Tuesday, December 27, 2016

आज जाने की ज़िद न करो मेहदी हसन - एक ज़रूरी रीपोस्ट


बुत हमको कहें काफ़िर...

प्रियंवद

कुछ दिन पहले हलीम मुस्लिम कॉलेज से 'दास्तान' पर शम्सुर्रहमान फ़ारूकी साहब का व्याख्यान सुन कर निकला तो मन उदास था. इससे पहले की शाम जब एक दोस्त को बताया था तो उसने सहज रूप से पूछा था, 'दूसरे पाकिस्तान जाओगे?' अब सामान्यत: मध्य या उच्च मध्य वर्ग के हिन्दू इसी तरह बोलते हैं. बोलते नहीं, तो सोचते हैं.

बहुत दिन बाद इस पुराने घने मुस्लिम इलाके में आया था. पहले बहुत आता था इसलिये कि वहां एक दूसरे से सटे तीन टॉकीज थे. 'रूपम' 'नारायण' और 'सत्यम' (नामों पर ध्यान दें). वहाँ बीसियों फिल्म देखी थीं. तभी उन मुहल्लों की सड़कों पर घूमा था. मामूली रेस्त्रां में बासी सामोसे, टमाटर की चटनी के नाम पर कद्दू की लाल रंग की चटनी, ठंडी पकौडिय़ां, काली कड़वी चाय पी थी. हलीम मुस्लिम कॉलेज के मैदान से ही हमारे मशहूर क्रिकेट क्लब की पराजय गाथा शुरू हुयी थी. ज़फ़र नाम के लड़के को मैं गेंद फेंक रहा था. नौ रन पर उसका कैच छूटा, उसने फिर सैकड़ा मारा था और आठ विकेट भी लिये थे. हमें बाद में पता चला था कि वह 'रणजी' खेलता है. उस पराजय के बाद हमारे आत्मविश्वास को बहुत धक्का लगा था. इस और कुछ दूसरे कारणों से, हमारा क्रिकेट क्लब बिखरता चला गया था. 'स्मगलिंग' के बाजार का सबसे बड़ा केन्द्र भी वही मुस्लिम इलाका था. 'इम्पोर्टेड' चीजें तब 'स्टेटस सिब्बल' होती थीं. बम्बई के अपराध जगत का मुख्य काम तब स्मगलिंग था. हाजी मस्तान, यूसुफ पटेल, सुकुर नारायण बखिया, वरदराजन मशहूर नाम थे. ब्लू फिल्म, सोनी का म्यूजिक सिस्टम, विदेशी परफ्यूम, विदेशी सिगरेट सब कुछ उस इलाके में मिलता था. शहर की अपराधी दुनिया के बड़े नाम भी वहां थे. वहां की एक सड़क तो 'खूनी सड़क' के नाम से ही जानी जाती थी. एक ही परिवार के बीच 39 कत्ल हो चुके थे. वहाँ पर तीसरे लड़के के पास हथियार होता था. चारों तरफ गरीबी, अशिक्षा, गंदगी थी. पुरपेच गलियों में नालियों के ऊपर खटोलों पर बैठे बलगम उगलते बूढ़े, बुर्कों में लिपटी औरतें, कमजोर बीमार बच्चे, खिड़कियों पर लटकते टाट के पर्दे, भट्ठियों पर चढ़ी काली पेंदी वाली देगचियाँ, उर्दू के साइन बोर्ड, सब उस इलाके की खास पहचान था. यह सब था, फिर भी कोई उसे दूसरा पाकिस्तान नहीं कहता था. वह भी तब, जब देश का बटवारा होने के बाद हम सिर्फ बीस साल ही आगे निकले थे. वह भयानक कालखंड बहुत से लोगों की यादों में अभी ताजा था और उसकी कड़वाहट बची थी, जो एक दूसरे के लिए नफरत पैदा करने को काफी थी. इसके अलावा न आज जैसी आधुनिकता थी, न शिक्षा, न तकनीक, न रोशनख्याली, न तरक्की, न जदीदियत, फिर भी कहीं न कहीं इतनी समझ थी, इतनी चेतना, इतना इतिहास बोध था, या साथ रहने की इतनी आदत थी, कि सब हमारे अपने, इस मुल्क के ही हिस्से थे, इसी हिन्दुस्तान के, किसी पाकिस्तान के नहीं.

व्याख्यान काफी देर से शुरू हुआ था. ख़ान फ़ारूक़ ने मुझे प्रिंसिपल के कमरे में बैठा दिया था. वहां और भी बहुत से लोग थे. आते जा रहे थे. वे अध्यापक थे, अदीब थे, सुनने वाले थे, फ़ारूकी साहब के मद्दाह थे. मैं एक ओर चुपचाप बैठा था. न कोई मुझे जानता था, न मैं किसी को. इन्तज़ार के उस लम्बे दौर में दिमाग में यही सब घूमने लगा था. अपनी जिन्दगी में शामिल मुसलमान, उर्दू ज़बान से इश्क, इतिहास, मुस्लिम बस्तियाँ... सब अलग अलग शक्लों में 'फेड इन' - 'फेड आउट' करते रहे. जो बात सबसे ज्यादा हैरान परेशान और उदास कर रही थी, वह दो अनदेखी सी सरहदें थीं जो अब मुहल्लों के बीच तक खिंच गयी थीं, न सुलझती सी दिखती गांठे थीं, बहुत सारी बेबसी और इससे पैदा होते बहुत सारे सवाल थे. आज मन की ये सलवटें खोलना चाहता हूँ, पर बात ज़रा नाजुक है, थोड़ी उलझी हुई भी, इसलिये न समझे जाने या गलत समझे जाने के पूरे खतरे हैं. चिराग़ की ज़रा सी रगड़ से 'जिन्न' की तरह कोई भी वहशत नमूदार हो सकती है, फिर भी....

'मुसलमान' को जानने की शुरूआत घर से हुई थी. किसी मुसलमान के आने पर माँ अलग से बर्तन निकालती थी. बाद में उन्हें आग से जला कर 'शुद्ध' भी करती थी. पिता का इन बातों से कोई ताल्लुक नहीं था. वह शायद जानते भी न हों कि ऊपर यह सब होता है. तब घर के सामने की पार्क में 'शाखा' लगती थी. उस पार्क में 'गोल इमारत' और आसपास रहने वाले हम लड़कों का साम्राज्य था. हमारा पूरा दिन उसी पार्क में बीतता था. वहीं सारे खेल होते थे. शाखा में आसपास के मुहल्लों में रहने वाले लड़के भी आते थे. जवान अधेड़ और बूढ़े भी. खाकी निकर, सफेद कमीज, टोपी, लाठी. निश्चित समय पर केसरिया डंडा लगा कर वे ध्वज प्रणाम करते उसके बाद दूसरे कार्यक्रम होते थे. शाखा में आने वालों लड़कों से भी हमारी दोस्ती थी, पर दूर वाली. वे हमें शाखा में आने के लिये कहते थे. वे मध्य और उच्च मध्यवर्ग के थे. उनकी बातों में मिठास होती थी. बातचीत का तरीका बेहद विनम्र और शालीन था. वे पढऩे में तेज थे. हमारे विषयों में हमें हर तरह की मदद करने का आश्वासन देते थे. वहां कहीं, कुछ गलत नहीं था. खेल, अच्छी बातें, व्यायाम, भद्र लड़के, अनुशासन था. कोई अभद्रता, गाली गलौज या स्तर से गिरी बात नहीं थी. फिर भी हम नहीं जाते थे.

एक दिन 'शाखा' के दौरान ही हमारा एक मित्र श्याम, जो उनका परिचित नहीं था, 'ध्वज प्रणाम' के बाद उनके खेलों में शामिल हो गया. खेल खत्म होने के बाद उनके प्रमुख ने श्याम का स्वागत किया और नाम पूछा - 'मुश्ताक', श्याम ने कहा - सन्नाटा छा गया. शाखा खत्म होने का समय था. सब चले गए. श्याम भी हंसता हुआ हमारे बीच लौट आया. उसी ने फिर पूरा किस्सा सुनाया.

हमें तब कोई समझ नहीं थी कि यह सब क्या है, क्यों होता है? हमें किसी ने कभी कुछ बताया भी नहीं थी. हमें बस इतना पता था कि ये लोग मुसलमानों को पसन्द नहीं करते. मजा आएगा, बस यही सोच कर श्याम ने यह किया था. यह हिम्मत भी वह इसलिए कर पाया था कि वास्तव में तो वह एक हिन्दू ही था, इसलिये कहीं न कहीं उनके बीच का होने का भाव उसे आश्वस्ति दे रहा था. निरापद बना रहा था. यदि मुसलमान होता तो वह यह जुर्रत कभी नहीं करता.

'शाखा' की ही एक और घटना हुई. राजेश्वर कृष्णन हमारा दक्षिण भारतीय मित्र है. पारम्परिक, निष्ठावान हिन्दू परिवार था. उसके पितामहों में एक को बनारस के राजा दो सौ साल पहले दक्षिण से पुरोहित के रूप में लाए थे. बनारस के दक्षिण भारतीयों के मुहल्ले में गंगा किनारे आज भी उसका वह पुश्तैनी घर है जो उन्होंने तब उन्हें रहने के लिये दिया था. उसकी मां निष्ठावान हिन्दू थी. 'शाखा' में तय हुआ कि शरद पूर्णिमा के अगले दिन सबको चांदनी में रखी खीर खिलाई जाएगी. राजेश्वर ने अपनी माँ को बताया कि वह शाम को खीर खाने शाखा जाएगा. आज राजेश्वर इंग्लैंड में है. बड़ा सर्जन है. पहले वर्षों लखनऊ में रहा है. वहां अपना घर है. साल में दो बार कुछ दिन लखनऊ आ कर रहता है. आज भी भीगी आँखों से बताता है कि मेरी माँ ने पूछा था 'क्यों जाओगे?'

