प्रतिभा
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कवि
और सुनहरी मछली का किस्सा. कहते हैं कि किसी अभागे कवि ने कास्पियन सागर में एक
सुनहरी मछली पकड़ ली.
'कवि, कवि, मुझे सागर में छोड़
दो,' सुनहरी मछली ने मिन्नत की.
'तो इसके बदले में तुम मुझे क्या दोगी?'
'तुम्हारे दिल की सभी मुरादें पूरी हो जाएँगी.'
कवि
ने खुश होकर सुनहरी मछली को छोड़ दिया. अब कवि की किस्मत का सितारा बुलंद होने
लगा. एक के बाद एक उसके कविता-संग्रह निकलने लगे. शहर में उसका घर बन गया और शहर
के बाहर बढ़िया बँगला भी. पदक और 'श्रम-वीरता के लिए'
तमगा भी उसकी छाती पर चमकने लगे. कवि ने ख्याति प्राप्त कर ली और
सभी की जबान पर उसका नाम सुनाई देने लगा. ऊँचे से ऊँचे ओहदे उसे मिले और सारी
दुनिया उसके सामने भुने हुए, प्याज और नीबू से मजेदार बने
हुए सीख कवाब के समान थी. हाथ बढ़ाओ, लो और मजे से खाओ.
जब
वह अकादमीशियन तथा संसद-सदस्य बन गया था और पुरस्कृत हो चुका था, तो एक दिन उसकी पत्नी ने ऐसे ही कहा -
'आह, इन सब चीजों के साथ-साथ तुमने सुनहरी मछली से
कुछ प्रतिभा भी क्यों नहीं माँग ली?'
कवि
मानो चौंका, मानो वह समझ गया कि इन सालों के दौरान किस
चीज की उसके पास कमी रही थी. वह सागर-तट पर भागा गया और मछली से बोला -
'मछली, मछली, मुझे थोड़ी सी
प्रतिभा भी दे दो.'
सुनहरी
मछली ने जवाब दिया -
'तुमने जो भी चाहा, मैंने वह सभी कुछ तुम्हें दिया.
भविष्य में भी तुम जो कुछ चाहोगे, मैं तुम्हें दूँगी. मगर
प्रतिभा नहीं दे सकती. वह, कवि-प्रतिभा तो खुद मेरे पास भी
नहीं है.'
तो
प्रतिभा या तो है, या नहीं, उसे न तो कोई दे सकता है, न ले सकता है. प्रतिभाशाली
तो पैदा ही होना चाहिए.
हमारे
कवि ने,
जिसे सुनहरी मछली ने सभी तरह से खुशहाल कर दिया था, जल्दी ही अपने को हंसों के पंख लगा लेनेवाले कौवे की तरह महसूस करना शुरू
किया. पराये पंखों का सौंदर्य शीघ्र ही खत्म हो गया और उसके अपने पंख भी बहुत कम
रह गए थे. इस तरह कवि पहले की तुलना में भद्दा दिखने लगा.
दोहराने
से प्रार्थना कुछ खराब नहीं हो जाती. इसलिए मैं भी दोहराता हूँ. लिखने के लिए
प्रतिभा का होना जरूरी है और अगर वह सुनहरी मछली के भी पास नहीं, तो उसे कहाँ से हासिल किया जाए?
पिता
जी ने यह बात सुनाई. दूर के किसी गाँव से एक पहाड़ी आदमी पिता जी के पास आया और
अपनी कविताएँ सुनाने लगा. पिता जी ने इस नए कवि की रचनाएँ बहुत ध्यान से सुनीं और
फिर अपेक्षाकृत अधिक कमजोर और बेजान स्थानों की ओर संकेत किया. इसके बाद उन्होंने
पहाड़ी को यह बताया कि वह खुद, त्सादा का हमजात इन्हीं
कविताओं को कैसे लिखता.
'प्यारे हमजात,' पहाड़ी आदमी कह उठा, 'ऐसी कविताएँ लिखने के लिए तो प्रतिभा चाहिए.'
'शायद तुम ठीक ही कहते हो, थोड़ी-सी प्रतिभा से तुम्हें
कोई हानि नहीं होगी.'
'तो यह बताइए कि वह कहाँ मिल सकती है,' हमजात के जवाब
में निहित व्यंग्य को न समझते हुए पहाड़ी ने खुश होकर पूछा.
'दुकानों पर तो मैं आज गया था, वहाँ वह नहीं थी,
शायद मंडी में हो.'
