बाबा नज़ीर अकबराबादी का होली पर एक और कलाम -
फ़ोटो ibnlive.com से साभार |
बुतों के ज़र्द पैराहन
में इत्र चम्पा जब महका
हुआ नक़्शा अयाँ होली
की क्या-क्या रस्म और रह का
गुलाल आलूदः गुलचहरों
के वस्फ़े रुख में निकले हैं
मज़ा क्या-क्या ज़रीरे
कल्क से बुलबुल की चह-चह का
गुलाबी आँखड़ियों के
हर निगाह से जाम मिल पीकर
कोई खरखुश, कोई बेख़ुद, कोई लोटा,
कोई बहका
खिडकवाँ रंग खूबाँ पर
अज़ब शोखी दिखाता है
कभी कुछ ताज़गी वह, वह कभी अंदाज़ रह-रह का
भिगोया दिलबरों ने जब 'नज़ीर' अपने को होली में
तो क्या क्या
तालियों का ग़ुल हुआ और शोर क़ह क़ह का
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