''खीर मिलेगी''

'वहाँ गए तो टाँगें तोड़ दूँगी' मां ने कहा था. वह बताता है, मैंने मां से बहस की कि क्या बुराई है? प्रसाद की खीर है. प्रसाद तो घर में, मन्दिरों में सब जगह खाते हैं. फिर वहां खेल भी होगें. पर उसका एक ही उत्तर था 'नहीं जाना है.' राजेश्वर की पत्नी अंग्रेज़ है. बहुत साल लखनऊ में रही है. आज राजेश्वर को अपनी माँ की बात समझ में आती है. खासतौर से तब जब उसकी पत्नी लखनऊ की सड़कों पर निकलती है. बाद में बच्चों के बड़े होने पर वह इंग्लैंड चला गया. उसके बच्चे शक्ल से अंग्रेज़ लगते हैं. बहुत अच्छी हिन्दी बोलते हैं. बेटी का नाम रोहिणी है. वे भी साल में एक बार लखनऊ आते हैं. पत्नी आती रहती है. शायद वे सब न डरते हों, पर उसके साथ होने पर राजेश्वर डरता है. ट्रेन में, सड़कों पर, भीड़ में, मेलों में, जुलूस में, उसी तरह जिस तरह तमिलों द्वारा राजीव गांधी की हत्या के बाद उसे सलाह दी गयी थी कि घर के बाहर 'डॉ. कृष्णन' की नेम प्लेट हटा ले, क्योंकि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिक्खों के साथ जो हुआ, सबने देखा था. उसने भी कानपुर में देखा था. तब कानपुर में 72 सिक्खों की हत्या हुई थी और दिल्ली के बाद सिक्खों की हत्या करने के मामले में दूसरा शहर कानपुर था. वह उसी तरह डरता है जिस तरह बाबरी मस्जिद गिरने के बाद डरा था, और जो मुसलमानों के साथ हुआ था और जिसे उसने देखा था. वह उसी तरह डरता है, जिस तरह उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स को जलाने और चर्च फूंके जाने के बाद डरा था. 'नस्ल की श्रेष्ठता', 'धर्म की उच्चता', 'विशिष्ट होने का बोध', 'अन्य से घृणा', 'सांस्कृतिक गौरव', 'राष्ट्रवादी उन्माद', धर्म-शक्ति का प्रदर्शन, कर्मकांड सब उसे डराते हैं, किसी भी धर्म, देश, जाति के हों.

'शाखा' के दिन हमारे बचपन के दिन थे. हमने कभी दूसरा पाकिस्तान ऐसा शब्द नहीं सुना था. हमारे घर पारम्परिक रूप से धार्मिक थे, पर हमें किसी ने नहीं बताया था कि 'हिन्दू' क्या होता है, 'मुसलमान क्या होता है?' सब कुछ सहज रूप से हमारे सामने से गुजरता रहता था. हम तक आता था. हम उसी से सब कुछ ग्रहण करते चलते थे. सब्जी मंडी से सुबह पिता के साथ लौटता, तो 'शहर कांग्रेस कमेटी' मुख्यालय 'तिलक हाल' में दुबले पतले हमीद खाँ को शांत भाव से चुपचाप अकेले चर्खा कातते रोज देखता था. पिता से उनकी दुआ सलाम होती थी. कानपुर की इकबाल लाइब्रेरी, उर्दू की सबसे पुरानी और बड़ी लाइब्रेरी है. नय्यर साहब का परिवार इसके संस्थापकों में था. नय्यर साहब वकील थे. बचपन में उन्हें अक्सर देखता था. कचहरी से लौटते समय घर आ जाते थे. छोटा कद था, पेट कुछ ज्यादा बाहर निकला था. उस पर सफेद पैंट बमुश्किल तमाम रूकती थी. उस पर काला कोट. सबसे दिलचस्प, सर पर अंग्रेजों वाला गोल, खाकी रंग का हैट था. नय्यर साहब का मदन नाम के व्यक्ति से किसी बात पर विवाद हुआ. हालांकि वह खुद वकील थे पर दोनों ने पिता को पंच बनाया. महीनों दोनों आते थे. बहस ...तर्क ...दस्तावेज ...सबूत ....गवाह सब चलता रहा. आज लोग नहीं जानते, पर तब विवाद में पंच का निर्णय महत्वपूर्ण और वैधानिक था. कोर्ट जाने से पहले लोग किसी को पंच बनाकर झगड़ा निपटा लेते थे. पंच पर दोनों को विश्वास होता था. पंच का निर्णय कानूनी मान्यता रखता था. आज भी रखता है, पर लोगों ने पंच व्यवस्था पर विश्वास छोड़ दिया है. पिता कई विवादों में पंच बने थे.

खैर... उस दौरान नय्यर साहब को खूब देखा. दूसरा पक्ष पंडित मदन थे. वैसे वे व्यापारी थे पर 'रामायणी' भी थे. अक्सर 'रामचरित मानस' की व्याख्याएं करते थे. बहुत अच्छे स्वरों में चौपाई, दोहे पढ़ते थे. मैंने उन्हें घर पर कई बार सुना था. मानस की एक व्याख्या आज भी याद है जिसमें रावण अहंकार, राम आत्मा, रावण के भाई, अन्य दुर्गुण थे. सीता, हनुमान, भरत आदि भी मनुष्य की विभिन्न प्रवत्तियां थीं. पूरी रामचरितमानस अध्यात्म के स्तर पर विवेचित थी.

एक ओर इकबाल लाईब्रेरी के नय्यर साहब, दूसरी ओर रामायणी पंडित मदन. विवाद का फैसला पता नहीं क्या हुआ. बाद के दिनों में नय्यर साहब की बहन शहर के सबसे प्रसिद्ध और सम्मानित 'नगर महापालिका गल्र्स इंटर कॉलेज, सिविल लाइंस' की प्रधानाध्यापिका हुयीं. सब उन्हें 'आपा जान' कहते थे. पाठक कल्पना करें कि मेरी दो बहनों की शादी में पिता ने पूरा गल्र्स कॉलेज और गल्र्स हॉस्टल ले लिया था. कॉलेज में हम, यानी लड़की वाले रूके थे, हॉस्टल में बराती. वहीं दावत, शादी, भंडार, बारात, बिदा सब हुआ था. ऐसा इसलिये संभव हुआ था कि प्रिंसिपल आपा जान थी. पिता के पास हर साल लोग बच्चों के एडमिशन की सिफारिश के लिये आते थे. लड़कियों को वह आपाजान के नाम एक चिट लिख देते थे. एडमिशन हो जाता था.

वही पतंगबाजी के दिन भी थे. पतंग की दुकान 'बिसातखाने' की गलियों में थी. ये गलियां आगे जा कर घनी और संकरी होती हुई 'रोटी वाली गली' में मिल जाती थीं. रोटी वाली गली रूमाली रोटियों, कबाब और रंडियों (उस समय यही शब्द प्रचलित था. बचपन में इसे सुनते थे, इसलिये इस लेख की पूरी असहमति के बावजूद, यहां इसका प्रयोग एक अनिवार्य विवशता है - लेखक इसके लिये क्षमाप्रार्थी है.) के लिये मशहूर थी. नूरे यानी नूर आलम की पतंग की दुकान यहीं थी. वह दोपहर के बाद अपने घर के बाहर चबूतरे पर कुछ पतंगे, लटाई, सद्दी, मांझा रख कर बैठ जाता था. मैं हर तीसरे चौथे दिन वहां जाता था. नूरे की उंगलियाँ आगे से गोल और गली हुई थीं. उन्हीं उंगलियों पर मांझे का 'चव्वा' करते हुए वह बताता था कि उसके पुरखे लखनऊ के चौक में रहते थे और वाजिद अली शाह के लिये मांझा बनाते थे.

लखनऊ के चौक में मेरा ननिहाल था. लखनऊ के चौक को ऐसे नहीं समझा जा सकता, जब तक कि उसकी गलियों से न गुजरें. उस लखनऊ की ज़िंन्दगी, कला, तहज़ीब या तो चौक से शुरू होती थी या वहीं पनाह पाती थी. आज कोई इसे एक ख्वाब की तरह समझना चाहे, तो 'गुजिश्ता लखनऊ' (अब्दुल हलीम, 'शरर') 'उमरावजान' (हादी रूसवा) और 'ये कोठेवालियाँ' (अमृतलाल नागर) पढ़ सकता है.

'गोल दरवाज़े' के अंदर जाते ही चौक की मशहूर मुख्य सड़क शुरू हो जाती है. तब चांदी का वरक पीटने वालों की नन्ही हथौडिय़ों की आवाजें सुनायी देती थीं. बंधी हुई लय में उठती गिरती यह आवाज घुंघरूओं से कुछ ज्यादा और मंदिरों की घंटियों से कुछ कम होती थी. सड़क पर नीचे दुकानें, ऊपर मकानों के छज्जे थे. इन्हीं छज्जों से कई बार मैंने ताजिए निकलते देखे थे. हिन्दू ताजिए उसी तरह देखते थे जिस तरह मुसलमान दशहरे में राम की सवारी. मेरी नानी का घर ठेठ चौक के अंदरूनी हिस्से में था. उस मुख्य सड़क से फूलों वाली गली के और आगे जा कर एक रास्ता बाएं हाथ पर, बहुत पतली, ऊपर की चढ़ाई वाली गली में जाता था. उसके अंदर घुसने के कुछ कदम बाद ही मकान शुरू होते थे. ये मकान दुमंजिले थे. गली के बाएं हाथ पर शुरू के तीन मकान हिन्दुओं के थे. दाएं हाथ पर मुसलमानों के. गली इतनी पतली थी कि दोनों तरफ के मकानों की खिड़कियों से हाथ बढ़ाकर सामान लिया जा सकता था, पर ये खिड़कियां बंद ही रहती थीं, अलबत्ता कभी-कभी तब खुलती थीं जब गर्मियों की दोपहर में कोई फेरीवाला टोकरी में फालसे, करेंदे, लोकाट, कसेरू रख कर आवाज देता हुआ निकलता था.

हिन्दुओं के घर अंदर से मिले हुए थे. छोटी खिड़कियों से होकर एक से दूसरे घर में जाया जाता था. यह व्यवस्था इसलिये थी कि औरतों को एक घर से दूसरे घर जाने के लिये गली में न जाना पड़े. मुसलमानों के घरों की खिड़कियों पर पर्दे पड़े रहते थे. उनके दरवाजे गली से अंदर को फूटती शाखों के अन्धेरों में थे. इन आठ दस मकानों के बाद यह गली आगे पूरी तरह मुसलमानों की बस्ती में मिल जाती थी. यहां मस्जिद थी, मदरसा था, मकतब था, हकीम था, गोश्त की दुकान थी. खास तरह की जीवन शैली, पोशाक, मकान, लोग थे. पहले मेरी हर साल की गर्मियां वहीं बीतती थीं. तब नूरे की बातें याद आती थीं. वापस लौटते समय चौक की दुकान से पतंगें, लटाई लेकर लौटता. जब दूसरों की पतंगें काटता, तब गर्व से कहता कि यह मांझा उसी दुकान का है जो वाजिद अली शाह के लिये मांझा बनाती थी. इसी चौक में अमृतलाल नागर रहते थे.

