चूहा और मैं
-हरिशंकर परसाई
चाहता तो लेख का शीर्षक ‘मैं और चूहा’ रख सकता था. पर मेरा अहंकार इस चूहे ने नीचे कर दिया है. जो मैं नहीं कर
सकता, वह यह मेरे घर का चूहा कर लेता है. जो इस देश का
सामान्य आदमी नहीं कर पाता, वह इस चूहे ने मेरे साथ
करके बता दिया. किस तरह से उसने अंतत: अपना आहार पा ही लिया.
इस घर में एक मोटा चूहा
है. जब छोटे भाई की पत्नी थी, तब घर में खाना बनता था. इस बीच पारिवारिक दुर्घटनाओं में - बहनोई की
मृत्यु आदि - के कारण हम लोग बाहर रहे. घर पूरी तरह से सूना हो गया. काफी दिनों तक
ताला था.
इस चूहे ने अपना यह
अधिकार मान लिया था कि मुझे खाने को इसी घर में मिलेगा. ऐसा अधिकार आदमी भी अभी तक
नहीं मान पाया. चूहे ने मान लिया है.
लगभग पैंतालिस दिन घर बंद
रहा. मैं जब अकेला लौटा, घर
खोला, तो देखा कि चूहे ने काफी ‘क्रॉकरी’
फर्श पर गिराकर फोड़ डाली है. कांच के टुकड़े जमीन पर थे. वह खाने की
तलाश में भड़भड़ाता होगा. क्रॉकरी और डिब्बों में खाना तलाशता होगा. उसे खाना नहीं
मिलता होगा, तो वह पड़ोस में कहीं कुछ खा लेता होगा और
जीवित रहता होगा. पर घर उसने नहीं छोड़ा. उसने इसी घर को अपना घर मान लिया था.
जब मैं घर में घुसा, बिजली जलाई, तो मैंने देखा कि वह खुशी से चहकता हुआ यहां से वहां दौड़ रहा है. वह शायद
समझ गया कि अब इस घर में खाना बनेगा, डिब्बे खुलेंगे और
उसकी खुराक उसे मिलेगी.
दिन-भर वह आनंद से सारे
घर में घूमता रहा. मैं देख रहा था. उसके उल्लास से मुझे अच्छा ही लगा.
पर घर में खाना बनना शुरू
नहीं हुआ. मैं अकेला था. बहन के यहां, जो पास में ही रहती हैं, दोपहर का भोजन कर लेता. रात को देर से खाता हूं, तो बहन डिब्बा भेज देती रही. खाकर मैं डिब्बा बंद करके रख देता. इस तरह से
दोनों समय का भोजन बहन के कारण हो जाता है. खाना घर में बनाने की जरूरत ही नहीं
पड़ती. इन सबसे चूहे राम निराश हो रहे थे. सोचते होंगे- यह कैसा घर है? आदमी आ गया. रोशनी भी है. पर खाना नहीं बनता. खाना बनता तो कुछ बिखरे दाने
या रोटी के टुकड़े उसे मिल जाते.
मुझे एक नया अनुभव हुआ.
रात को चूहा बार-बार आता और सिर की तरफ मच्छरदानी पर चढ़कर कुलबुलाता. रात में कई
बार मेरी नींद टूटती. मैं उसे भगाता. पर थोड़ी देर में वह फिर आ जाता और मेरे सिर
के पास हलचल करने लगता. उसने यह प्रतिदिन का कर्म बना लिया था.
वह भूखा था. मगर उसे सिर
और पांव की समझ कैसे आई? वह
मेरे पांवों की तरफ गड़बड़ नहीं करता था. सीधे सिर की तरफ आता और हलचल करने लगता. एक
दिन वह मच्छरदानी में घुस गया. अंतत: उसने मेरी नींद खराब कर दी.
मैं बड़ा परेशान. क्या
करूं. इसे मारूं और यह किसी अलमारी के नीचे मर गया, तो सड़ेगा और सारा घर दुर्गन्ध से भर जाएगा.
फिर भारी अलमारी हटाकर इसे निकालना पड़ेगा.
चूहा दिन-भर भड़भड़ाता और
रात में मुझे तंग करता. मुझे नींद आती, मगर चूहाराम फिर मेरे सिर के पास भड़भड़ाने लगते.
आखिर एक दिन मुझे समझ में
आया कि चूहे को खाना चाहिए. उसने इस घर को अपना घर मान लिया है. वह अपने अधिकारों
के प्रति सचेत है. वह रात को मेरे सिरहाने आकर शायद यह कहता है - क्यों बे, तू आ गया है. भरपेट खा रहा
है, मगर मैं भूखा मर रहा हूं. मैं इस घर का सदस्य हूं.
मेरा भी हक है. मैं तेरी नींद हराम कर दूंगा. तब मैंने उसकी मांग पूरी करने की
तरकीब निकाली.
रात को मैंने भोजन का
डिब्बा खोला, तो
पापड़ के कुछ टुकड़े, यहां-वहां डाल दिए. चूहा कहीं से
निकला और एक टुकड़ा लेकर अलमारी के नीचे चलता बना, वहां
बैठकर खाने लगा. भोजन पूरा करने के बाद मैंने रोटी के कुछ टुकड़े फर्श पर बिखेर
दिए. सुबह देखा कि वह सब खा गया है.
एक दिन बहन ने चावल के
पापड़ भेजे. मैंने तीन-चार टुकड़े फर्श पर डाल दिए. चूहा आया, सूंघा और लौट गया. उसे चावल
के पापड़ पसंद नहीं. मैं चूहे की पसंद से चमत्कृत रह गया. मैंने रोटी के कुछ टुकड़े
डाल दिए. वह एक के बाद एक टुकड़ा लेकर जाने लगा.
अब यह रोजमर्रा का काम हो
गया. मैं डिब्बा खोलता, तो
चूहा निकलकर देखने लगता. मैं एक-दो टुकड़े डाल देता. वह उठाकर ले जाता. पर इतने से
उसकी भूख शांत नहीं होती थी. मैं भोजन करके रोटी के टुकड़े फर्श पर डाल देता. वह
रात को उन्हें खा लेता और सो जाता.
इधर मैं भी चैन की नींद
सोता. चूहा मेरे सिर के पास गड़बड़ नहीं करता.
फिर कहीं से अपने एक भाई
को ले आया. कहा होगा- ‘चल मेरे
साथ उस घर में. मैंने उस रोटी वाले को तंग करके, डराके, खाना निकलवा लिया है. चल, दोनों खाएंगे. उसका
बाप हमें खाने को देगा. वरना हम उसकी नींद हराम कर देंगे. हमारा हक है.’
अब दोनों चूहेराम मजे में
खा रहे हैं.
मगर मैं सोचता हूं- आदमी
क्या चूहे से भी बदतर हो गया है? चूहा तो अपनी रोटी के हक के लिए मेरे सिर पर चढ़ जाता है, मेरी नींद हराम कर देता है? इस देश का आदर्श कब
चूहे की तरह आचरण करेगा.
3 comments:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस - महाराणा प्रताप, गोपाल कृष्ण गोखले और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
यह पोस्ट पढ़कर ए.जी. गार्डिनर की रचना 'ए फेलो ट्रेवेलर' याद आ गई। फर्क सिर्फ इतना है कि वहॉं मच्छर था, यहॉं चूहा है।
यह पोस्ट पढ़कर ए.जी. गार्डिनर की रचना 'ए फेलो ट्रेवेलर' याद आ गई। फर्क सिर्फ इतना है कि वहॉं मच्छर था, यहॉं चूहा है।
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