Tuesday, December 13, 2016

फ़िराक़ हूं मैं न जोश हूं मजाज़ हूं मैं सरफ़रोश हूं - आख़िरी

(पिछली क़िस्त से आगे)

फिल्म 'नया रास्ता'(1970) के लिए संगीतकार एन.दत्ता की धुन पर साहिर लुधियानवी का लिखा मुहम्मद रफी का गाया एक गीत है - 'मैने पी शराब, तुमने क्या पिया? आदमी का ख़ून ...'. दरअसल एक ज़माने में बेहिसाब शराब पीने के ताने सुनकर मजाज़ ने यह जवाब दिया था. इसी को साहिर ने अपने गीत में इस्तेमाल कर लिया.

इसी तरह राजेंद्र कृष्ण ने भी मजाज़ की एक बेहद मक़बूल और ख़ूबसूरत नज़्म का सहारा लेकर एक गीत फिल्म 'माडर्न गर्ल'(61) के लिए रच लिया था 'नज़र उठने से पहले ही झुका लेती तो अच्छा था / तू अपने आप को पर्दा बना लेती तो अच्छा था'(रफी). अब ज़रा एक मजाज़ का मायार देखिए. कहते हैं -

हिजाबे-फ़ित्रा-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था
ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था
तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

मजाज़ की मौत के कोई दस साल बाद ख़्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी फिल्म 'आसमान' में उनकी रचना 'मजबूरियां' को इस्तेमाल किया है. संगीतकार जे.पी.कौशिक ने, महज़ महेंद्र कपूर और विजया मजुमदार की आवाज़ों का इस्तेमाल किया है और बताया है कि शायरी में दम हो तो हज़ार साज़ों की बैसाख़ी की ज़रूरत नहीं पड़ती. सुन देखिए -

मैं आहें भर नहीं सकता कि नग़मे गा नहीं सकता
सुकूं लेकिन मिरे दिल को मुयस्सर आ नहीं सकता
न तूफ़ां रोक सकता है न आंधी रोक सकती है
मगर फ़िर भी मैं उस कस्रे-हसीं तक जा नहीं सकता
वो मुझको चाहती है और मुझ तक आ नहीं सकती
मैं उसको पूजता हूं और उसको पा नहीं सकता
ये मजबूरी सी मजबूरी, ये लाचारी सी लाचारी
कि उसके गीत भी जी खोलकर मैं गा नहीं सकता

फ़िल्मी दुनिया ने मजाज़ की चाहे जितनी नाक़द्री की हो, उसकी शायरी के ताब से वे कभी बच नहीं पाए. गुरूदत की महान फिल्म 'प्यासा' (1957) में घोष बाबू (रहमान) के घर दावत चल रही है और दावत में मुशायरा. उस मुशायरे में जिन दो शायरों के केरेक्टर इस्तेमाल किए गए हैं. उनमे से पहले हैं मजाज़ और दूसरे हैं जिगर मुरादाबादी. इन दो के बाद आते हैं विजय (गुरू दत्त) जो साहिर का लिखा गीत गाते हैं : जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला / हमने तो जब कलियां मांगीं, कांटो का हर मिला.

मजाज़ और जिगर को वहां कलाम पढ़ते हुए दिखाया गया है. मजाज़ कहते हैं-

रूदादे-ग़मे उल्फ़त उनसे, हम क्या कहते, क्योंकर कहते
इक हर्फ न निकला होंठों से और आंख में आंसू आ भी गए
उस महफ़िले कैफ-ओ-मस्ती में, उस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में
सब जाम बक़फ़ बैठे ही रहे, हम पी भी गए, छलका भी गए.

और जिगर साहब ने फ़रमाया :

काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़ि्तयार आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत से तड़पा, उनको प्यार आ ही गया.

जो लोग मौत को ज़िन्दगी का आख़िरी मरहला मानते हैं, उनकी ख़िदमत में अपने अज़ीज़ दोस्त इजलाल मजीद का एक शेर नज़र करता हूं :

कोई मरने से मर नहीं जाता
देखना वो यहीं कहीं होगा.

माज़ी के न जाने कितने सिकंदराना और न जाने कितने कलंदराना नाम लेकर आपको इस बात का कायल कर सकता हूं कि देखिए किस तरह ये तमाम हस्तियां हज़ारहां साल से आज के ज़िंदा लोगों से ज़्यादा ज़िंदा हैं. आंख से ओझल और दिल में हाज़िर किरदारों में मेरे लिए एक किरदार मजाज़ का भी है.

आसमानों पर जा बैठे इंसानों की बात करना हो तो इन्द्र धनुष के झूले, जिसे साहिर ने 'झूला धनक का' कहा हैउसकी सवारी सबसे ज़्यादा मुफ़ीद है. मजाज़ भी आसमान पर है. धरती पर था तो वह धरती के आम इंसानों की तरह जीता था सो उसे पहचानना ज़रा मुश्किल था. अब जो आसमां पर हैं तो उसकी ऊंचाई का अहसास भी हो जाता है.