एम.ए के दिनों में भी कभी उमरावजान 'अदा' पढ़ी थी. संस्कृत साहित्य में भी वेश्याओं की एक विराट, विविध दुनिया पढ़ चुका था. संसार की किसी प्राचीन भाषा के साहित्य में वेश्या-जीवन का या समाज में वेश्याओं की स्वीकृति का इतना विपुल, प्रामाणिक चित्रण नहीं है, जितना संस्कृत में. 'कुट्टनीमतम'  'चर्तुभाणी' पढ़ कर तब बहुत हैरान हुआ था. यह एक ऐसी भारतीय संस्कृति थी जिस पर सबने चुप्पी साध ली थी, सिवाय हमारे कुछ महान इतिहासकारों और विद्वानों के. वासुदेवशरण अग्रवाल, डॉ. मोतीचंद्र व पांडुरंग वामन काणे के नाम हिन्दी के आत्ममुग्ध लेखक के लिए अपरिचित ही होंगे.

वेश्याओं का जीवन बहुत कौतुक रचता था. रोमांचित करता था. 'आम्रपाली', 'बसंतसेना', या 'एसपाशिया' 'फ्रीनी', 'द्योतमा' के साथ 'उमराव जान' का भी जादू जुड़ गया था. लिहाजा शोध के लिये इन्हीं को विषय के रूप में चुन लिया. 'ये कोठेवालियाँ' में नागर जी ने प्रस्तावना में लिखा है, ''सन् 1950 में राष्ट्रपति देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद ने यह इच्छा प्रकट की थी कि, वेश्याओं से भेंट करके कोई व्यक्ति उनके सुख दुख का हाल लिखे.'' वे स्वयं ही इस सम्बन्ध में कुछ लिखना चाहते थे, परन्तु अवकाशाभाव के कारण ऐसा न कर सके. यह काम फिर नागर जी ने तभी हाथ में लिया था. मेरा शोध का विषय विश्वविद्यालय में समिति के सामने था. तब कुलपति नीनान अब्राहम ने उसे फेंकते हुए कहा था 'कानपुर यूनिवर्सिटी वेश्याओं पर रिसर्च करने नहीं दे सकती.' यह 74 या 75 का साल था मेरे एक गुरु समिति में थे. एक जिद और सम्मान की बात बना कर उनके पूरी तरह अडऩे के बाद मेरा विषय स्वीकृत हुआ. मैंने वेश्या की जगह शब्द 'रूपाजीवा' रखा था. इसी पर उन्होंने बहस की थी कि यह वेश्याओं से अलग बात है. बाकायदा शब्दकोश मंगाया गया था.

'ये कोठेवालियाँ' में वेश्याओं के जीवन की बहुत आन्तरिक सूचनाएँ हैं. बाई, जान, बेगम, नवाब के लकब वाली औरतों के बहुत से साक्षात्कार है. आज हम नहीं समझ सकते, पर तब इन औरतों का अपना एक बिल्कुल अलग और बहुत विशिष्ट जगत था. सामाजिक स्थितियाँ, जीवन, सुख-दुख, बोली-बानी सब अलग थे. ग़ज़ल और संगीत को तो जैसे इन्होंने ही अपने कोठों में जीवित रखा था. उस पुस्तक में लखनऊ और आसपास की वेश्याओं के बीच बराबर की टक्कर में कानपुर की वेश्याओं का भी जिक्र था. वे अधिकांश मुसलमान थीं. कानपुर का 'तलाक मोहाल' या 'बेगमगंज' अपनी बात खुद कह देता है. उस पुस्तक में बहुत सी अन्य पुस्तकों का भी जिक्र था. उन्हें पढऩा चाहता था, पर उनके प्रकाशकों के नाम नहीं थे. सोचा लखनऊ जाकर नागर जी से मिल लूँ. संभव है उनके पास कहीं कोई सूची हो या फिर कुछ ऐसी जानकारियाँ मिल जाएँ जिनसे वे किताबें उपलब्ध हो जाएँ. मैंने लखनऊ में अपने मामा से कहा कि नागर जी से मिलना है. हमारी लखनऊ मिल के मैनजरनुमा व्यक्ति गुलाबचंद घर जैसे ही थे. मामा ने उनके साथ नागर जी के घर भेज दिया. गुलाबचंद को सब 'गुलब्बो' कहते थे. नागरजी भी. 'कैसे हो गुलब्बो?' उन्होंने पूछा था.

चौक क्या, लखनऊ में ही नागर जी किंवदन्ति की तरह थे. लखनऊ उन्हें अपनी शान मानता था. बहुत कम ऐसा होता है जब कोई शहर किसी लेखक के नाम से जाना जाए. लखनऊ में ऐसा ही था. नागर जी का घर भी अपने आप में किंवदन्ति था. बड़ा-सा फाटक, फिर आँगन, उसके बाद नागर जी का बड़ा, खुला हुआ बेतरतीब कमरा, कमरे में बड़ा तख्त. कमरे में चारों ओर किताबें. तख्त पर नागर जी की दुनिया भी कितनी थी? पान, ठहाके, भांग, मस्ती और दुर्लभ बतरस. हम तख्त पर बैठ गए. मैं क्या, मेरी हस्ती क्या? अलबत्ता गुलब्बो से उनके पुराने सम्बन्ध थे मैंने किताबों के प्रकाशकों के नाम न दिए जाने की ओर संकेत किया. उन्होंने मेरा विषय सुना. अपनी गल्ती को माना. मेरे इस अनुरोध पर, कि अगले संस्करण में प्रकाशकों के नाम जोड़ दें, जिससे कि इस विषय में काम करने वालों को असुविधा न हो, उन्होंने तब ठहाका लगा कर कहा था 'बूढ़ा तोता राम राम नहीं करता.'

फिल्म देखने का चस्का लग चुका था. कयामत कि वहां भी जादू जगाने वाली हीरोइनें मुसलमान थीं. मीना कुमारी, मधुबाला, नरगिस, सुरैय्या, शकीला, श्यामा (खुर्शीद), वहीदा रहमान, निम्मी, सायरा बानो. मुगले आज़म के अलावा चौदहवीं का चाँद, मेरे महबूब, बहू बेगम, जहाँआरा, नूरजहाँ, गज़ाल, पाकीजा, मेरे हुजूर, पालकी, मेहबूब की मेंहदी, उमरावजान, रजिया सुल्तान, नसीम, गर्म हवा, सलीम लगड़े पे मत रो, मम्मो, जख्म, फ़िज़ा ऐसी बहुत सी फिल्में बनी और चलीं. इनमें मुस्लिम समाजों की दुनिया थी. उनके सवाल थे. संगीत और गायकों को तो पूरा-पूरा ही मुसलमानों ने बचा कर रखा था जो आज हम तक आया है. तब काले, तवे ऐसे रिकार्ड खूब चलते थे. उन्हीं का जमाना था. मलिका पुखराज, बेगम अख्तर, मेंहदी हसन का जादू मेरे सर पर चढ़ा हुआ था. मलिका पुखराज की गायी हफीज़ जालन्धारी की यादगार नज़्म 'अभी तो मैं जवान हूँ', हर दूसरे तीसरे दिन सुनता था. वह तवील और मुश्किल नज़्म आज भी मुझे पूरी याद है और मैं उसी तरन्नुम में सुना सकता हूँ. बेगम अख्तर के भी कई रिकार्ड थे. गर्मियों की दोपहर के सन्नाटे में वह रेशम रेशम होती आवाज धंसती चली जाती थी

दूर है मंजिल राहें मुश्किल आलम है तन्हाई का
आज मुझे अहसास हुआ है अपनी शिकस्तावाई का,

हमने ज़िया हुस्न को बख्शी उसका तो कोई ज़िक्र नहीं
घर घर में चर्चा है लेकिन आज तेरी रानाई का

अहले हवस अब पछताते हैं डूब के बहरे गम में शकील
पहले न था इन बेचारों को अन्दाज़ा गहराई का.


गज़ल को लोकप्रिय बनाने और घर-घर पहुँचाने की शुरुआत मेंहदी हसन से हुयी थी. बाद में जगजीत सिंह ने उसे उरूज पर पहुंचाया. फैज ने 'गुलों में रंग भरे, बाद नौबहार चले' से अच्छी गज़ल दूसरी नहीं लिखी और मेंहदी हसन ने इससे ज्यादा अच्छा कभी कुछ गाया नहीं. शुरूआती दिनों में मेहदी हसन कानपुर आये थे. मंच पर गा रहे थे. सुबह होने वाली थी. थके हुए से मेहदी हसन खत्म करते उठे और जाने लगे. आगे की कुर्सी से एक आदमी उठा और ललकारती हुई तेज़ आवाज़ में बोला –

'मेहदी हसन'

मेहदी हसन ने घूम कर देखा. लहकते हुए, दुलारती आवाज में उसने कहा,

'आज जाने की ज़िद न करो.'

रुकने की गुहार तो बहुत देखी सुनीं थीं, पर ललकार के साथ मनुहार पहली बार देखी थी. मेहदी हसन हंसते हुए बैठ गए थे. कुछ और सुनाया उन्होंने. यह कानपुर का अपना रंग था. मेहदी हसन के कार्यक्रम में वह आदमी मामूली नहीं था, इसलिए कि वहां कुछ भी मामूली नहीं था. न फैज, न मेहदी हसन, न वह तारों भरी दम तोड़ती रात, न ठंडी सुबुक हवा और न ही कानपुर की वह गंगाजमनी ज़िंन्दगी, जो रात भर चलने वाले उन मुशायरों में सबसे साफ दिखती थी जिनका संचालन कुँवर महेन्द्र सिंह बेदी करते थे, या तो रात भर चलने वाले उन कवि सम्म्लनों में दिखती थी जिनका संचालन उमाकांत मालवीय करते थे और अक्सर ही दोनों पहलू ब पहलू शाना ब शाना और कई बार साझा होते थे. जीवन में कहीं कुछ अलग नहीं था. हिन्दू मुसलमान ताने बाने की तरह गुंथे बुने थे.

इन सबके बीच ख्वाहिशों और जुनून की उमर भी आ गयी. ख्वाहिशों के हजार रंग थे, जुनून के मैयार अलग अलग थे. तीन ख्वाहिशें बड़ी थीं. पहली, किसी बंगाली लड़की से दोतरफा मुहब्बत, दूसरी, किसी मुसलमान लड़की से दोतरफा मुहब्बत, तीसरी उर्दू सीखना. तीनों में कोई बेवजह नहीं थी. इनके ठोस कारण थे. पहली ख्वाहिश बंगला साहित्य पढऩे के बाद पैदा हुई थी. बंगाल का काला जादू किसी और के लिये नहीं, बंगाली लड़कियों के लिये कहा जाता था. लम्बे घन काले केश, बड़ी-बड़ी काली आँखें और लुनाई लिये सांवला रंग. बंगला साहित्य ने इसे काले जादू के पाश में ढकेला और दुर्गा पूजा के पंडालों में सुर्खरू होने तक इसे परवान चढ़ाया.

