Tuesday, December 27, 2016

इससे ज़्यादा भटई मेरी रविश नहीं - मिर्ज़ा ग़ालिब के ख़त - 1


मुंशी हरगोपाल तफ्ता के नाम 

अगस्त 1849

महाराज,

आपका मेहरबानीनामा पहुंचा. दिल मेरा अगरचे ख़ुश न हुआ, लेकिन नाख़ुश भी न रहा. बहर हाल, मुझको, के नालायक व ज़लील तरीन खलायक हूँ, अपना दुआगो समझते रहो. क्या करूं? अपना शेवा तर्क नहीं किया जाता. वो रविश हिन्दुस्तानी फ़ारसी लिखनेवालों की मुझको नहीं आती के बिलकुल भाटों की तरह बिकना शुरू करें. मेरे क़सीदे देखो, तश्बीब के शेर बहुत पाओगे और मदह के शेर कमतर. नस्र में भी यही हाल है. मुस्तफ़ाखां के तज़किरे की तक़रीज को मुलाहिज़ा करो के उनकी मदह कितनी है. मिर्ज़ा रहीमुद्दीन बहादुर 'हया' तखल्लुस के दीवान के दीबाचे को देखो. वो जो तक़रीज दीवान-ए-हाफ़िज़ की बमूजिबे फ़रमाइश जान जाकूब बहादुर के लिखी है, उनको देखो के फ़क़त एक बैत में उनका नाम और उनकी मदह आई है और बाकी सारी नस्र में कुछ और ही और मतलब है. वल्लाह बिल्लाह अगर किसी शहजादे या अमीरजादे के दीवान का दीबाचा लिखता तो उसकी इतनी मदह न करता के जितनी तुम्हारी मदह की है. अब हमको और हमारी रविश को अगर पहचानते तो इतनी मदह को बहुत जानते. किस्सा मुख्तसर तुम्हारी खातिर की और एक फ़िक़रा तुम्हारे नाम का बदल कर उसके एवज़ एक फ़िक़रा और लिख दिया है. इससे ज़्यादा भटई मेरी रविश नहीं. ज़ाहिरा तुम खुद फ़िक्र नहीं करते और हजरात के बहकाने में आ जाते हो. वो साहब, तो बेशतर इस नज़म और नस्र को मोहमल कहेंगे, किस वास्ते के उनके कान इस आवाज़ से आशना नहीं. जो लोग के "क़तील" को अच्छा लिखने वालों में जानेंगे वो नज़्म और नस्र की ख़ूबी को क्या पहचानेंगे?


हमारे शफीक मुंशी नबीबख्श साहब को क्या आरिज़ा है के जिसको तुम लिखते हो के मौलजुब्न से भी न गया. एक नुस्खा "तिबे मुहम्मद हुसैन खानी " में लिखा है और वो बहुत बेज़रर और बहुत सूदमंद है मगर असर उसका देर  में ज़ाहिर होता है. वो नुस्खा ये है के पांच-सात सेर पानी लेवें और उसमें सेर पीछे टोला भर चोय चीनी कूट कर मिला दें और उसको जोश करें इस कदर के चेहारुम पानी जल जावे. फिर उस बाक़ी पानी को छानकर कोरी ठिलिया में भर रखें और जब बासी हो जावे उसको पियें. जो गिज़ा खाया करते हैं, खाया करें, पानी दिन रात, जब प्यास लगे, यही पियें. तबरीद की हाजत पड़े, इसी पानी में पियें. रोज़ जोश करवा कर, छनवा कर रख छोड़ें. बरस दिन में इसका फायदा मालूम होगा. मेरा सलाम कह कर ये नुस्खा अर्ज़ कर देना. आगे उनको अख्तियार है.     

(ज़लील तरीन खलायक - नीचतम आदमी, दुआगो - पूजा-पाठ करनेवाला,   शेवा तर्क नहीं किया जाता - तरीका नहीं छोड़ा जाता, रविश - तौर-तरीका, तश्बीब - सौन्दर्य की तारीफ़, मदह - तारीफ़, नस्र - गद्य, तक़रीज - आलोचना, दीबाचा - भूमिका, बमूजिबे फ़रमाइश -  इच्छा के मुताबिक़, बेशतर - पहले, मोहमल - निरर्थक, शफीक -प्रिय, आरिज़ा -बीमारी, मौलजुब्न - बीमार को देने के लिए फाड़ा गया दूध, जोश करें - उबालें, चेहारुम - एक चौथाई, ठिलिया - मिट्टी की हांडी, गिज़ा - खुराक)  

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