धरती पर एक शहर है लखनऊ. इस लखनऊ में एक जगह है अमीनाबाद. इस अमीनाबाद में टोपियों की एक दुकान थी - नेशनल कैप हाऊस. इस जगह के बारे में रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' ने लिखा है कि शहर के काफ़ी हाऊस के अलावा यह दूसरी जगह थी जहां शहर के नौजवान मिल-बैठते और सोचते थे कि किस तरकीब से इस दुनिया का पुराना ढर्रा बदला जाए. कैसे नाइंसाफी के निज़ाम को इंसाफ़ में बदला जाए. इन नौजवानों में सबसे नुमाया आवाज़ होती थी मजाज़ की.

मजाज़ की फिक्र में मज़दूर की फिक्र थी. बेघर ख़ाना बदोशों की फिक्र थी. ग़रीबों की बहबूदी और मुल्क के अमनो-अमान की फिक्र थी.

गो आफत-ओ-ग़म के मारे हैं
हम ख़ाक नहीं हैं तारे हैं
इस जग के राज दुलारे हैं
मज़दूर हैं हम, मज़दूर हैं हम (मज़दूरों का गीत)  

बस्ती से थोड़ी दूर, चटानों के दरमियां
ठहरा हुआ है ख़ाना बदोशों का कारवां
उनकी कहीं ज़मीन, न उनका कहीं मकां
फिरते हैं यूं ही शामो-सहर ज़ेरे आसमां (ख़ाना बदोश)

और जो मुल्क के ग़द्दारों ने महात्मा गांधी को क़त्ल कर दिया तो मजाज़ ने एक सानिहा लिखकर अपने ग़म-ग़ुस्से और मातम का मज़ाहिरा भी किया.
 
हिंदू चला गया, न मुसलमां चला गया
इंसां की जुस्तजू में इक इंसां चला गया 

और क़ातिलों की ख़ुशनसीबी रही कि मजाज़ भी चला गया वरना तो इस सानिहा के आख़िर में वह कह गया था -

ख़ुश है बदी जो दाम ये नेकी पे डाल के
रख देंगे हम बदी का कलेजा निकाल के

मजाज़ ऐसे ही उभारों मे बहता, इंसाफ की, मज़दूरों की और ख़ानाबदोशों की बात करते-करते ख़ुद भी एक ख़ाना बदोश बन बैठा था. एक ऐसा ख़ाना बदोश जो घर के होते हुए भी बेघरी की ज़िंदगी जीता था. ज़िंदगी ने उसके साथ जो सुलूक किया उसके जवाब में मजाज़ ने अपनी ज़िंदगी को ही सरे आम रुस्वा कर डाला. कभी इस शहर तो कभी उस शहर. कभी इस गली तो कभी उस गली.

1945 की फरवरी में इलाहाबाद में थे. उनकी सालगिरह का मौका था. वहीं सरे आम एलान कर कह डाला :

इलाहाबाद में हर सू हैं चर्चे
कि दिल्ली का शराबी आ गया है
बसद आवारगी, बसद तबाही
बसद ख़ाना-ख़राबी आ गया है
गुलाबी लाओ, छलकाओ, लुंढाओ
कि शैदा-ए-गुलाबी आ गया है

गुलाबी के इस शैदाई ने ख़ुद को इस गुलाबी में इस क़दर डुबो दिया था कि उसके बारे में घर के लोगों ने भी थक-हारकर उम्मीद छोड़ दी थी. उनकी बहन हमीदा सालिम ने अपने 'जग्गन भैया' (मजाज़) के बारे उस वक़्त के हालात यूं बयान किए हैं. ...बेकारी और तन्हाई. अपनो की नसीहत, ग़ैरों की फ़ज़ीहत. ज़िंदगी में तल्ख़ियां बढ़ती रहीं और वो उन तल्ख़ियों को ग़र्के-मए-नाब (शराब में डुबोना) करते रहे.

कभी भी किसी की शिकायत या शिकवा करते न सुना. तल्ख़ियां सहते रहे और मिजाज़ को तल्ख़ी से महफ़ूज़ रखा. अंदर ही अंदर सहने का नतीजा यह हुआ कि तीसरा और आख़िरी नर्वस ब्रेक डाऊन का दौरा पड़ा. ऐसा शदीद, ऐसी इज़तराबी कैफ़ियत कि ख़ुदा की पनाह. दिल्ली के गली-कूचों में ख़ाक छानते फिरते थे. घरवाले हर लम्हा इस ख़बर के मुंतज़िर थे कि मजाज़ मोटर से कुचल गया. ठिठुरा हुआ सड़क पर पाया गया. अंजाम यही होना था, पर कुछ ठहरकर और महबूबा की गलियों से दूर.