मैं उसे ही कृष्ण कली कहता हूँ
कलूटी कहते हैं जिसे गांव के लोग
मैंने उसकी हिरनी जैसी काली आँखें देखी हैं

खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में बंगला देश में फौजी दमन करने वाले जनरल टिक्का खाँ से अपनी मुलाकात के किस्से में एक शेर लिखा है जो उन्हें बंगायिों के विरोध में टिक्का खाँ ने सुनाया था –

शौक-ए-तूल-ओ-पेच इस जुल्मतकदे में है अगर
बंगाली की बात सुन और बंगालन के बाल देख

बंगाली सांवलापन दक्षिण के सांवलेपन से अलग है. इसमें लावण्य (नमक) है ... एक चमक है ... जैसे कि लौ खाल के नीचे थरथरा रही है. रंग में जितना नमक है जबान में उतनी ही मिठास है. उसमें कठोर उच्चारण वाले वर्ण नहीं हैं.

निर्विवाद रूप से धरती पर सबसे सुन्दर स्त्रियाँ ईरान से ले कर तुर्की की ज़मीन तक हैं. बचपन में चन्दामामा के पृष्ठों पर फैला बगदाद हमेशा दिखता था. उसके हर अंक में बगदाद की एक न एक कहानी ज़रूर होती थी. उसमें पृष्ठों के कोनों पर छोटे वर्गाकार चित्र बने होते थे. उनमें आधे चेहरे को पारदर्शी नकाब से ढंकी लड़कियों के चित्र कौतूहल पैदा करते थे. खलीफा हाँरू रसीद, अलीबाबा, अलादीन, सिंदबाद जहाजी, मरजीना, हातिमताई, रूस्तम सोहराब, अरब के रेगिस्तान, ऊंट सब अपने लगते थे. उर्दू जबान की खास शीरीनी, रानाई, पुख्तगी, लबो-लहज़ा, बातचीत का बेहद सुसंस्कृत तरीका एक सुखद विशिष्टता देता था. यह सब किसी लड़की में सबसे अच्छे रूप में होगा, इसका एक महज़ त$खय्युल था. यही दूसरी ख्वाहिश का कारण था. 

इसी ने उर्दू सीखने की तीसरी ख्वाहिश को जन्म दिया. यही एक ख्वाहिश थी जिसे पूरा करना पूरी तरह अपने इ$िख्तयार में था. लिहाजा एक उस्ताद की तलाश शुरू की. कयामत यह कि उर्दू सिखाने वाले उस्ताद कोई मुसलमान नहीं, हिन्दू मिले, और वह भी उच्च कुल के ठाकुर जो सीधे राणा प्रताप के वंशजों से अपने को जोड़ते थे. मुगलों के खिलाफ लडऩे वाली दो तलवारें याद के तौर पर अभी तक उस खानदान में चली आ रही थीं. इस उस्ताद की बेटी से मुहब्बत और दूसरे अवांतर प्रसंगों को छोड़कर मुद्दे की बात इतनी ही है कि कुछ ही दिनों में ठीक-ठाक उर्दू सीख ली. सिर्फ अभ्यास करते रहना बचा था जिससे उसमें हर तरह की तराश आती रहे. 

मैं अपने कवि मित्रों को हमेशा यह कहकर नाराज कर देता हूँ कि जिसने भी एक बार उर्दू शाइरी पढ़ ली उसे कभी हिन्दी कविता अच्छी नहीं लगेगी. भारतेन्दु से लेकर अविनाश मिश्र अैर दिनकर कुमार तक. कारण यह कि उर्दू के मुकाबले, बनारस के ब्राह्मणों द्वारा एक नकली भाषा गढ़ी गयी जो लोक की भाषा कभी नहीं थी. उसका कभी अपना स्वतंत्र, नैसर्गिक, सहज विकास नहीं हुआ था. छायावाद से अज्ञेय के 'तार सप्तक' तक, हिन्दी कविता की भाषा जन की भाषा नहीं थी. छायावाद में कृत्रिम शब्दों का भारीपन, असम्प्रेषणीयता और भाषा के आवरण को सजाने की सारी चेष्टाएं हैं, तो पहले 'तार सप्तक' में आयातित विदेशी प्रभाव से आप्लावित सप्रयास आरोपित जटिलता है. रसविहीन, निर्जीव, सम्प्रेषणीयता है. (इन शब्दों को ही देखें) यह हिन्दी भाषा के साहित्य और इतिहास के अधिकारी विद्वान बताएंगे कि छायावाद की 50 वर्षों की लहर में प्रकाशित होने वाले दो सौ कवियों में कितने बचे हैं और 'तार सप्तकों' की श्रृंखला के कितने? अलबत्ता पिछले तीन सौ सालों की उर्दू में वली दकनी, नज़ीर अकबरावादी, मीर, ग़ालिब, जोश, जिगर, इक़बाल, दाग़, हफ़ीज जालंधरी, मख्दूम, मज़ाज, फैज़, ज़फ़िराक, साहिर क़ैफी लोगों की जबानों पर जिन्दा हैं. बात बात में उन्हें उद्धृत किया जाता है. उर्दू जबान की जिस मिठास और रवानी की बात की गयी है, वह उसमें लोक शामिल होता गया. उसके शब्द आते चले गए. गंगा जमना के दो आबे में पली बढ़ी यह ज़बान, दुनिया की सबसे शानदार और जानदार जबानों में इसलिये है कि इसे किसी और ने नहीं, दरगाहों, मंदिरों, मस्जिदों, गलियों, बाजारों, मेलों ने गढ़ा था. वली दकनी से शुरू हो कर आज तक. (कम अज़ कम पाकिस्तान में) यह बिना मुरझाये चली आयी है.

तुझ लब की सिफत लाले बदख्शा सूं कहूँगा
जादू हैं तेरे नैन ग़ज़ाला सूं कहूँगा

देख लेता है वह पहले चारसू अच्छी तरह
चुपके से फिर पूछता है मीर तू अच्छी तरह


यह सिर्फ एक बार पढ़ या सुन लेने के बाद याद रह जाने वाली ज़बान और कविता थी. हिन्दी में इस भाषा को बाकायदा कोशिश करके सौ साल पहले खारिज कर दिया गया था.

हालांकि हिन्दी गीतों के मंच पर इसे जिंदा रखा गया. वहां गीत की शक्ल में लय, छंद, गेयता, रस, जीवन बचा था. हजारों सुनने वाले पूरी रात सुनते थे. दिनकर और बच्चन से लेकर भारत भूषण, माहेश्वर, किशन सरोज से होती हुयी आज भी कानपुर के कई गीतकारों तक कमोबेश यह भाषा बची हुई है. यह देखना रोचक है कि हमारी आधुनिक कविता के लगभग सारे बड़े नामों ने शुरू में गीत लिखे हैं. पर वे अब इसे स्वीकारते नहीं छुपाते हैं. वे सार्वजनिक रूप से गीत का समर्थन नहीं करते, पर हो सकता है अकेले में गुनगनाते हों. उनके अंदर डर बैठा दिया गया है, और यह डर बैठाया है बनारस की ही तरह वामपंथ के अपने ब्राह्मणों ने, जिन्होंने प्रेम रस, लय, छंद कल्पनाशीलता, गीत को न जाने किन-किन क्रांतिकारी शब्दावलियों के हथियारों से साहित्य और जीवन से बहिष्कृत करके एकांत में ढकेला और उसकी हत्या कर दी. वामपंथ के प्रचंड तुमुलनाद और शिक्षा व साहित्यिक सत्ता के विभिन्न या कि समस्त शक्ति केन्द्रों पर वामपंथियों के नियन्त्रण के कारण कविता में रस और लोक भाषा होने को निरंतर हेय बताया गया. सम्प्रेषणीयता दुर्गुण और जटिलता प्रगतिशीलता बन गयी. इस बिन्दु पर कलावादी और वामपंथी एक थे, क्योंकि दोनों के प्रेरणास्रोत, रचनात्मक उद्गम स्थल विदेशों में थे. थोड़ा बहुत जो कुछ हरा-भरा इधर-उधर बचा रह गया, उसे हिन्दी अध्यापकों की महान विवेचनाओं और पाठ्य पुस्तकों में संकलित सूखी ठठरियों जैसी रचनाओं ने 'गोड़' दिया. आज लोक इस हिन्दी भाषा, हिन्दी कविता से पूरी तरह कट गया है. इसे सिद्ध करने के लिये कहीं जाने की जरूरत नहीं है. हम अपने आसपास देखें तो हम सब जिन्दगी में गाहे-बगाहे, मौके बे मौके, चार छ शेर या कोई दोहा चौपाई बोल देते हैं. आधुनिक हिन्दी कविता की पंक्तियाँ कोई उद्धृत नहीं करता, सिवाय उन अध्यापकों और छात्रों के, जो कई सालों पहले जरूरत के मुताबिक बनाये गए नोट्स को इस्तेमाल करते रहने के कारण उन्हें कंठस्थ कर चुके हैं. बाकी... हमारी न मानें तो दिल्ली की आज की सजी हुई साहित्यिक मंडी को देखें, हिन्दी के बारे में सोचें, और पाकीजा का 'दुपट्टा छिनने वाले गाना' सुनें, बात खुद बोलेगी, बात ही भेद खोलेगी कि दुपट्टा छीनने वाला सिपाही, रंगरेज, बजाज कौन है, ...हमें क्या करना है?

