Sunday, December 25, 2016

'दंगल' का एक उम्दा रिव्यू

यह रिव्यू शानदार कहानियाँ लिखने वाले चंदन पाण्डेय ने लिखा है और इसे बाज़ार ब्लॉग से साभार लिया गया है.


न खाता न बही, जो पापा बोले वही सही!

अमूमन कहानियां तीन तरह से कही जाती हैं. पहला तरीका, सत्य घटनाओं का अपनी दृष्टि के मद्देनजर सीधा सच्चा बयान. दूसरा, आद्यांत कपोल कल्पना. तीसरा, सत्य घटनाओं से कुछ हिस्से उठाकर उसे समाजपयोग के लिए मन-माफिक मोड़ देना. यह तीसरा तरीका ही ज्यादातर किस्सागो अपनाते हैं. इसे समाजपयोग के लिए बनाने का काम दरअसल लेखक की सोच, उसकी तैयारी और समाज के प्रति उसकी प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है. दंगल फिल्म तीसरे तरीके से कही गई कथा है. राष्ट्रकुल खेलों में गीता फोगाट को मिला गोल्ड इस फिल्म की प्रस्थान बिंदु है. महावीर फोगाट के संघर्षों को समेट पाने में नितांत असफल यह फिल्म देशभक्ति के खोल में लिपट जाती है.

सौरभ दुग्गल ने महावीर फोगाट की जीवनी लिखी है, जिससे यह फिल्म उठाई गई है, उस जीवनी में महावीर के आतंरिक, सामाजिक और घरेलू संघर्षों का जितना बढ़िया और सटीक वर्णन है, यह फिल्म उस पूरे संघर्ष का शतांश भी नहीं पकड़ पाती. उस असफलता के कारण फिल्म देशभक्ति का आसान रास्ता पकड़ लेती है और वह पूरा संघर्ष एक मामूली कथा में बदल दिया गया है, जिसे फिल्म के शुरू में ही बता दिया जाता है कि - इस फिल्म में गीता और महावीर के जीवन को 'फिक्शनलाईज' किया गया है. यह वो 'फिक्शन' वाला हिस्सा ही है जो पुरातनपंथी है.

दंगल से पहले 'तारे जमीन पर' का जिक्र करते हैं. उस फिल्म में भी एक पिता है जिसके अपने बच्चों से अरमान असीम हैं, बड़ा बेटा सफल होता दीखता है लेकिन छोटा अपने अलग मिजाज का है, वह पिता के अरमानों पर पानी फेरते रहता है. फिर पिता और स्कूल की क्रूरताएं हैं. वहाँ, आमिर खान के रूप में एक शिक्षक आता है. वह छोटे बेटे को नई राह दिखाता है. यहाँ बात पिता बनाम शिक्षक नहीं है. ऐसा होता भी नहीं. किसी के भी जीवन में शिक्षक का एक किरदार होता है, जिसकी एक सीमा होती है, उसी तरह पिता का भी किरदार अपनी सीमाओं को लिए रहता है. मुख्य बात यह होती है कि जीवन में आपकी दिलचस्पी कौन जगा पाता है. वह दिलचस्पी ही बहुधा जीवन के रास्ते तय करती है, मिलने वाले लोग तय करती है. तारे जमीन पर फिल्म वह दिलचस्पी चित्रकारी के रूप में शिक्षक जगाता है और दंगल, कुश्ती के रूप में, यह काम गीता और बबीता की वह सहेली करती है, जिसकी शादी में वो दोनों गयी होती हैं. वरना उसके पहले तो पिता की लाख कोशिशों के बावजूद दोनों बहनें कुछ भी सीखने को राजी नहीं.

असल जीवन से उलट फिल्म में पिता का सपना कुश्ती को लेकर कम, देश के लिए मेडल लाने को लेकर अधिक है. एक भौतिक सफलता: जैसा कि अमूमन भारतीय पिताओं का स्वप्न होता है. यही वो पहलू है जहाँ महावीर फोगाट के जीवन संघर्ष को हल्का कर दिया गया है. कुश्ती के लिए, एक कला के लिए, समर्पित इंसान को, व्यवसायिक फायदे के लिए देशभक्ति के चासनी में डुबो दिया गया है. और देशभक्ति की चाशनी जब सबको नजरबन्द कर लेती है तो शुरू होता है: एजेंडा सेटिंग. न खाता न बही, जो पापा बोले वही सही, वाले फॉर्मूले पर फिल्म बढ़ निकलती है. यह परिवार व्यवस्था का सबसे बड़ा हथियार है कि पिता ने जो कह दिया वो सही है. यह फिल्म उन सभी पिताओं को तर्क देती है कि पिता ही बच्चों का भविष्य बनायेगा और इसके लिए हर तरह का शासन सही माना जाएगा.

