Tuesday, November 22, 2016

उमेश पंत के यात्रा वृतांत 'इनरलाइन पास' से एक अंश



... कुटी गाँव के परिसर से बाहर निकलकर एक बार फिर मुड़कर उस गाँव को देखा. कल किसी ग्रामीण ने ही बताया था कि गाँव में कई घर दो सौ साल पुराने भी हैं. उनमें से एक घर की दीवार सीमेन्ट या मिट्टी की जगह दाल से बने लेप से चिनी गई थी. घर के दरवाज़ों और खिड़कियों पर जो नक्काशी थी वो भी देखने लायक थी. गाँव के ऊपर जो पहाड़ थे उन्हें गाँव वालों ने यरपा गल और नंगपा गल नाम दिया था. यरपा और नंगपा गाँव के ही दो राठों के नाम हैं. और गल का मतलब है ग्लेशियर. छाता ओढ़े हुए बुग्याल पर पहुंचकर एक बार फिर मुड़कर उस गाँव को देखा. मेरी राय अभी भी नहीं बदली थी. इससे खूबसूरत गाँव मैने इससे पहले कभी नहीं देखा था. खैर बुग्याल पार करने के ठीक बाद एक तीखा ढ़लान था जो एक पहाड़ी नदी पर बने पुल की तरफ ले जाता है. जैसे-जैसे हम पुल की तरफ बढ़ रहे थे वैसे-वैसे इस नदी की आवाज़ तेज़ और तेज़ होती जा रही थी. पिछले चौबीस घंटे से  लगातार हुई बारिश की वजह से नदी में पानी इतना बढ़ गया था कि वो पुल को छूने को बेकरार था.

पुल पर पहुंचने के बाद जैसे ही सामने खड़े पहाड़ को देखा तो पहली बार एक सिहरन सी शरीर में दौड़ी. सामने जो पहाड़ था उस पर पत्थर रिसते हुए दिखाई दे रहे थे. वो पहाड़ दरअसल एक कीचढ़ के टीले में तब्दील हो गया सा लग रहा था. और इसी पहाड़ के किनारे उस संकरे रास्ते पर अभी हमें कई किलोमीटर चलना था. सफर के खुशनुमा होने के जो भी खयाल अब तक दिमाग में थे वो इस एक नज़ारे को देखने के बाद छूमंतर हो चुके थे. और पहली बार लगने लगा था कि ये सफर अब आगे इतना आसान नहीं रहने वाला.

जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे हमारे बगल में खड़ा वो पहाड़ और खतरनाक दिखने लगा था.

उमेश सावधानी से चलना. एक एक कदम संभाल के रखना

रोहित ने ये कहा तो मेरा डर कुछ और बढ़ गया. हालाकि मैने ये डर ज़ाहिर नहीं होने दिया. रास्ते पर बीच-बीच में कुछ देर पहले गिरे छोटे बड़े पत्थर बिखरे हुए थे. और कई जगह मिट्टी के छोटे-छोटे टीले भी ऊपर से खिसकर आये थे. पर रास्ता बंद नहीं था. हमें निसंदेह संभलकर चलना था क्योंकि एक ओर कीचड़ में बदल चुके पहाड़ थे तो दूसरी तरफ पूरे उफान में बहती कुटी नदी. अगर आप फिसले तो सीधे नदी के हवाले. बिना कोई गलती किये आगे बढ़ना था. क्योंकि इस वीरान में दरकते पहाड़ों के बीच दूर-दूर तक कोई तीसरा हमारी मदद करने के लिये नहीं था.

उमेश पन्त 
मैं कुछ तेजी से आगे बढ़ रहा था. मेरे भीतर के डर ने मेरी रफ्तार को सामान्य से कुछ ज्यादा तेज़ कर दिया था. इस बीच आस-पास से आई खबरें अब याद आ रही थी. हमारे यहां रहते-रहते फिसलने या पत्थर गिरने से अब तक चार मौतें हो चुकी थी. दो नेपाली मजदूर जो यारसा गुम्बा (एक पहाड़ी बूटी जो सेक्स पावर बढ़ाने के काम आती है और बहुत महंगी बिकती है)लेने गए थे ग्लेशियर में फिसलने से मरे थेएक डॉक्टर पहाड़ से पत्थर गिरने से जान गंवा चुका था. एक कैलास मानसरोवर यात्री ऑक्सीजन की कमी से दम घुटने की वजह से अपनी जान गंवा चुकी थी. खैर इन खबरों ने हमारा हौसला कम नहीं किया था. यहां इन पहाड़ों में हौसला ही हमारा सबसे बड़ा हथियार था. हम प्रकृति से जितना भी जूझ सकते हैं उसमें हौसला सबसे बड़ी भूमिका निभाता है.