कोई
भी यह नहीं जानता कि आदमी में प्रतिभा कहाँ से आती है. यह भी किसी को मालूम नहीं
कि इसे धरती देती है या आकाश. या शायद वह धरती और आकाश दोनों की संतान है? इसी तरह यह भी कोई नहीं जानता कि इनसान में किस जगह पर वह रहती है - दिल
में, खून में या दिमाग में? जन्म के
साथ ही वह छोटे-से इनसानी दिल में अपना घर बना लेती है या धरती पर अपना कठिन मार्ग
तय करते हुए आदमी बाद में उसे हासिल करता है? किस चीज से उसे
अधिक बल मिलता है - प्यार से या घृणा से, खुशी से या गम से,
हँसी से या आँसुओं से? या प्रतिभा के लिए इन
सभी की जरूरत होती हे? वह विरासत में मिलती है या मानव जो
कुछ देखता, सुनता, पढ़ता, अनुभव करता और जानता है, उस सभी के परिणामस्वरूप वह
उसमें संचित होती है?
प्रतिभा
श्रम का फल है या प्रकृति की देन. यह आँखों के उस रंग के समान है, जो आदमी को जन्म के साथ ही मिलता है, या उन
मांस-पेशियों के समान है, जिनका दैनिक व्यायाम के फलस्वरूप
वह विकास करता है? यह माली द्वारा बड़ी मेहनत से उगाए गए सेब
के पेड़ के समान है या उस सेब के समान, जो पेड़ से सीधा
लड़के की हथेली पर आ गिरता है?
प्रतिभा
- यह तो इतनी रहस्यमयी है कि जब पृथ्वी, उसके अतीत
और भविष्य, सूर्य और सितारों, आग और
फूलों, यहाँ तक कि इनसान के बारे में भी सब कुछ मालूम कर
लिया जाएगा, तभी, सबसे बाद में ही यह
पता चल सकेगा कि प्रतिभा क्या चीज है, वह कहाँ से आती है,
कहाँ उसका वास होता है और क्यों वह एक आदमी को मिलती है और दूसरे
को नहीं मिलती.
दो
प्रतिभावान व्यक्तियों की प्रतिभा एक जैसी नहीं होती, क्योंकि समान प्रतिभाएँ तो प्रतिभाएँ ही नहीं होतीं. शक्ल-सूरत की
समानता पर तो प्रतिभा बिल्कुल ही निर्भर नहीं करती. मैंने अपने पिताजी के चेहरे
से मिलते-जुलते चेहरोंवाले बहुत-से लोग देखे हैं, मगर पिता
जी के समान प्रतिभा मुझे किसी में भी दिखाई नहीं दी.
प्रतिभा
विरासत में भी नहीं मिलती, वरना कला-क्षेत्र में वंशों
का बोलबाला होता. बुद्धिमान के यहाँ अक्सर मूर्ख बैटा पैदा होता है और मूर्ख का
बेटा बुद्धिमान हो सकता है.
किसी
व्यक्ति में अपना स्थान बनाते समय प्रतिभा कभी इस बात की परवाह नहीं करती कि जिस
राज्य में वह रहता है, वह कितना बड़ा है, उसकी जाति के लोगों की संख्या कितनी है. प्रतिभा बड़ी दुर्लभ होती है,
अप्रत्याशित ही आती है और इसीलिए वह बिजली की कौंध, इंद्रधनुष अथवा गर्मी से बुरी तरह झुलसे और उम्मीद छोड़ चुके रेगिस्तान
में अचानक आनेवाली बारिश की तरह आश्चर्यचकित कर देती है.
कैसे
मैंने एक दोस्त खो दिया. एक दिन मैं अपनी मेज पर बैठा काम कर रहा था कि एक जवान
घुड़सवार मेरे घर आया.
'सलाम अलैकम.'
'वालैकम सलाम.'
'रसूल, मैं तुम्हारे पास एक छोटी-सी प्रार्थना लेकर
आया हूँ.'
'भीतर आकर अपनी प्रार्थना मेज पर रख दो.'
नौजवान
ने जेब में हाथ डाला और सचमुच ही कुछ कागज निकालकर मेज पर रख दिए. पहला कागज मेरे
पिता जी के परम मित्र और मेरे यहाँ भी अक्सर आनेवाले व्यक्ति का पत्र था. हमारे
घर और परिवार के मित्र ने लिखा था -
'प्यारे रसूल, यह नौजवान हमारा नजदीकी रिश्तेदार और
बहुत भला आदमी है. इसे अपने जैसा विख्यात कवि बनने में मदद दो.'
बाकी
कागज थे - ग्राम-सोवियत का प्रमाण-पत्र, सामूहिक
फार्म का प्रमाण-पत्र, पार्टी-संगठन का प्रमाण-पत्र और योग्यता-पत्र.
ग्राम-सोवियत
के प्रमाण-पत्र में लिखा था कि फलाँ-फलाँ वास्तव में ही काहाब-रोस्सो के मशहूर
शायर महमूद का भतीजा है और ग्राम-सोवियत के मतानुसार प्रसिद्ध दागिस्तानी कवियों
की पंक्ति में स्थान पाने का बहुत ही योग्य उम्मीदवार है.