तो ...जीवन में मुसलमान सब जगह थे पर दूसरा पाकिस्तान कहीं नहीं था. सन् 80 में हमारे कारखानों में मजदूरों की चालीस दिन की बेहद संगठित और आक्रामक हड़ताल हुयी. वे मजदूर आंदोलन और ट्रेड यूनियन के सक्रिय और उत्तेजक दिन थे. कलकत्ता, बम्बई और कानपुर इसके बहुत बड़े गढ़ थे. ट्रेड यूनियन के नेताओं का प्रभाव और वर्चस्व आतंक जैसा बन गया था. प्रत्येक राजनैतिक दल का अपना मजदूर संगठन था. हमारी मुठभेड़, इंटक (कांग्रेस का मजदूर संगठन) के बड़े नेताओं से हुयी थी. कारखाने के गेट का मोर्चा मैंने सम्हाला था. शफ़ीक खान हमारे फोरमैन/इलेक्ट्रीशियन थे. अकेले वही थे जिन्होंने चालीस दिन हमारा साथ दिया. मैं घर से उन्हें उठाता था और वापसी में घर के दरवाजे पर छोड़ता था. मेरी कार के साथ मजदूर साइकिल दौड़ाते चलते थे, कि कहीं कुछ देर के लिये भी शफ़ीक मियाँ अकेले मिल जाएं. कार में मेरे साथ 'कट्टा' लिया एक सुन्दर मासूम सा दिखता, छोटा-सा लड़का बैठता था. मेरे पिता ने उसे साथ लगा दिया था. बाद में, शादी के कुछ दिन पहले ही गैंगवार में बम से उसकी एक टाँग उड़ गयी. उसकी सगाई हो चुकी थी. लड़की को घर वालों ने समझाया पर वह नहीं मानी. उसका एक ही सवाल था, बाद में यह होता तो आप क्या कहते? इसका उत्तर किसी के पास नहीं था. उसने उसी से शादी की. बहुत जीदारी थी लड़के में एक टाँग से साइकिल चलाकर वह वैष्णव दैवी जाता था. तीसरी मंजिल पर गैस से भरा सिंलिडर चढ़ा देता था. कुछ समय पहले ही उसकी मृत्यु हुयी शफ़ीक मियां को मजदूर कभी छू नहीं पाए. अनवारूलहक मेरा सन् 61 मॉडल का लैम्ब्रेटा बनाता था. मैंने प्यार से लैम्ब्रैटा का नाम 'उन्फुवाने शबाब' (चढ़ती जवानी) रखा था. यह नाम मेरे सब मित्र जानते हैं. सबने उसे चलाया है. मैंने उसे बहुत आखरी सालों तक चलाया, जब तक कि उसके पुर्जे मिलना बंद नहीं हो गए. अनवारूलहक साल में सिर्फ एक बार ईद से पहले पैसे लेने आते थे. हसन घर में पुताई करता था. हम घर की चाबियाँ उसे सौंप कर चले जाते थे. बहुत धीरे धीरे, किसी संगीत वाद्य को बजाने की तरह वह दीवारों को, दरवाजों को सजाता था. उससे काम जल्दी खत्म करने को कहो तो काम छोड़ देता था. इनमें से अब कोई जीवित नहीं है.

इस सबके बीच जाजमऊ की चमड़े की टैनरियों में भी जाना होता रहा. कच्चे चमड़े के पहाड़ों के बीच लोग काम करते थे. जाजमऊ की पूरी बस्ती मुसलमानों की है. चमड़े की पचासों टैनरियां हैं. गोल्फ़ क्लब से जाजमऊ की सड़क पर घूमते ही चमड़े की खास गंध आने लगती है. सड़क के किनारे चमड़े की छीलन पड़ी रहती थी. भैंसा गाड़ी पर लदी, पानी टपकती, कच्चे चमड़े की कतारें गुजरती थीं. टैनरी की गालियों से क्रोमियम निकल कर गंगा को गंदा करता था. पूरे इलाके में तहमद पहने, टोपी लगाए, ताबीज बांधे आदमी, बुर्का पहने या लपेटे औरतें, टाट के पर्दे, भट्ठी पर चढ़ी अल्यूमिनयम की काली पेंदी वाले बर्तन, टी.बी. के मरीज, नंगधड़ंग सड़क पर घूमते बच्चे, मदरसा, मस्जिद, बकरियाँ, मुर्गी, कच्चे पक्के मकान दिखते थे. चमड़े के व्यवसाय पर पूरा नियंत्रण मुसलमानों का था. चमड़े का सलेक्शन (यह बहुत महत्वपूर्ण होता था) करने के लिए एक टैनरी से दूसरी टैनरी तरह-तरह के जानवरों के चमड़ों के ढेर देखते घूमते थे. जूतों के कारीगर भी ज्यादातर मुसलमान थे. उनके घर और छोटे-मोटे सिलाई और लास्टिंग के कारखाने भी घनी मुस्लिम बस्तियों में थे. बड़े कारखाने भी थे. इनमें कोई कायदा कानून नहीं होता था. कभी कोई सरकारी आदमी निरीक्षण के लिये, कर वसूलने के लिये वहां जाने का साहस नहीं करता था. इन बस्तियों का किसी भी तरह का कोई सही आंकड़ा किसी सरकार के पास नहीं है. देश की जनगणना हो, या कोई नीति बनाना या योजना क्रियान्वित करना या किसी और तरह की गणना, कोई भी आंकड़ा सही है इस पर विश्वास करना मुश्किल है. न कोई मतदाता सूची, न शिक्षा, न गरीबी रेखा न देश की प्रगति विकास का कोई आंकड़ा. इन गलियों, गलियों के मकानों के अन्दर के बंटे हिस्सों के अन्दर कोई धूप, रोशनी, ताजी हवा नहीं जाती. वहाँ देश की किसी प्रगति, किसी सरकारी अधिकारी का पहुंचना पूरी तरह संदिग्ध है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट इस देश के मुसलमानों की एक बड़ी सच्चाई है.

'दूसरे पाकिस्तान' का पहला अहसास बाबरी मस्जिद गिराए जाने के कुछ दिनों बाद हुआ था. एक रात, एक मित्र के घर से निकल रहे थे. उसके बगीचे के बाहर के दरवाजे पर लगे नल पर अन्धेरे में झुका हुआ कोई पानी पी रहा था. दूरी थोड़ी ज्यादा थी, इसलिए सिर्फ इतना ही समझ में आया कि कोई दरवाज़े पर है. हममें से किसी ने तेज अवाज़ में पूछा 'कौन है?'

वह आदमी हड़बड़ा कर सीधा हो गया. उसकी आवाज आयी 'मुसलमान हूँ.'

मेरी नसों का खून जम गया. उस दिन पहली बार लगा कि यतीमखाने के चौराहे से बाँए घूमते ही जो बस्ती शुरू होती है, अब वहाँ न दिखायी देने वाली एक सरहद है, जिसके इधर और उधर दो अलग कौमें, दो अलग मजहब और शायद, दो मुल्क भी हैं. यदि कानपुर शहर में मुसलमान बस्ती के चारों ओर एक दीवार बनायी जाए, तो वह बस्ती एक अलग इलाके या किले में तब्दील हो जाएगी. वहां कुछ मिला जुला नहीं है सिवाय उन सरहदों के.

जिस दिन बाबरी मस्जिद गिरायी गयी, हस्बेमामूल उस दोपहर हम 'मैटिनी शो' देखने जा रहे थे. पान की दुकान के लड़के ने बताया कि अयोध्या में कुछ हो रहा है. हमने कोई ध्यान नहीं दिया. हम आश्वस्त थे कि लोकतांत्रिक मुल्क में, एक चुनी हुई कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने वाली सरकार में, क्या हो सकता था? शाम को जब टॉकीज के बाहर निकले तब तक शहर में हल्की सनसनी फैल चुकी थी. बाद में बाबरी मस्जिद गिराए जाने का पता चला.

अगली शाम या शायद उसके बाद वाली शाम तक शहर का पूरा माहौल बिगड़ चुका था. कुछ शोर शराबा सुनकर मैं छत पर गया. वहाँ गोलियों की आवाजें सुनायी दे रही थी. किसी मस्जिद के लाउडस्पीकर से मैंने मुल्ला की या किसी और व्यक्ति की आवाज़ सुनी जो पुलिस को चेतावनी दे रहा था कि वह अपनी गलत हरकतों से बाज आए वर्ना कुछ हो जाएगा. वह मुसलमानों को भी सावधान कर रहा था. डर, परेशानी, घबराहट और बेबसी से भरी आशंकाओं से उसकी आवाज़ काँप रही थी. पुलिस शायद गोलियाँ चलाती अन्दर घुस रही थी. उस पर भी छतों या गली के मोड़ों से हमला हो रहा था. शहर के हिस्सों में कुछ लोग मरे और कफ्र्यू लग रहा.

हिन्दू बस्तियों की गलियों के अन्दर कफ्र्यू का कोई ज़्यादा मतलब नहीं होता. वहां सब घरों के बाहर घूमते हैं, बातें करते हैं, सड़क तक चले आते हैं. ज़रूरत का सब सामान मिल जाता है. मुस्लिम बस्तियों की गलियों में इसका अर्थ दूसरा होता है. वहीं खिड़कियों से झाँकने तक की इजाजत नहीं होती. पानी, दूध, अखबार, दवा तक को सब तरस जाते हैं. वे पुलिस को पूरी तरह साम्प्रदायिक मानते हैं, और जो वह है भी, इसलिए उस पर हमले करते हैं. कानपुर का कफ्र्यू तभी शांत होता है जब सेना आती है. सेना पर उन्हें पूरा विश्वास है. सिर्फ एक सैनिक पूरी सड़क पर नियंत्रण कर लेता है. गलियों को नियन्त्रण में ले लेता है. उस पर कभी कोई हमला नहीं करता. वे उस देश और अपने रक्षक के रूप में स्वीकार करते हैं. पुलिस को कभी नहीं.

दंगा खत्म हुआ, कर्फ़्यू भी. सामान्यत: हिन्दुओं में इस घटना को इस तरह देखा गया था कि ढाँचा गिरा दिया, अच्छा किया. हमेशा के लिए झगड़ा खत्म हुआ. पर मुसलमान हैरानकुन और डरा हुआ था. आज़ाद हिन्दुस्तान की यह ऐसी घटना थी जिस पर उसे यकीन नहीं हो रहा था. देश बंटवारे के समय उसे हर तरह का आश्वासन दिया गया था. इसी विश्वास पर उसने यह मुल्क नहीं छोड़ा था. इसके नेताओं, जम्हूरियत, कानून, न्याय पर उसे विश्वास था. इसका भी कि न तो उसे दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाएगा, न उसकी इबादतगाहों, उसके धर्म, उसकी ज़िन्दगी को कहीं से, किसी भी तरह कमतर समझा जाएगा या उसमें सीधे सीधे दखल दिया जाएगा. वह डरा हुआ और ठगा हुआ महसूस कर रहा था. इस ढाँचे के गिरने से वह सशंकित हो गया था. हिन्दू संगठन, दल उसे और डरा रहे थे. अपनी विजयी हुँकार में आगे के लिये अब मथुरा और काशी के नाम भी जोड़ रहे थे. मन्दिरों और मस्जिदों की मिली जुली दीवारों को गिराने का मतलब था दो अलग बस्तियों, दो अलग सरहदों दो अलग कौमों के सिद्धान्त को स्वीकृति. जो समझा था, मिला जुला था, गंगा जमनी था, चाहे ज़बान, चाहे कला, चाहे संस्कृति, उस सबको अस्वीकारना था. इस घटना केबाद बड़े स्तर पर स्वतंत्र भारत में इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पाठ किया जा रहा था.