मैं ये सब सोच ही रहा था कि पीछे से आता हुआ रोहित एकदम चीखा

उमेश रुक जाओ.

मैं पीछे देखता उससे पहले ही उसने चीखते हुए कहा 

ऊपर  देख के चलो.

मैने अपनी बांयी तरफ उस रिसते पहाड़ को देखा. मिट्टी के छोटे-छोटे ढ़ेले लुड़कते हुए नीचे आ रहे थे. मैं भागकर आगे जाने की सोच ही रहा था कि रोहित फिर चीखा पीछे भागो

मैं भागकर पीछे आया और पीछे आकर वापस मुड़ा तो देखा कि पहले कुछ छोटे-छोटे पत्थर और फिर कई बड़े पत्थर उस अनंत उंचे पहाड़ से तेज़ रफ्तार से लुड़कते हुए आये. कुछ सीधे नदी की तरफ चले गये और कुछ वहीं हमारे रास्ते पर टिक गये.

इनमें से कोई भी पत्थर अगर हमें लगता तो तय था कोई बड़ी अनहोनी हमारे साथ हो ही जाती. पर थोड़ी सी सावधानी ने प्रकृति के इस पहले हमले से हमें बचा लिया था.


क्योंकि बारिश रुक नहीं रही थी तो साफ था कि हालात आगे और खराब होंगे. कितने खराब इसकी हम कोई कल्पना नहीं कर सकते थे. प्रकृति जब विकरालता दिखाने पर आती है तो उसकी विकरालता का कोई भी आंकलन मानव कल्पना से बहुत परे की चीज़ होता है. पीछे जाना भी कोई समझदारी नहीं थी. इसलिये ये खयाल हम दोनों में से किसी के दिमाग में नहीं आया. आगे लगभग चार किलोमीटर का रास्ता खतरनाक था लेकिन वो पार कर लेने के बाद आगे का सफर उतना मुश्किल नहीं था. 

इन पहाड़ों में हुई दुर्घटनाओं से जुड़ी कई घटनाएं थी जो हमें डराने के लिये काफी थी. पर इस वक्त उन्हें याद करने से कुछ भी हासिल नहीं होना था. हमें एकदम संभलकर आगे बढ़ना था. रास्ते में कई जगह हमें मलवे के ऊपर से भी जाना था. पत्थरों को लांघते हुएकीचड़ में धंसते पैरों को संभालते हुए और इस पूरी प्रक्रिया में लगातार भीगते हुए हम आगे बढ़ रहे थे. और अगल बगल से भोजपत्र के जंगल इस वीरान में दो लोंगों को रास्तों से जूझते हुए आगे बढ़ते देख न जाने क्या सोच रहे थे. 

कमाल की बात थी कि ये इलाका इस वक्त जितना खतरनाक हो गया था उतना ही खूबसूरत भी लग रहा था. सफेद बादलों से घिरे हरे पहाड़ भी थे. उन पहाड़ों पर बर्फ की कई कतरनें भी थी. नीचे एक नदी थी जो लगातार बहती जाती थी. नदी की आवाज़ उसके भीतर टकराते पत्थरों (बोल्डर्स) की वजह से कई गुना बढ़ ज़रुर गई थी. पर वो शोर नहीं लग रही थी. उसके शोर में भी एक सुर था. अगर पहाड़ों के दरकने का खतरा नहीं होता तो बारिश में भीगती वादी में भीगता ये वक्त जि़न्दगी के सबसे खूबसूरत लमहों में शुमार होता. पर इस वक्त यहां जि़न्दगी बिखरी भी हुई थी और उसी पर लगातार खतरा भी बना हुआ था. 

(किताब के बारे में ज़्यादा जानकारी यहां -

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