हिन्दी का पहला आधिकारिक थिसॉरस बनाने का महामानवीय
काम जनाब अरविन्द कुमार और उनकी पत्नी कुसुम कुमार ने ऐसे ही पूरा नहीं कर लिया
था. कल यानी सत्ताईस दिसम्बर को अपने फेसबुक पेज में अरविन्द जी ने बताई है इस
मूल्यवान ग्रन्थ के निर्माण की शुरुआती यात्रा की प्रेरक कथा. अरविन्द जी की फेसबुक वॉल से साभार ली गयी यह बेहद पठनीय और प्रेरणास्पद पोस्ट आपके लिए -
श्रीमती कुसुम कुमार और श्री अरविन्द कुमार |
हमें उत्साह से भरती उगते मायावी चालाक सूरज की सुनहरी किरणें
आज से तैंतालीस पहले सन 1973 के दिसंबर की 27
तारीख़ की जीवन बदल डालने वाली वह सुहानी सुबह हम कभी नहीं भूल सकते. हम लोग
बदस्तूर सुबह की सैर के लिए बंबई के (आजकल इसे मुंबई कहते हैँ, काफ़ी स्थानीय लोग तब भी मुंबई ही कहते थे. लेकिन उन दिनों उस महानगर का
नाम बंबई था, तो) बंबई के हैंगिंग गार्डन छः बजते बजते पहुँच
गए थे.
हैंगिंग गार्डन का एक फेरा नपे नपाए 600 मीटर का होता था. हम लोग नियम से 5
फेरे लगाते थे – यानी तीन किलोमीटर.
मुझे बंबई में दस साल हो चुके थे. माधुरी का
संपादन करते दस साल हो गए थे. अजीब सी ऊब होने लगी थी. मैं सोचता - अकसर अठारह
घंटे प्रति दिन व्यस्त रहने के बाद मेरी अपनी उपलब्धि क्या है? मात्र यही कि मैंने यह पार्टी अटैंड की, वह प्रीमियर
देखा.
क्योँ? किस लिए?
कब तक?
क्योँ? किस लिए?
कब तक?
क्योँ? किस लिए?
कब तक?
पिछली रात हम लोग किसी पार्टी से देरी से लौटे
थे. मेरी आँखों में नींद नहीं थी. मन वितृष्णा से भरा था. देर देर तक यह जागना – किस लिए? मन में वह सपना फिर कौंधा … हिंदी में थिसॉरस का सपना. उस किताब का सपना जो मैं सोचता था कभी न कभी
कोई दूसरा बनाएगा. वह दूसरा अभी तक नहीं आया था. अभी तक किसी ने वह बनाई नहीं थी.
हिंदी में उस जैसी किताब की कमी अखरने वाली थी. उस रात मुझे कुछ ज़्यादा ही अखर
रही थी. तभी विचार कौंधा:
किसी ने वह किताब नहीं बनाई, तो मतलब है – मैं ही वह किताब बनाने को पैदा हुआ
हूँ. सपना मेरा है. कोई ग़ैर क्यों पूरा करेगा मेरा सपना! सफ़र मेरा है, मुझे ही तय करना होगा!
तो उस सुबह पहले फेरे में मैं ने कुसुम से मन
की बात कही. मैं ने यह भी साफ़ कर दिया कि हो सकता है इस काम के लिए मुझे नौकरी
छोड़नी पड़े. आर्थिक तंगियों का सामना करना पड़ सकता है. अकसर वह तुरंत ‘हाँ’ नहीं करतीं. उस सुबह मेरी बात सुनते ही उन्होँ
ने ‘हाँ’ कर दी. निश्चय ही उस दिन
कुसुम की ज़बान पर सरस्वती विराजी थीं. हम दोनों इस अहसास से ओतप्रोत हो गए कि हम
कोई बड़ा काम करने जा रहे हैं. चारों ओर हमें ऐडवैंचर पर निकलने का रोमांच और
रोमांस दिखाई दिया.पर मेरी उम्र, मानसिकता और परिस्थिति
स्पेनी उपन्यास के पात्र डौन किहोटे जैसे ऐडवैंचरिज़्म की नहीं थी.
दूसरे फेरे में हम ने अपने पक्ष के प्लस पाइंटों
को गिना. दिल्ली में माडल टाउन में हमारा घर था. पिताजी, अम्माँ, छोटा भाई सुबोध सपरिवार वहाँ रहते थे. मकान
का कुछ हिस्सा किराए पर हुआ करता था. अब वह ख़ाली हो गया था. हमें एक कमरा मिल
सकता था. मकान में एक मियानी भी थी. वहाँ हम किताब का काम लगा सकते थे.