दूसरे
प्रमाण-पत्रों में यह बताया गया था कि महमूद का भतीजा पचीस साल का है, कि वह नवीं कक्षा तक पढ़ा है और बिल्कुल स्वस्थ है.
'बहुत खूब,' मैंने कहा, 'लाओ,
दिखाओ अपनी रचनाएँ. मुमकिन है कि तुम सचमुच प्रतिभाशाली हो और वक्त
आने पर प्रसिद्ध कवि बन सकोगे. मुझसे जो कुछ भी हो सकेगा, हर
तरह से तुम्हारी मदद करूँगा और इस तरह हमारे साझे मित्र की प्रार्थना भी पूरी हो
जाएगी.'
पर
यह तुम क्या कह रहे हो? मुझे तो तुम्हारे पास भेजा
ही इसीलिए गया है कि तुम मुझे कविता लिखनी सिखाओ. मैंने तो अब तक कभी कविता नहीं
रची.'
'तो तुम करते क्या हो?'
'सामूहिक फार्म में काम करता हूँ. मगर इस काम से कुछ भी बनता-बनाता नहीं.
श्रम-दिवस लिख लेते हैं, पर बाद में कुछ देते-दिलाते नहीं.
कुनबा हमारा बड़ा है. इसीलिए मुझे कवि बनाने की बात सोची गई है. मुझे मालूम है कि
मेरे चाचा महमूद काफी कमाते थे, जितना मैं सामूहिक फार्म में
कमाता हूँ, उससे कहीं ज्यादा. कहते हैं कि रसूल, तुम भी खासे पैसे पाते हो.'
'मुझे लगता है कि बहुत चाहने पर भी मैं तुम्हें कवि नहीं बना सकूँगा.'
'यह तुम क्या कहते हो? मैं तो महमूद का भतीजा हूँ.
प्रमाण-पत्र में सब कुछ लिखा हुआ है? ग्राम-सोवियत भी मेरा
समर्थन करती है और पार्टी-संगठन भी.'
'अगर तुम महमूद के बेटे भी होते, तब भी मैं कुछ न कर
पाता. जैसा कि सभी जानते हैं, महमूद का बाप लकड़ी का कोयला
बनाता था, कवि नहीं था.'
'तो बताओ, यह भी कोई इंसाफ है? तुम
कवि और लेखक यहाँ मखचकला में साहित्य का चर्बीवाला धड़ आपस में बाँट लेते हो. क्या
मुझे कुछ अंतड़ियाँ भी नहीं मिल सकतीं? मैं अंतड़ियों के लिए
भी राजी हूँ. तो मैं अब क्या करूँ? मुझे कहीं अच्छी नौकरी
पाने में मदद करो. मेरे प्रमाण-पत्र बिल्कुल ठीक-ठाक हैं.'
महमूद
का भतीजा होने के नाते हमने साहित्यिक-कोश से उसकी कुछ माली मदद कर दी और फिर मेरी
प्रार्थना पर दागिस्तान बिजली मशीन कारखाने के डायरेक्टर ने उसे अपने यहाँ नौकरी
दे दी.
मगर
लोकप्रिय कवियों की पंक्ति में जगह पाने के इस उम्मीदवार को अपने भाग्य से संतोष
नहीं हुआ. कुछ ही समय बाद उसके पिता ने, जो हमारे
मित्र थे, नाराजगी का यह पत्र भेजा -
'तुम्हारे पिता हमजात मेरी सभी प्रार्थनाएँ हमेशा पूरी करते थे. उन्होंने
मुझे कभी किसी चीज के लिए इनकार नहीं किया था. मगर तुमने, हमजात
के बेटे ने मेरा ऐसा छोटा-सा अनुरोध कि मेरे बेटे को कवि बना दो, पूरा करने से भी इनकार कर दिया. लगता है कि रसूल, तुम्हें
घमंड हो गया है. तुम अपने बाप जैसे नहीं हो. मैंने कभी भी अपने दोस्तों से नाता
नहीं तोड़ा, मगर अब ऐसा करना पड़ रहा है. बस, खत्म.'
तो
इस तरह प्रतिभा के कारण या यह कहना अधिक सही होगा कि प्रतिभा के अभाव के कारण मैं
एक अच्छा मित्र गँवा बैठा. मेरा मित्र सचमुच ही अच्छा आदमी था, पर सिर्फ इतना ही नहीं समझता था कि कोई भी, चाहे वह
लेखक-संघ का अध्यक्ष, चाहे पार्टी-संगठन का सेक्रेटरी,
चाहे सरकार का अध्यक्ष ही क्यों न हो, वैसे
ही प्रतिभा नहीं बाँट सकता है, जैसे मेज पर रखी, भुनी हुई गर्मा-गर्म भेड़ के मांस के टुकड़े मेज के चारों और बैठे पहाड़ी
लोगों में बाँटे जाते हैं.