इसके बाद कुछ फर्क साफ़ तौर पर दिखने लगे थे. हिन्दू मुसलमान बस्तियों में जाने से बचने लगा. मुसलमान हिन्दू बस्तियों से निकलता था, उनसे व्यापार करता था पर चुप रहता था. मन की बात नहीं बोलता था. लोग जैसे ग़ैर के सामने घर की बात नहीं करते, कुछ उसी तरह का व्यवहार करने लगा था. चमड़े और जूते की वजह से मेरा ताल्लुक ऊपरी और बिल्कुल नीचे, दोनों ही वर्गों के मुसलमानों से था. कभी मैं उनसे कुरआन, अयोध्या, अरब या उनकी रवायतों के बारे में कोई बात करता या भारत की राजनीति या उनके किसी मसले पर बात करना चाहता, तो वह कुशलता से सधा हुआ, तटस्थ दिखने जैसा व्यवहार करते, अलबत्ता मेरे पास ही कभी नमाज का वक्त हो जाता, तो दोजानू हो कर नमाज़ जरूर पढ़ लेते.

हिन्दुओं की इस उग्र आक्रमकता के पीछे कोई वाज़िब तर्क नहीं था. इतिहास की दी गयी गलत जानकारी, नफरत की विरासत और बहुसंख्यक होने के कारण एक वर्चस्ववादी अधिकार बोध था, जो महान संस्कृति या कि नस्ल जैसी बासी और अवैज्ञानिक अवधारणाओं की चाशनी में डूबा था. संविधान, न्याय, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, चुनी हुई सरकार, कानून, पुलिस इन सबसे ऊपर आस्था के महत्व का तर्क दिया जा रहा था. हमारा मुल्क, हमारा धर्म, हमारे पूजा स्थल, हमारे देवी देवता, हमारे अधिकार जैसे बातों में साफ दिखता जाता था कि इस 'हम' में कौन शामिल नहीं है, कौन 'अन्य' हैं. ये सब बातें हर तरह के कुतर्कों के साथ की जाती थीं. सबसे सामान्य तर्क था कि उनको उनका मुल्क दे दिया, अब यहाँ क्यों? अब अगर रहना है तो हमसे दबकर, हमारे तरीके से रहना होगा, वर्ना अपने मुल्क जाओ, इन कुतर्कों में न किसी तरह का इतिहास का ज्ञान था, न सामाजिक बुनावट का, न कोई आधुनिकता थी, न प्रगतिशीलता, न वैज्ञानिक चेतना, न वैश्विक मूल्य बोध, न सांस्कृतिक विरासत की समझ, न लोकतंत्र पर आस्था, न अपने दयनीय वर्तमान की समस्याओं का ज्ञान, न कोई वृहद परिप्रेक्ष्य. सबसे बड़ी बात कि हिन्दू धर्म के नाम पर जो बातें की जाती थीं, वो कभी उसकी रही ही नहीं. वे एक सर्वाधिक उदार, वैविध्यपूर्ण, मानवीय, कलात्मक धर्म को अपनी जाहिली में विकृत कर रहे थे. यह सब सिर्फ एक 'विकलांग उन्माद' था. एक अलक्षित असंभव उद्देश्य, जो पिछली लगभग एक सदी से 'राष्ट्र' और 'धर्म' के नाम पर भीड़ के सामने ताना जा रहा था. बीन से डरे हुए साँप को मुग्ध होकर नाचता हुआ बताने का प्रयास था. नतीजे में एक भीड़ हुंकार भर रही थी. 'अभी तो यह अंगड़ाई है, आगे और लड़ाई है.' हिन्दू बहुसंख्यक के पास अपने वही तर्क थे जो किसी भी बहुसंख्यक के पास हमेशा होते हैं. मुसलमान (ईसाई भी) अल्पसंख्यक के पास अपने डर थे जो हमेशा अल्पसंख्यकों के पास होते हैं. बहुसंख्यक एक 'सांस्कृतिक राष्ट्र' के स्वप्न में जीता है और अल्पसंख्यक फैलते हुए 'घेटो' में बदल जाता है. गंदगी, घुटन, अशिक्षा और अपने धर्म की गलत व्याख्याओं की बीच अपनी परम्पराओं, अपने प्रतीकों में ही शरण, सुरक्षा पाने के कारण उनसे और मजबूती से चिपकता जाता है. नतीजे में एक न दिखने वाली चुप, घृणा और हिंसा दोनों के बीच तनी रहती है, जो किसी विवशता या कुछ अज्ञात भय के कारण शांत बनी रहती है.

अपने समय में मात्र 'साक्षी' की तरह रहना कठिन होता है. यह अक्सर दुविधा और दुख देता है. पक्षधरता में यह संकट नहीं है. वहाँ आवेग, चेतना और लक्ष्य विवेक को ढंक लेते हैं, शान्ति और शरण देते हैं. 'साक्षी' होकर देखने पर ही इतिहास, सृजनात्मकता, सामाजिक गतिशीलता समझ में आती है. तट पर खड़े होकर ही जल का प्रवाह दिखता है, नदी में डुबकी लगाकर जल में रहने पर नहीं. मेरे साथ यही हो रहा था. मैं चीजों में 'साक्षी' की तरह शामिल था और इसलिए समझ रहा था कि अब वर्तमान से मुसलमानों को अलग नहीं किया जा सकता. कोई कोशिश भी की गयी तो सब कुछ दरहम बरहम हो जाएगा. अगर मुसलमानों के रेशों को अलग किया गया संस्कृति की चातर चिथड़ों में बदल जाएगी. समाज अब सिर्फ समरसता में ही गतिशील हो सकता था, संघर्ष में नहीं, खासतौर से 20 प्रतिशत मुसलमानों के साथ मिली जुली बस्तियों, जबानों, व्यापार, परम्पराओं और त्योहारों के साथ. मैं मित्रों को ये बातें बताता, खासतौर से शनिवार की शाम को अपने घर की बैठकों में. पर उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. उनके पास तर्क से ज्यादा भावनाएं थीं, अस्पष्ट विचार थे. वे उनकी पुष्टि चाहते थे, विरोध नहीं. लिहाजा मैं कभी सायास और अक्सर ही अनायास, हर बात में मुसलमानों के पक्ष में बोलने लगा. मुझे लगता था सिर्फ इसी तरह मैं एक भटकी हुई मानसिकता का विरोध कर सकता था. वास्तव में यह पक्षधरता से ज्यादा उनका विरोध करने का तरीका था. मैंने मुसलमानों के पक्ष में बहुत से तथ्य और तर्क जुटा लिये थे. स्थापित चीजों का खंडन या उन्हें ध्वस्त करना मेरी आदत बन गयी थी. जब वे महमूद ग़ज़नवी की बात करते, तो मैं बताता उसका सेनापति कमल था. जब तैमूर लंग की बात करते, मैं बताता कि उसकी आत्मकथा दुनिया की श्रेष्ठ किताबों में है. जब वे बाबर की बात करते तब मैं पूछता कि किसने उसको बुलाया था और किसने उसे धोखा दिया जिसकी वजह से वह दिल्ली से लौटा नहीं और आगे बढ़ गया? जब औरंगजेब की बात करते तो बताता था मुगल वंश में सबसे ज्यादा हिन्दू मनसबदार उसके समय में थे और अपनी खुशी और मर्जी से थे. जब वे राणा प्रताप की बात करते तो मैं बताता कि उनका सेनापति मुसलमान था और हल्दीघाटी से भागने में पठानों ने सबसे ज्यादा लाशें गिरायी थीं. मैं बताता कि शिवाजी, लक्ष्मीबाई, महादजी सिंधिया के तोपची मुसलमान थे. पूछता कि जब शिवाजी औरंगजेब की कैद से भागे तो उनकी जगह पलंग पर कौन लेटा था? वाइसराय मेयो का कत्ल करने वाले शेर अली का नाम कोई क्यों नहीं जानता जबकि मामूली इंस्पेक्टरों का कत्ल करने वाले इतिहास में प्रशंसा के पात्र बनाए जाते हैं? इन सबमें इतिहास मेरी मदद करता था. यह कुछ और नहीं सिर्फ एक भयानक बेचैनी थी. बेबसी और छटपटाहट थी. एक 'साक्षी' का द्वन्द्व, दुविधा, संकट था. इतिहास से खिलवाड़, अभिव्यक्ति और रचनात्मकता पर गहराते संकट के बादल और भविष्य में किसी मजबूत भारत की जगह अन्दर से छोटे-छोटे द्वीपों में बदलते हुए देश को देखने की विवशता थी.

दूसरी ओर मुसलमानों की स्थिति बहुत जटिल थी. वहां सिवाय सैकड़ों साल पुराने ठहराव के कुछ और नहीं था. वे गले तक अशिक्षा, गरीबी, धर्मान्धता, मुल्लाओं के नियन्त्रण में जीवन को निर्देशित करने वाली उनकी मोनोलिथिक व्याख्याओं के चंगुल में थे. यह शिकंजा बहुत मजबूत है. यह बात बहुत हैरान करती है कि मुसलमानों के जगत में कोई बड़े परिवर्तन हुए ही नहीं. किसी तरह का कोई पुनर्जागरण, कोई सामाजिक क्रान्ति, धर्म के विघटन, शंकाएं, प्रश्न, बहसें, राजनैतिक नेतृत्व... ऐसा कुछ घटित नहीं हुआ. विज्ञान, प्रगति, विकास का सबसे कम प्रवेश यहां है. यहां की बंद खिड़कियाँ सिर्फ धूप, रोशनी, ताजी हवा ही नहीं रोकतीं, बीनाई समय के साथ हमकदमी और आत्मा की चमक भी रोकती है. अकबर, दारा शिकोह, शाह वलीउल्लाह, जमालुद्दीन अफगानी या जिन्ना या खान अब्दुल गफ्फ़ार खां या वामपंथी विचार, साहित्य तक कई बार संभावनाएं बनीं कि किसी बड़ी चेतना की लहर इनमें कोई बड़ा परिवर्तन ले आये, पर देश के बंटवारे ने और फिर बाबरी मस्जिद ने सिद्ध कर दिया कि दूसरी जकडऩें बहुत मज़बूत होती हैं. वे आसानी से उंगलियाँ ढीली नहीं करतीं.