तीसरे फेरे में हम ने माइनस पाइंट गिने. हमारे
दो बच्चे थे, जो पढ़ रहे थे. जानबूझ कर हम उन के जीवन
को दाँव पर नहीं लगाना चाहते थे. न ऐसा करने का हमें अधिकार था. हम पर कुछ कर्ज़
था. सन 1971 में मैं ने ऐंबैसेडर कार ख़रीदी थी. इंश्योरेंस आदि सब मिला कर बाईस
हज़ार पड़े थे. सोलह हज़ार का ऐडवांस कंपनी से लिया था. बाक़ी छह हज़ार तत्कालीन
जनरल मैनेजर डाक्टर तरनेजा की सिफ़ारिश से बंबई में टाइम्स के वितरक से कर्ज़ लिया
था. वह सब बोझ पूरी तरह उतरने का समय था अप्रैल 1978. तब बच्चे भी पढ़ाई की ऐसी
स्टेज पर पहुँचने वाले थे कि हम शहर बदल सकेँ. सुमीत बारहवीं पास कर लेगा. मीता आठवीं.
बचत के नाम पर पास में कुछ नहीं था. कुछ कंपनियों में हम ने पैसा सूद पर लगा रखा
था. वह न के बराबर था. आत्मनिर्भर होने के लिए हमें कुछ करना होगा – यह अप्रैल 1978 तक करना होगा.
चौथा फेरा इस की उधेड़बुन में बीता. हमें
ख़र्चा तत्काल कम करना होगा. अब तक छोटे मोटे ख़र्चों की फ़िक्र हम नहीं करते थे.
अब हाथ खीँखींचना होगा. बचत बढ़ानी होगी. घर रईसों की बस्ती नेपियन सी रोड पर ज़रूर
था,
क्योंकि कंपनी से मिला था, पर हम रईस नहीं थे.
सन 45 से तब तक मेरा जीवन कभी दफ़्तर से ऐडवांस चुकाने में, कभी
किसी ज़रूरी काम के लिए, जैसे माडल टाउन में मकान बनाने के
लिए, जो उधार लिए गए थे, वही उतारने में
बीता था. अब कोई कर्ज़ा नहीं था. घर में साज़ सामान नहीं के बराबर था. सोफ़ा सैट
तक नहीं था. हम वह ख़रीदने वाले थे. अब नहीं ख़रीदेंगे. इस तरह का कोई बड़ा ख़र्च
अब हम नहीं करेंगे. बचत बढ़ाने के तरीक़े सोचे गए. प्राविडैंट फ़ंड के नाम पर
तनख़्वाह का दस प्रति शत कटता था.
फ़ैसला लिया गया कि अब से बीस प्रति शत कटवाया
जाए. आज दफ़्तर पहुँचते ही पहला काम इस की अर्ज़ी देने का करूँगा. हमारा लक्ष्य
कुल दो लाख रुपए था. यह किसी तरह पूरा नहीं हो रहा था. जोड़ तोड़ कर के बात नहीं
बनी, तो सोचा कि पूरी रक़म एक साथ हाथ में होना ज़रूरी नहीं
है. ग्रेचुइटी से मिलने वाली संभावित राशि इस में जोड़ दी जाए … तो चलो, जैसे तैसे दो लाख हो जाएँगे. किसी तरह
दिल्ली में थोड़ा बहुत काम भी कर लेँगे … शायद कहीं से कोई
अनुदान मिल जाए. फिर तो …
यूँ भी – मैं ने
अनुमान लगाया था कि हम दोनों मिल कर किताब दो साल में बना लेंगे. दो साल गुज़ारने
लायक़ क्षमता तो हम में होगी ही. बाद में तो रायल्टी मिलती रहेगी !
पाँचवाँ फेरा. इस में हम ने यह सोच विचार किया
कि किताब के लिए क्या तैयारियाँ करनी होंगी, और कैसे
अप्रैल 78 तक हम अपने आप को आवश्यक उउपकरणों से लैस कर लेंगे. संदर्भ ग्रंथ
ख़रीदने होंगे. अभी तो बँधी आय है, इसी मद में ख़र्च करेंगे.
काम कार्डों पर किया जाएगा. जैसे कार्ड चाहिए, वैसे मैं
डिज़ाइन कर के छपवा लूँगा. नौकरी छोड़ने से पहले सुबह शाम किताब पर काम कर के
देखेँगे. जब पूरा अनुभव हो जाए, हाथ सध जाए, तभी दिल्ली जाएंगे. निश्चित तारीख़ तक यह सब हो जाएगा, और सारा काम हमारी योजना के अनुसार होगा, दो साल में
किताब तैयार होगी – हम ने पूर्णतः अपने को आश्वस्त कर लिया.
उगता मायावी चालाक सूरज पेड़ों की फुनगियों को और हमारे दृष्टिकोण को सुनहरी किरणों
से रंग रहा था. राह के गड्ढों और काँटों को हमारी नज़रों से ओझल कर रहा था. कभी कभी
आदमी को ऐसे ही छलिया सूरजों की ज़रूरत होती है. ऐसे सूरज न उगें, तो नए प्रयास शायद कभी न हों. हमें सारा भविष्य सुनहरा लगने लगा. ख़ुशी
ख़ुशी हम लोग माउंट प्लैज़ेंट रोड के ढलान से उतर कर नेपियन सी रोड पर प्रेम मिलन
नाम की इमारत में सातवीं मंज़िल पर 76वें फ़्लैट पर लौट आए. मैं दफ़्तर जाते ही
प्राविडैंट फ़ंड की राशि बढ़वाने वाले आवेदन का मज़मून बनाने लगा….
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