इस फिल्म में सबसे पहले तो विराट जीवन को 'महान भारतीय परिवार' वाली फॉर्मूला कहानी में बदल दिया गया है और फिर मनमाफिक खलनायक भी चुन लिए गए हैं. जैसे, कोच. गिरीश कुलकर्णी ने उस पतित आदमी के किरदार को जबर्दस्त निभाया है लेकिन उस किरदार के लिखावट/बनावट पर गौर करें तो पाएंगे कि आमिर यानी पिता के चरित्र को मजबूत बनाये रखने ( यानी परिवार ही सही है) के लिए कोच के किरदार को लगातार गलत दर गलत दिखाया गया है. अंततः वह किसी भुनगे की माफिक दीखता है. अच्छे कोच की तो जाने दीजिए, खराब से खराब कोच भी इतने जुगाड़-जतन से अपना पोजिशन बरकरार रखता है कि एक खिलाड़ी के पिता से उसे कोई खतरा हो ही नहीं सकता.

कहानी यों बनाई गयी है कि जहाँ जहाँ गीता ने अपने पिता की बात मानी है, वहाँ वहाँ वो सफल हुई है. और पिता भी अपनी सारी बात देशभक्ति के रसे में भिंगो कर कहता है. देशभक्ति के नाम पर इस फिल्म में अनुशासन को हंसने वाली चीज बना दी गयी है. कुश्ती ही नहीं दुनिया के सारे खेल पर्याप्त लगन और अनुशासन की मांग रखते हैं. फिल्म का इरादा जो भी रहा हो, सन्देश यही देती है फिल्म कि पिता नाम की सत्ता ही आपके अच्छे बुरे का ख्याल रख सकती है.

फिल्म का सर्वश्रेष्ठ हिस्सा है जो पिता और बेटी का द्वन्द दिखाता है, नया बनाम पुराना का आदिम द्वन्द. अंततः यह द्वन्द पिता और पुत्री को आमने सामने कर देता है. अखाड़े में. पिता को यह अखर जाता है कि उसके ही अखाड़े में उसकी ही बेटी नए सीखे दाँव आजमा रही है. वो खुद बेटी को कुश्ती लड़ने की चुनौती देता है, और अभी बेटी तैयार भी नहीं होती है कि उसे उठाकर पिता पटक देता है. बेटी, जो कि खिलाड़ी पहले है और बेटी बाद में, कहती है, पापा मैं तैयार नहीं थी. तब पिता फिर ललकारता है. बेटी तैयारी से लड़ती है और पिता को चित्त कर देती है. यह फिल्म का सर्वाधिक प्रशंसनीय हिस्सा है.

पिता भी खिलाड़ी रहा है, उसका मान सम्मान के लिए लड़ना समझ में आता है. कोई भी लड़ जाएगा. लेकिन ठीक इस दृश्य के बाद फिल्म को रसातल में ले जाने की कवायद लिख दी जाती है. जीतने वाली बेटी को शर्मिन्दा कराया जाता है, पिता की उम्र हो गयी है, वो बड़े हैं, उन्होंने इतना कुछ किया है..मार तमाम..आशय यह कि गीता को अपने पिता को हराना नहीं चाहिए था.

आमने सामने के जोर में हारने के बाद पिता फिर से भारतीय पिता बन जाते हैं. रखवाला, सबसे बड़े ज्ञानी, स्ट्रैटजिस्ट.... कहानी में यह भी लिख दिया गया है कि महावीर यानी आमिर न मौजूद हों तो बेटी एक भी दाव सही लगा ही नहीं सकती. और हर बात में वही तर्क: देश के लिए मैडल लाना है. सोल्जर बोल दिया, आर्गुमेंट ख़त्म. क्योंकि तर्क खत्म हो गए इसलिए कोई नहीं जानना चाहता कि महावीर फोगाट का संघर्ष देश के लिए मैडल लाने से बहुत ऊपर का संघर्ष था, वरना जिस खेल में जिस वर्ष गीता को स्वर्ण पदक मिला, उसी वर्ष अलका तोमर को 59 किलो वर्ग और अनीता श्योराण को 67 किलो वर्ग में स्वर्ण पदक मिला था.


आशय यह कि अगर इस फिल्म को गीता फोगाट और महावीर फोगाट के नाम पर न बेचा गया होता और हर दूसरा डायलॉग देश के लिए मैडल लाने से सम्बंधित न होता तो यह फिल्म अपने सच्चे रूप में दिखती. लेकिन, ऊपर कहे गए दोनों तथ्यों के जरिए नजरबंदी कर दी गयी है और फिर,पूरी फिल्म एक आदर्श और देवतुल्य पिता पर लिखा निबंध हो कर रह गयी है. भारत के नए पिताओं के लिए यह डूबते तिनके का सहारा बन कर आई है जिसके मार्फ़त वो अपने बच्चों पर धौंस दोगुनी कर सकें. जो पापा बोले वही सही. जो परिवार बोले वही सही. वरना, सोल्जर बोलकर बहस ख़त्म कर दी जायेगी और निर्णय लाद दिए जाएंगे.

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