ईद के दो दिन बाद 'टर्र' का मेला होता है. मुझे नहीं पता कि यह सिर्फ कानपुर में होता है या दूसरी जगह भी. लगभग इसी तरह का गंगा मेला होली के लगभग छह दिन बाद होता है. यह सिर्फ कानपुर की अपनी परम्परा है. मैं 'टर्र' के मेले में पहले भी दो तीन बार गया था. इस साल फिर गया. मेला लगभग एक किलोमीटर लम्बी सड़क पर होता है. इसका एक सिरा मुस्लिम इलाके से शुरू होता है और दूसरा सिरा हिन्दू मुहल्ले में खत्म होता है. मैं एक सिरे से दूसरे सिरे तक गया. जिसे भी मुस्लिम समाज की दहला देने वाली क्रूर और नंगी सच्चाई देखनी हो, उसे एक बार इस मेले में ज़रूर आना चाहिये. पूरी सड़क दुकानों और इन्सानों से भरी थी, उनमें 80 प्रतिशत दस से बीस साल के बच्चे, लड़के थे. वे झुण्ड में थे. वे सब कुपोषित, बीमार और कमजोर थे. सब एक से दिखते थे. उभरी हड्डियाँ, धंसा पेट. सब पारम्परिक कपड़े पहने थे. टोपी, पायजामा, कुरता, पैरों में रबर की सस्ती चप्पल. 20 प्रतिशत में भी 95 प्रतिशत औरतें थीं. शेष पुरुष. औरतों के साथ कई छोटे बच्चे थे. बहुतों की गोद में भी थे. वे बच्चे भी बीमार, कमजोर थे. औरतें भी कुपोषित, एनिमिक थीं. सस्ता मेकअप, फुटपाथों पर बिकने वाले सस्ते, चमकदार कपड़े, नकली गहने. खाने पीने की दुकानें सबसे ज्यादा थी. वे सब नालियों या गंदगी के ढेर के ऊपर या उसके आसपास बनी थीं. इनमें मिठाई, शर्बत, चाट, पकौड़ी थी. इनके ठेले भी थे. फल, खजूर, कुल्फी, फालूदा सिंवई भी थी. सब पर मक्खियां थीं. सब सस्ती चाशनी, बाजार के सस्ते रंगों से बनी थीं. खाने वालों में औरतें, बच्चे सबसे ज्यादा थे. वे उनकी खुशी के पल थे. वे सब खा रहे थे, हंस रहे थे, घूम रहे थे. झूलों पर झूल रहे थे. वहां कोई उच्च, उच्च मध्य या मध्य वर्ग का मुसलमान नहीं था. न स्त्री न पुरुष और लगभग बच्चे भी नहीं. यह गरीबी, अशिक्षा, अज्ञानता, कुपोषण बीमारी के धागों से बनी ऐसा सामाजिक बुनावट थी, जो इतनी शिद्दत से इस तरह तो नहीं दिखती पर 'टर्र' के मेले में जैसे अचानक नमूदार हो गयी थी और यह हिन्दुस्तान की लगभग 20 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के लगभग 80 प्रतिशत मुसलमानों का सच था. और वह केवल हमारे शहर का नहीं पूरे मुल्क का, हमारे अपने हिन्दुस्तान का सच था, और ये उनके सबसे सम्पन्न, सबसे खुशी वाले त्योहार ईद के तीन दिन बाद का सबसे खुशनुमा दिन था, जिसका वे साल भर इन्तज़ार करते थे. इसमें अगर दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर, झुग्गी झोपडिय़ों की आबादी, रोजन्दारी पर काम करने वालों को भी जोड़ लें तो फिर जो हिन्दुस्तान की आबादी बचेगी, और जितनी बचेगी, जो हिन्दुस्तान बचेगा, वह किसका होगा? किसका है वह विकसित, गतिशील दुनिया की ताकत बनने वाला हिन्दुस्तान? शायद उनका, जो गुडग़ांव के 'साइबर हब' में दिखते है? यदि ईश्वर की बदनीयती या अन्याय देखना हो या धरती के इन्सानों के सच को देखना हो, तो 'टर्र' के मेले से 'साइबर हब' के मेले की एक यात्रा सब दिखा देगी.

इसके बरअक्स होली के बाद 'गंगा मेले' का दृश्य बिल्कुल दूसरा होता है. शाम 4 बजे तक चलने वाला मेला मुख्य रूप से गंगा के सरसैय्या घाट जाने वाली सड़क पर लगता है. बहुत पुलिस रहती है. पूरी यातायात व्यवस्था बदली जाती है. घाट जाने वाली सड़क से पहले सैकड़ों मोटर साइकिलें, कारें और दूसरे वाहन खड़े रहते हैं. हँसते मुस्कराते, समृद्ध लोग होते हैं. पूरी सड़क पर तम्बू लगे होते हैं. ये व्यापारी संगठनों के, जातियों के, राजनैतिक दलों के होते हैं. इन तम्बुओं में इन समुदाय, जाति, धर्मों के लोग जमा होकर होली मिलते हैं. प्रशासन का तम्बू भी होता है. डी.एम. भी उपस्थित रहते हैं. इन तम्बुओं के बाद घाट से पहले छोटे बड़े मंदिरों में भव्य शृंगार होता है. फूल, गंध, गुलाल होता है. उत्सव जैसा उल्लास और माहौल होता है. परम्परा के रूप में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व शायर शहर क़ाजी या उलेमा करते हैं. वे डी.एम. से मिलते हैं. दोनों मेले का फर्क बहुत साफ है. दोनों मेले हिन्दू और मुसलमानों के दो सबसे बड़े त्यौहारों के बाद होते हैं.

बाबरी मस्जिद की घटना के फौरन बाद एक फर्क आया था, जो शायद अब हमेशा ही बना रहेगा, वह मुसलमानों की खामोशी और चुप्पी है. वह बढ़ी है. यह आसानी से जल्दी और दूर से नहीं दिखती. शहर के सबसे खराब, बदहाल इलाकों में एक चमनगंज में जमीनों के दाम आज भी बहुत ज्यादा हैं क्योंकि मुसलमान अपने को अपनी बस्ती में सुरक्षित समझता है. जिनके पास पैसा है या बहुत पैसा है, वे शहर के अन्दर हिन्दुओं की बस्तियों के बीच रहते भी हैं, तो अकेले नहीं. कुछ लोग मिलकर, छोटी हुई तो पूरी इमारत ही खरीद कर साथ रहते हैं. यदि उनके अकेले मकान हैं, तो उनकी खिड़कियां बंद रहती हैं. दरवाज़े मजबूत लोहे के, ऊँचे, आसानी से पार न किए जाने वाले और न तोड़े जा सकने वाले होते हैं. सेहत के प्रति बढ़ती जागरूकता या बीमारियों के कारण अब नानाराव पार्क में सुबह की सैर के लिये मुसलमान आने लगे हैं. आदमी भी, औरतें भी. हिन्दू पूरी बेशर्मी और जहालत के साथ पेड़ के ताजे, खिले फूल तोड़ता है, मुसलमान ज़मीन पर गिरे फूल उठाता है. हिन्दू मोबाईल पर तेज आवाज में भजन, प्रार्थनाएं सुनता है, मुसलमान इयर फोन लगाकर. हिन्दू बच्चे सूखे तालाब में क्रिकेट खेलते हैं, मदरसे के मुसलमान बच्चे किनारे बैठ कर उन्हें खेलते देखते हैं. हिन्दू बरगद के नीचे 'बैंकुठधाम' बना कर कीर्तन कथा करने लगता है, मुसलमान इकट्ठा होकर कुरआन पर बात नहीं करता. हिन्दू व्यायाम करता है, वंदे मातरम कहता है, राधे राधे, हरिओम के अभिवादन करता है, मुसलमान पड़ों के बीच के रास्तों पर चुपचाप बेगाना सा पास से निकल जाता है. वह झुंड बनाकर नकली हंसी नहीं हंसता, जोर जोर से ठहाके लगा कर बातें नहीं करता. कोशिश करके कोई हिन्दुओं की मंडली में शामिल भी होता है तो तो चार दिन बाद फिर अकेले दिखने लगता है. मुसलमान की बढ़ती तादाद देखकर हिन्दूओं के झुंड बैचेन हैं कि किसी दिन पार्क में सिर्फ वही न दिखने लगें, तो मुसलमानों को डर है कि बाबा रामदेव की योग कक्षायें, 'बैंकुठधाम' के बढ़ते कीर्तन, शाखा जैसे व्यायाम, सत्संग उनके घूमने आने पर दबाव न बनाने लगें. उनके इलाके में फुटपाथ नहीं हैं, सड़क नहीं है, पेड़ नहीं है, धूप रोशनी नहीं, ताजी हवा नहीं है. बीमारियों में सुबह की सैर बहुत जरूरी है. लड़कियाँ भी आती हैं. अपना शरीर ठीक रखना चाहती हैं. पर वे बैडमिंटन नहीं खेल सकतीं, दौड़ नहीं सकतीं, चारों ओर हाथ घुमा कर व्यायाम नहीं कर सकतीं. उनकी पोशाक, उनकी सरहदें, उन्हें यह सब नहीं करने देगीं. उनके पुरुष, मौलवी, मुल्ला भी नहीं करने देंगे. उनकी किताबों की हिदायतें नहीं करने देंगी. हमारे केसरिया झंडे, हमारे हुंकारते अभिवादन नहीं करने देंगे. उनके मुहल्ले के लंफगे और हमारे लटूरे लड़के नहीं करने देंगे.

गलत इतिहासबोध, धार्मिक कट्टरता, अलगाव दोनों तरफ बढ़ रहा है. पहले जब गर्मियों में छत पर पानी छिड़कर कर सोते थे, और हवा नहीं चलने पर सात तरह के विकलांगों से हवा चलाने की प्रार्थना करते थे, और अक्सर सुबह आंख खुलने पर सिरहाने बंदर को बैठा पाते थे, तब सुबह अज़ान की सिर्फ एक आवाज़ सुनायी पड़ती थी. अब सुबह छत पर जाने पर अज़ान की पचासों आवाजें चारों ओर सुनायी देती हैं. दस साल पहले कानपुर में कोई गणेश पूजा के बारे में जानता भी नहीं था. आज गणेश पूजा में लगभग 250 प्रतिमाएं गलियों, नुक्कड़ों, सड़कों के मन्दिरों के साथ सजती हैं. लाऊडस्पीकर, कीर्तन, प्रसाद चढ़ावा एक अलग वातावरण रचता है. विसर्जन के लिये जाती प्रतिमाओं के साथ गुलाल रंगे लड़कों के चेहरों के जुलूस डराने वाली उपस्थिति दर्ज कराते हैं. अचानक यह उत्सव, मुफ्त दी जाती प्रतिमाएं, पंडाल, लड़कों के अन्दर पैदा की जाती धार्मिकता की पूरी कहानी अलग है. यही दुर्गा पूजा के उत्सवों में होने लगा है. पहले सार्वजनिक रूप से सिर्फ बंगालियों के भव्य पंडाल और मूर्तियां सिर्फ पांच या सात जगह सजते थे. सामान्य रूप से सामान्य हिन्दुओं को पता भी नहीं होता था. वे उसमें जाते भी नहीं थे. आज उन पंडालों में बंगालियों से ज्यादा हिन्दुओं की भीड़ होती है. गलियों, नुक्कड़ों के मंदिरों पर देवी प्रतिमा सजती हैं. रात भर जागरण होते हैं. विसर्जन होता है. बंगालियों से ज़्यादा गैर बंगाली अब हिन्दू प्रतिमाएं विसर्जित करते हैं. किसी भी पेड़ के नीचे, निर्जन या खुली जगह में रोज जन्म लेते नए देवता हैं तो कुकुरमुत्तों की तरह उगते पुजारी. मुहर्रम के जुलूस भी ज्यादा लम्बे, ज्यादा उन्मादी, ज्यादा आवेगपूर्ण हो रहे हैं. ताज़ियों की संख्या और भव्यता में बहुत इजाफा हुआ है. कर्बला जाने वाले ताजियों के पीछे बहुत भीड़ जाती हैं. शब बरात की रात मुसलमानों की भीड़ का बाहर निकलना और इतनी व्यापकता में लड़कों का हुड़दंगें मचाते घूमना चौंकाता है. यह देखना बहुत महत्वपूर्ण है कि यह सब कुछ, दोनों समाजों, धर्मों के मध्य, उच्च मध्य और उच्च वर्ग में है. निम्न वर्ग के हिन्दुओं और मुसलमानों में पारस्परिक साझा जीवनशैली अभी बची है. वहाँ भूख, गरीबी से लडऩे की जद्दोदजहद ज्यादा बड़ी है. ये मसले वहां के सामान्यत: नहीं है, या फिर आधुनिक शिक्षा, जीवन शैली, जागृति और वैश्विक बोध के युवाओं में नहीं हैं, पर ये दोनों ही वर्ग चीजों को नियन्त्रित नहीं करते. कहीं इनकी संख्या बहुत कम है, कहीं प्रभाव और कहीं इच्छा शक्ति.


धर्म का बढ़ाया जाता आवेग, उत्तेजना हमेशा एक उन्मादी, राष्ट्रवाद में समाहित किया जाता है. इसमें महान अतीत, महान पुस्तकें, महान संस्कृति, महान नायक जैसे तत्वों को जोड़कर एक संस्कृति, एक इतिहास गढ़ा जाता है. वास्तव में संस्कृति तभी बनती है जब धर्म, इतिहास और राष्ट्रवाद को एक कर दिया जाता है. यह भी बहुत साफ दिखने वाले तरीके से नहीं किया जाता. इस कोशिश पर कुछ और मुलम्मे चढ़ाएं जाते हैं. इसे कुछ आकर्षक शब्दों से अलंकृत किया जाता है. अन्य के लिये घृणा और हिंसा को जन्म देने वाले झूठे तथ्य और कुर्तक गढ़े जाते हैं. यह सब इतनी सावधानी से किया जाता है कि मनुष्य या कि नागरिक अपने सांस्कृतिक वर्चस्व के लिये अपनी स्वतंत्रता का त्याग करके किसी विचारधारा या व्यक्ति तक की गुलामी को तैयार हो जाता है. ऐसे गुलाम पैदा करना ही अन्तत: राज्य, धर्म, समाज और पूंजी का अन्तिम लक्ष्य होता है, जो उनकी अमानवीय सत्ता को भी विश्वास और श्रद्धा को साथ देखे. मुसोलिनी कहता था ''फ़ासिज्म, जो अपने को प्रतिक्रियावादी कहे जाने से नहीं डरता, खुद को स्वतंत्रता विरोधी कहलाए जाने से भी नहीं हिचकिचाता है.'' एक ढीली ढाली, निष्प्रभावी, अकर्मण्य, अस्थिर, लोकतांत्रिक व्यवस्था और सरकार, सत्ता केन्द्रों में बैठे लोगों को सबसे ज्यादा पसन्द है. जब तक वे इस व्यवस्था को लोकतंत्र का छद्म आवरण दे कर चला सकते हैं, चलाते हैं. इसकी महिमा को मंडित करते हैं. मतदाताओं को उनके अधिकार, उनकी शक्तियों, उनकी भूमिका की मरीचिका में डुबोए रखते हैं. जब यह व्यवस्था इतनी निकम्मी और भ्रष्ट हो जाती है, इतनी सड़ जाती है कि उनके हित साधने में भी असमर्थ हो जाती है, तब वे इसके आवरण में एक तानाशाही या तानाशाह लाते हैं. ध्यान देना ज़रूरी है कि तानाशाह हमेशा निकम्मे, भ्रष्ट, दम तोड़ते लोकतंत्र से जन्म लेता हैं. ऐसे ही मुसोलिनी आया था. ऐसे ही हिटलर आया था. वे अपने आप नहीं टपक पड़े थे. उन्हें पूरी रणनीति के साथ लाया गया था. हिटलर को लाने में उन सब राष्ट्रों, व्यक्तियों की बड़ी भूमिका थी जो बाद में उसके खिलाफ संगठित होकर लड़े. पहले सबने उससे संधियां की थीं या करने की कोशिश की थीं. मुल्कों के इतिहास यही हैं. उनके बनने बिगडऩे के इतिहास भी यही हैं. उनके बंटने या जुडऩे के इतिहास यही हैं. सद्दाम, ओसामा, गद्दाफी सब इन पूंजीवादी मुल्कों के प्रिय रहे थे, फिर अचानक ये 'मानवता विरोधी', 'तानाशाह' बताकर कत्ल कर दिए गए. जब तक ये उनका हित साधते रहे, दोषरहित थे. बाद में एक महान, लोकतांत्रिक, उदार, मानवतावादी दृष्टिकोण, व्यवस्था और विश्व के लिये संगठित होकर उनकी क्रूर हत्याएं कर दी गयीं.

(2)

रात गहरा रही है. उदासी और थकान भी. कुछ दिन पहले मकबूल साहब ने कहा था कि आँखें और कमजोर हो गयी हैं, नया चश्मा बनवा लीजिए. शायद वही थकान है. चश्मा उतार कर रख देता हूँ. सामने इमारत के पीछे से चाँद निकल रहा है. अभी वह ज़र्द है, रोशनी अफ़सुर्दा है. अभी यह गंगा के किनारे पूरा दिख रहा होगा. यह रोशनी अभी ययाति के टीले पर, जाजमऊ की टेनरियों के चमड़े के ढेरों पर, किनारे पड़ी उल्टी नावों की दरारों पर गिर रही होगी. अभी चाँद और उठेगा. तब यह रोशनी 'चमेली के मंडुए तले प्यार की आग में जलने वाले दो बदनों पर गिरेगी'. 'मन्दिरों के किवाड़ों, मयकदों की दरारों, मस्जिदों की मीनारों' पर गिरेगी. अभी चाँद और उठेगा. यह 'बेवा के शबाब' की तरह उठेगा. यह 'मुफ़लिस की जवानी' की तरह उठेगा. 'मुल्ला के अमामा बनिए की किताब' की तरह उठेगा. जैसे जैसे यह उठेगा इसकी रोशनी बढ़ेगी. ज़र्द में चमकदार होगी. किसी ज़ीने पर रुकेगी, किसी सीने पर रुकेगी.

अव्वले शब चाँद जहाँ ठहरा था
आज ठहरा है उसी ज़ीने पर
आओ सो जाओ मेरे सीने पर

रात गहरा रही है. उदासी और थकान भी. रंज़ो ग़म, दर्दों अलम, यास, तमन्ना, सोज़ो गुदाज, दिल में आठों का मेला लग चुका है. गहरे सन्नाटे में सुबह की ओर रेंगती रात की हर साँस, हर आहट सुनायी दे रही है. न परियाँ है, न नींद, न ख्वाब.

ये साँस लेती हुयी कायनात ये शबे-माह
ये पुरसुकूँ ये पुरअसरार ये उदास समाँ
ये नर्म-नर्म हवाओं के नीलगूँ झोंके
फ़ज़ा की ओट में मुर्दों की गुनगुनाहट हैं
ये रात मौत की बेरंग मुस्कराहट है
धुँआ-धुँआ से मनाज़िर तमाम नमदीदा
खुनुक धुँदलके की आँखें भी नीम-खाबीदां
सितारे हैं कि जहाँ पर है आँसुओं का कफ़न
हयात पर्दा-ए-शब में बदलती है पहलू
कुछ और जाग उठा आधी रात का जादू
ज़माना कितना लड़ाई को रह गया होगा
मेरे ख्याल में अब एक बज रहा होगा.

ऐसा कम होता है जब रमजान और नवरात्रि के कुछ दिन साथ पड़ जाते हैं, उस साल ऐसा ही हुआ था. सुबह कभी-कभी मैं पैदल घूमने की जगह साइकिल चलाता था. उस दिन साइकिल पर था. अन्धेरा खत्म ही हो रहा था. रोशनी फूटने वाली थी. परेड चौराहे पर सड़क के एक ओर लड़कियाँ नंगे पाँव, बाल खाले, माँ का जयकारा बोलती जा रही थीं. दूसरी ओर से सहरी के बाद मुसलमान लड़कों के झुंड सड़क पर निकल आए थे. दोनों के बीच सड़क का डिवाइडर था. एक ओर प्रार्थना थी दूसरी ओर नमाज. एक ओर प्रसाद था दूसरी ओर सहरी का खाना था, एक ओर माथे पर गोटे सजी चुनरी, नंगे पाँव, खुले बाल थे, दूसरी ओर छोटी जालीदार टोपी, पायजामा, कुर्ता था. एक ओर माँ दुर्गा थीं दूसरी ओर परवरदिगार अल्लाह था. मैं साइकिल पर चौराहे से निकला. बारह चौदह साल के दुबले पतले मुसलमान लड़के ने आवाज़ देकर मुझे रोका, 'चचा... बैठ जाऊँ? सुनहरी मस्जिद तक छोड़ देना' मैंने इशारा किया. वह पीछे कैरियर पर दोनों तरफ एक एक पैर लटकाकर बैठ गया. तभी एक लड़की वहाँ से हरे रंग के कपड़ें पहने गुजरी. लड़के ने उसे देखा और बोला - 'घर जाओ, नहीं तो बुक़रिया चर जाएगी.'

लड़की हंसी. लड़का हंसा. मैं भी हँसा और पैडल मारता हुआ सुनहरी मस्जिद की ओर चल दिया.


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'रवीन्द्रनाथ', 'मखदूम', 'मजाज़', 'राही मासूम रज़ा' और 'फिराक' की शाइरी के कुछ अंश/पद लिये गए हैं. उनका उल्लेख लेख में इसलिए नहीं है कि लेख की लय न टूटे. शीर्षक अकबर इलाहाबादी की ग़ज़ल के शेर से लिया गया है. पूरा शेर इस तरह है–


सूरज में लगे धब्बा फितरत के करिश्में है
बुत हमकों कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है.

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