Wednesday, February 24, 2016

हम सभी तमाशों के आभारी हैं


धन्यवाद ज्ञापन

- संजय चतुर्वेदी

सबसे पहले हम मुख्य अतिथि के आभारी हैं 
जो न आते तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता 
फिर उन सभी गणमान्य उल्लू के पट्ठों के 
जो अपनी हरक़तों की वजह से इस काबिल हुए 
फिर अलग अलग साइज़ और डिज़ाइन वाले विद्वानों के 
जो मारे तनाव के शान्त बैठे हैं 
हम सभी अफसरों के आभारी हैं 
और उनके चापलूसों के भी 
सभी प्रोफ़ेसरों के
और उनके चापलूसों के भी 
हम जलेबी के आभारी हैं 
और उसके उद्गम के भी 
हम अमीबा के आभारी हैं 
वाइरस के, बैक्टीरिया के
साढ़े दस प्रतिशत ब्राह्मणों के हम बहुत आभारी हैं
पौने साठ प्रतिशत दलितों के 
दो सौ प्रतिशत से भी ज़्यादा पिछड़ों के 
धरती, जल, अग्नि और वायु के 
पत्थरों, वनस्पतियों, पशु, पक्षियों के 
उनके अपने-अपने प्रतिशत के हिसाब से 
हम मुसलमानों के भी उनके प्रतिशत के हिसाब से आभारी हैं 
सामाजिक न्याय की बात करने वाले 
सभी बलात्कारियों और व्यभिचारियों के तो 
हम तहेदिल से शुक्रगुज़ार हैं 
हम हर प्रकार के पिछड़ेपन के आभारी हैं 
हर प्रकार के ओछेपन के
जो चुस्त मूर्खता और सत्ता के संयोग से पैदा होती है 
उस टोपीदार मुस्कुराहट पर तो हम कुर्बान जाते हैं 
हम शैतान की आंख के आभारी हैं 
और उसके शातिर इशारों के भी 
दारू पीकर गलियां बकते पत्रकारों 
और सभी परजीवियों-बुद्धिजीवियों के भी हम बहुत आभारी हैं 
हम धर्मनिरपेक्षता के शुरू से ही आभारी रहे हैं 
और साम्प्रदायिकता के भी 
हम हर तरह की बयानबाज़ी के आभारी हैं 
हम हर उस मौक़े के आभारी हैं 
जब मक्कार आवाज़ें आती हैं - साथी हाथ बढ़ाना 
जिसने हमें आज़ादी दिलाई 
या फिर ग़ुलाम बना के छोड़ दिया 
उस पार्टी के तो हम पीढ़ियों से आभारी रहे हैं 
फिर अभी तो पार्टी शुरू हुई है 
या हो ही नहीं पा रही
हम सभी तमाशों के आभारी हैं 
सभी गोष्ठियों और उन में भाग लेने वाले जोकरों के भी 
सभी सूरमाओं के 
जो भोपाल से बाहर भी सब जगह मिलने लगे हैं 
हम सभी प्रकार की भर्तस्नाओं के आभारी हैं 
सभी प्रकार के खंडनों के 
जिन्होंने समय-समय पर हमारी संस्कृति के पेट में गुदगुदी मचाई है 
उन तमाम सीत्कारों फूत्कारों और हुंकारों के भी हम आभारी हैं 
जैसा की हम पहले ही कह चुके हैं 
पिछड़े बने रहने की कभी न ख़त्म होने वाली होड़ के तो हम 
जितना आभारी हों उतना कम है 
हां, इससे पहले की हम भूल जाएं 
सभी लोग ध्यान से सुनें 
हम जासूस गोपीचंद के भी बहुत ज़्यादा आभारी हैं
प्रेमचन्द और मोहनदास करमचन्द का नाम हम जानबूझ कर छोड़ रहे हैं 
हम उन सबके आभारी हैं 
जिनका हमें नहीं होना चाहिए 
और अगर आप सोचते हैं 
की इससे भी ज़्यादा अहसानमंद होना चाहिए हमें 
तो हमारे पास अब कुछ बचा नहीं है 
और अब हमें सोने दो चमगादड़ो 
सवेरे काम पर जाना है. 

(1990) 

No comments: