Tuesday, December 13, 2016

समकालीन असमिया कविता - 1


पहल के सौवें अंक में समकालीन असमिया कविता पर एक पूरा सेक्शन था. गुवाहाटी में रहें वाले दिनकर कुमार ने इन कविताओं को अनूदित कर हिन्दी के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाया  था. उस संकलन से प्रस्तुत हैं कुछ कविताएं.

1.

परिवार
-कनकचंद्र राय

मेरे पिता के पास था बर्फ का एक घर
जिसके अंदर गणित के सिवा
वर्जित थी कविता

मेरी मां थी उस घर की छाया
जहां पलती थी
मेरी अनगिनत  इच्छाएं

मेरी बहन थी दियासलाई का एक डिब्बा
जिसे मैं दोस्त बनाने नहीं देता था
असमय उभरने वाले फागुन से
मुझे डर लगता था
कहीं इस तरह झुलस न जाए
मेरी बहन

मेरी बहन के सीने की विमूर्त चिंगारी
क्रमश: सहन करने लायक नहीं रह गई थी
और उस दिन सपने के बाजार में
मेरे दूर जाते ही
वह तेजी से जल उठी
और मेरे पिता बन गए पानी
मेरी मां उस पानी की छाया
और मैं उस छाया की
भटकी हुई चीख

2.
देवकन्या-शोककन्या
- हिमालय बोरा

आधी रात जोर-जोर से
कौन पुकारता है मुझे

कौन भला बैठा रहता है
बदन पर अंधेरा लपेटकर
कोरस के नीचे

देव कन्या
देव कन्या

कलेजे को छूटकर देखा
फटी सांस के साथ लपेट लिया

परिव्यक्त मार्ग की छाया-रोशनी ने
सीने को दबोच लिया है

दूर वहां टप-टप
गिर रहे हैं किसके आंसू

देवकन्या के
देवकन्या-शोक कन्या

और देव कन्या ने बिछा दी
एक शोक की चादर
सीने में एक दर्द लेकर
मैं हो गया देव कन्या का

देवकन्या
देवकन्या


3.
पिता, तुम क्रमश: गुम होते जा रहे हो
-अपराजिता बूढ़ा गोहाईं

ओस की बूंदें गिर रही हैं
सूखे पत्ते के सीने में

ओ पिता
तुम गुम हो रहे हो समय के सीने में
तुम्हारी बेटी तुम्हारे पीछे-पीछे डग बढ़ाती हुई

मेरे बदन पर मत लगाना उड़द-हल्दी का लेप
बीमार मां को छोड़ नहीं सकती
कुछ भी छोड़ नहीं सकती
माया की पृथ्वी
बाड़ी के कोने में भेदाईलता उगी है
तुम कांपते हाथों से पिला नहीं पाओगे मां को उसका रस
बेटी के दिल में एक मंजूषा है
पत्थर की ओ पिता
पत्थर की मंजूषा

बारिश में भीग रही है तुम्हारी बेटी
आंसू की बारिश
मैंने कामना के महल को तोड़ दिया है
नष्ट कर दिया है स्वप्न के स्तंभ को

पिछली रात भी तुम बड़बड़ा रहे थे
तुम गुम हो रहे हो समय के सीने में
तुम्हारे सीने में तुम्हारी बेटी
तुम गुम हो रहे हो समय के सीने में
तुम्हारे सीने में तुम्हारी बेटी
तुम गुम हो रहे हो समय के सीने में
तुम्हारी बेटी तुम्हारे पीछे-पीछे डग बढ़ाती हुई

4. 
शनि पूजा
-प्रांजल कुमार दास

अंधेरे से घिरी जीवन की राह की
अनजानी दूरी पर एक कुंडली का विलाप

आंखों की पुतलियों में रोशनी खोती है
चेहरे स्याह हो जाते हैं
होठों पर कौंधता है विलाप मुस्कान

आधी खींची गई रेखाएं
जटिल हिसाब
जटिल
जटिल
इस कुंडली के लिये
केले के पत्ते के लंबे निशान
जीवित कबूतर की आंखों की तरह
पत्ते पर यत्न से सजाई गई
मूंग
कुंडली की आयु रेखा
घी के दिए की रोशनी में

देखता हूं
कुंडली के आंसू की दो बूंदें
और सुनता हूं
बदहाल जीवन की भाग्यलिपि
काले कपड़े में देखता हूं
आधी खींची गई रेखाओं की
एक छोटी राह

केले की डोंगी लंबी बनाती है
इस राह को
पागलदिया नदी की तरह

छोड़ता हूं इन रेखाओं को

लंबी हो
लंबी हो
शनिवार की शाम

रेखाओं को देखता हूं
एक दूसरी कुंडली के बीच

5.
विषय - डायन
-प्रशांत राभा

एक आधी लिखी कविता ने
कल रात मेरा सपना तोड़ दिया था
एक वृद्ध दंपत्ति मेरी कविता का विषय
जिनकी आंखों की पुतलियों में
झुक गया था जीवन को पीला बनाकर
शाम का सूरज
पगथली में एक शाम बढ़ती जा रही थी अंधेरे की तरफ...
धीरे-धीरे भय-संशय के साथ
बढ़ती जाती है रात की उम्र

बूढ़ा बूढ़ी को छोड़कर
बूढ़ी बूढ़ा को छोड़कर
पार करना नहीं चाहते जीवन की वैतरणी

एक दिन पोते-पोती को
आधी कहानी सुनाते-सुनाते
दोनों ने अपनी आंखों से देखा था
जंगल की जगह गाँव में स्कूल बनते हुए
देखा था लोगों को रोशनी की मदद से रात को दिन बनाते हुए
आकाश से विमान को उड़ते हुए देखा
सचमुच लोग बदल गए

इतनी अधिक प्रज्ञा के बीच भी
डरते-डरते बूढ़ा-बूढ़ी के सीने में
अंकुरित होता रहता है एक संशय

सूखे में अगर बंजर हो जाए खेत
बीमार होकर अगर मर जाए हल  जोतने वाले बैल, नई बीमारी से
अगर गांव तड़पने लगे

पगथली से आते-जाते अगर गांव वाली
कनखियों से देखते हुए आगे बढ़ें
किस तरह दोनों सो पाएंगे किस तरह

इस अंधेरी कोठरी में

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