दिल पे क्या-क्या न गुज़रा होगा इन घर वालों के, जो अपनी नज़रों के सामने ही अपने लाडले को यूं क़तरा-क़तरा मरते देखते रहे. बेबस, लाचार.

और आख़िर यह सारे अंदेशे एक दिन हक़ीक़त बनकर सामने आ ही गए. 3 दिसम्बर 1955 को लखनऊ में एक कांफ्रेंस थी जिसमें बाहर से कई अदीब और शायर हिस्सा लेने पहुंचे हुए थे. इनमे सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी और इस्मत चुग़तई जैसे मजाज़ के दोस्त भी शामिल थे. पहली शाम साहिर और सरदार जाफरी ने मजाज़ को अपने साथ होटल पर ही रोक लिया और उसे सड़कों पर बुरी सोहब्बत में शराब पीकर आवारा फिरने से रोक लिया. अगले दिन भी साहिर ने अपने कमरे पर मजाज़ को रोके रखा और साथ ही बेहतरीन शराब की एक बोतल भी शाम के वादे के साथ अलमारी में रख दी.
साहिर के जाने के बाद न जाने कब मजाज़ वहां से निकल चले और फिर नए दोस्तों की एक टोली से जा मिले.

मंज़र सलीम की उर्दू किताब 'मजाज़ - हयात और शायरी' में उस दर्दनाक हादसे को बड़ी तफ़सील से बयान किया गया है. ये लोग लाल बाग़ की एक देसी शराब ख़ाने में पहंचे और वहां छत पर साइबान के नीचे 3 बजे रात तक शराब का दौर चलता रहा. इनके साथी किसी-किसी तरह वहां से उठकर चले आए और मजाज़ वहीं सर्दी में खुली छत पर. उनकी इस आलम में मौजूदगी की किसी को ख़बर न हो सकी.

5 दिसम्बर को दिन में शराब ख़ाने वालों ने उन्हें छत पर बेहोश पड़े देखा. एक डाक्टर को बुलवाया गया जिसने डबल निमोनिया तजवीज़ किया और वह ख़ुद दोपहर के वक़्त मजाज़ को बलरामपुर अस्पताल में पहुंचा गया.

ख़बर ज्यों ही कांफ्रेंस में मौजूद लोगों तक पहुंची, त्यो ही सब के सब अस्पताल पहुंच गए. दिसम्बर की ज़हरीली सर्द रात ने मजाज़ के जिस्म के दाएं हिस्से में लकवा मार दिया और साथ ही दिमाग़ की रगें भी फट चुकी थीं. रात के बजकर 22 मिनट पर मजाज़ इस दुनिया से उस दुनिया के सफर पर निकल गया.

7 दिसंबर को एक शोक सभा हुई. इस मौके पर तमाम लोगों ने अपनी-अपनी बात की लेकिन सबसे पुरअसर और दिल को छूने वाली बात कही इस्मत चुग़तई ने.

मैने अक्सर मजाज़ को उसकी बाज़ आदतों पर डांटा और ग़ुस्से में कहा  - 'इससे बेहतर है मजाज़ कि तुम मर जाते', मजाज़ ने जैसे मुंह पर तमाचा मार दिया और कहा 'लो मैं मर गया. तुम इसको इतना बड़ा काम समझती थीं.' (क़ौमी आवाज़ - 8 दिसम्बर 1955)

आगे कहना तो कुछ और चाहता था लेकिन इस वक़्त दिल दुखाने वाली बातों को छोड़ मजाज़ाना फ़ितरत इख़ि्तयार कर लेते हैं. मतलब ग़म पे धूल डालो. मजाज़ के दोस्त जनाब जमाल पाशा ने एक किस्सा दर्ज किया है.

एक बार किसी दावत में जज़्बी (मुईन अहमद) दसतरख़्वान पर से उठने का नाम ही न लेते थे और बैठे-बैठे दही का रायता पिए जा रहे थे. मजाज़ ने कहा - अमां उठो भी! जज़्बी ने जवाब दिया - एक-दो घूंट ज़रा रायता पी लूं तो चलूं. मजाज़ मुस्कराए और बोले - अमां अगर यही बात अख़्तर शीरानी होता तो यूं कहता- रायता जो रुख़े सलमा पे बिखर जाता है. और अगर अल्लामा इक़बाल होते तो इस तरह कहते - हैफ़ ! शाहीं रायता पीने लगा. अगर मीर होते तो यूं कहते - अभी टुक रायता पी सो गया है. और फिराक़ कहते तो यूं कहते - टपक रहा है उन आंखों से रायता कम-कम.


इस बात से आप ख़ुद अंदाज़ लगाएं कि पल के पल में यह इंसान - मजाज़ - कहां से कहां की उड़ान ले लेता था. और जो एक दिन ज़रा और ऊंची उड़ान ली तो बस वो जा बैठा आसमानो में.

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