई गर्म-गर्म दवाएँ इस्तेमाल हाती हैं. अभी यह सिलसिला जारी है कि अचानक एक दिन दिल्ली में उनके भारी पाँव तले से पैतृक घर की छत खिसक जाती है. होता यूँ है कि वह सुबह गुसलख़ाने से बाहर आती हैं. लेकिन जैसे ही पाँव बढ़ाती हैं, छत धँसने लगती है. वह टूटती छत से सीधी नीचे फ़र्श पर गिरने को होती हैं कि उनके हाथ में एक लोहे का सरिया आ जाता है. इत्तफाक़ से उनके भाई उस वक़्त नीचे ही मकान की मरम्मत करवा रहे थे. पत्थरों के गिरने की आवाज़ से वह चौककर ऊपर देखते हैं और अपनी बहन को ज़मीन-ओ-आसमान के दरमियान लटका हुआ पाते हैं. वह बाँहें फैलाकर आगे बढ़ते हैं और....बहन से सरिया छोड़ने को कहते हैं....कई लोग जमा हैं. फ़र्श पर रुई के गद्दे, तौलिये बिछा दिए जाते हैं. बच्चों के रोने-चिल्लाने और औरतों की चीख-पुकार में वो आख़िरकार भाई की बाँहों में गिर जाती हैं. गिरते ही बेहोश हो जाती हैं. केस नाजुक है. फ़ौरन हास्पिटल ले जाया जाता है जहाँ वक़्त से पहले,जमील फ़ातिमा अपनी मर्ज़ी के खिलाफ तीसरे बच्चें को जन्म देती हैं. उसका नाम बड़े लड़के मुस्ताफ़ा हसन के क़ाफिले की रियायत से मुकतदा तजवीदज़ होता है. यही मुकतदा हसन, आगे चल कर खुद को क़ाफिये की पाबन्दी से आज़ाद कर निदा फ़ाज़ली बन जाते हैं.”
“जिस मक़सद के लिए शादी की गई थी वह भी पूरा होता है. दो साल की मुद्दत में मुर्तज़ा हसन दो बच्चों के बाप बन जाते हैं. अब इन बच्चों और माँ के दरमियान पहाड़ सी डरावनी रात है और इमली का भूत है.”
निदा की यह तर्ज़ेबयानी बताती है कि निदा अपनों के चरित्र-चित्रण में जहाँ काफ़ी बेबाकी से शब्द प्रयोग करते हैं वहीं, अपनी माँ की सूरत में रूढ़िवादी भारतीय मुस्लिम समाज के मध्यम वर्ग की शरीफ़ नारी के सामाजिक स्थान और उसकी कुंठाओं के प्रति अपार सहानुभूति भी प्रकट करते हैं. उनके व्यंग्य में भी हमदर्दी की भावना है और इमली का भूत दुख, संशय और अनिश्चित के भय का प्रतीक है. पारिवारिक गाथा और आत्मकथा साहित्य में सत्य को बिना तोड़े-मरोड़े, मगर अत्यन्त रोचक कथानक में प्रस्तुत करना निदा की आत्मकथा का विशष गुण है. जिस ढंग से वे अपने माँ बाप के रिश्तों का ज़िक्र करते हैं उसी प्रकार स्वयं अपने जन्म को एक घटना बनाकर यूँ पेश करते हैं कि बच्चा पैदा भी हो रहा है और अपनी पैदाइश से जुडी एक-एक घटना को खुली आँखों देख भी रहा है. अपनी बहन और भाई के जन्म की घटनाओं का बयान करते हुए निदा अपने जन्म का हाल सुनाते हुए ऐसे कलम चलाते है मानो एक जासूसी उपन्यास लिख रहे हों :
“हर बच्चें की पैदाइश दिल्ली में होती है. जमील फ़ातिमा, अब तीसरे बच्चें की माँ बनने वाली हैं. दो के बाद तीसरा बच्चा ऐसी हालत में मुनासिब नहीं है. लेकिन क्या किया जाये. तीन महीने पूरे हो चुके हैं....ऐसे काम छुप-छुपा कर ही किये जाते हैं. सुनी-सुनाई जड़ी-बूटियों से ही खुदा के काम में दख़ल अन्दाज़ी की जाती है. कई गर्म-गर्म दवाएँ इस्तेमाल हाती हैं. अभी यह सिलसिला जारी है कि अचानक एक दिन दिल्ली में उनके भारी पाँव तले से पैतृक घर की छत खिसक जाती है. होता यूँ है कि वह सुबह गुसलख़ाने से बाहर आती हैं. लेकिन जैसे ही पाँव बढ़ाती हैं, छत धँसने लगती है. वह टूटती छत से सीधी नीचे फ़र्श पर गिरने को होती हैं कि उनके हाथ में एक लोहे का सरिया आ जाता है. इत्तफाक़ से उनके भाई उस वक़्त नीचे ही मकान की मरम्मत करवा रहे थे. पत्थरों के गिरने की आवाज़ से वह चौककर ऊपर देखते हैं और अपनी बहन को ज़मीन-ओ-आसमान के दरमियान लटका हुआ पाते हैं. वह बाँहें फैलाकर आगे बढ़ते हैं और....बहन से सरिया छोड़ने को कहते हैं....कई लोग जमा हैं. फ़र्श पर रुई के गद्दे, तौलिये बिछा दिए जाते हैं. बच्चों के रोने-चिल्लाने और औरतों की चीख-पुकार में वो आख़िरकार भाई की बाँहों में गिर जाती हैं. गिरते ही बेहोश हो जाती हैं. केस नाजुक है. फ़ौरन हास्पिटल ले जाया जाता है जहाँ वक़्त से पहले,जमील फ़ातिमा अपनी मर्ज़ी के खिलाफ तीसरे बच्चें को जन्म देती हैं. उसका नाम बड़े लड़के मुस्ताफ़ा हसन के क़ाफिले की रियायत से मुकतदा तजवीदज़ होता है. यही मुकतदा हसन, आगे चल कर खुद को क़ाफिये की पाबन्दी से आज़ाद कर निदा फ़ाज़ली बन जाते हैं.”
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