या
फिर दागिस्तान के रास्तों पर जाते हुए हम माल से लदी बैलगाड़ी को ऊपर चढ़ते
देखते हैं. एक आदमी उसे ऊपर की ओर खींचने में मदद देता है और दूसरा पीछे से धकेलता
है.
या
फिर हम भारी ट्रक द्वारा बर्फ के ढेर में फँसी छोटी-सी 'मोस्कवीच' कार को रस्से से अपने पीछे बाँधकर
खींचते हुए देखते हैं.
या
फिर हमें यह नजर आता है कि तंग पहाड़ी रास्ते पर धीरे-धीरे चलनेवाली भारी ट्रक
तेज कार को किसी भी तरह आगे नहीं निकलने देती.
प्रतिभा
बैलगाड़ी नहीं है, जिसे दो आदमी मिलकर धकेल सकते
हैं या आगे खींच सकते हैं; प्रतिभा 'मोस्कवीच'
कार भी नहीं है, जिसे रस्सा बाँधकर खींचा जाए;
प्रतिभा वह कार भी नहीं है, जो अपने लिए रास्ता
बनाकर आगे न निकल सके.
प्रतिभा
को पीछे से धकेलने की जरूरत नहीं होती और हाथ पकड़कर उसे आगे बढ़ाने की भी आवश्यकता
नहीं पड़ती. वह खुद अपना रास्ता बना लेती है और खुद ही सबसे आगे पहुँच जाती है.
मगर
बहुत-से ऐसे लोग हैं, जो यह उम्मीद लगाए रहते हैं
कि उन्हें या तो पीछे से धकेला जाए या आगे की ओर खींचा जाए. लीजिए, यह रहा छोटा-सा एक और किस्सा, जिसे निम्न शीर्षक दिया
जा सकता है -
बेशक
बूढ़ी,
मगर प्रतिभाशाली हो. जब मैं मास्को के साहित्य-संस्थान में पढ़ता
था, तो अनेक रूसी कवियों से, जो उसी
संस्थान के विद्यार्थी थे, मेरी दोस्ती हो गई. वे मेरी
कविताओं का अनुवाद करने लगे. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ये अनुवाद छपने लगे.
रूसी अनुवादों की बदौलत दागिस्तान की अन्य जातियों के लोगों ने भी मेरी कविताएँ
पढ़ीं.
उन
सालों में कुछ ऐसे लोग थे, जो बेकार यह बक-बक किया करते
थे कि रसूल हमजातोव तो अवार भाषा में कविता रच ही नहीं सकता, कि प्रतिभाशाली रूसी अनुवादक उसका नाम पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं और
यह कि वह रूसी पाठकों की रुचि के अनुसार ही कविता रचता है.
इसी
सिलसिले में मुझे अक्सर एक दागिस्तानी कवि की याद आ जाती है. दागिस्तान में तात
नाम की एक छोटी-सी जाति है. इस जाति के लोगों की कुल संख्या पंद्रह हजार से अधिक
नहीं होगी. फिर भी पाँच-छह ऐसे तात लेखक हैं, जो सारे
दागिस्तान में प्रसिद्ध हैं. उनकी किताबें मखचकला में मातृभाषा में भी छपती हैं
और उनके रूसी अनुवाद भी प्रकाशित होते हैं. मैं एक तात कवि की ही चर्चा करना चाहता
हूँ. उसका नाम बताना जरूरी नहीं है.
मास्को
के साहित्य-संस्थान की पढ़ाई समाप्त कर मैं अपने मखचकला में वापस आ गया था.
मेरे लौटने के कुछ ही दिन बाद उक्त तात कवि ने मुझे आमंत्रित किया. उसने जनावृत
स्थान पर मेरी दावत की. हमारे सामने था दूर-दूर तक फैला हुआ कास्पियन सागर और फिर
एक-एक शब्द का रूसी में अनुवाद करता ताकि उसकी कविता के भाव मेरी समझ में आ जाएँ.
यह
ध्यान में रखते हुए कि मैं मेहमान हूँ और वह मेजबान; यह ध्यान में रखते हुए कि कहीं वह यह न समझे कि मैं मास्को में प्राप्त
अपने ज्ञान की डींग मारना चाहता हूँ; यह भी ध्यान में रखते
हुए कि सभी कवि आलोचना की तुलना में प्रशंसा अधिक पसंद करते हैं; यह भी दृष्टि में रखते हुए कि किसी तरह की आलोचना से भी उसे कोई लाभ नहीं
होगा; और अंत में इस बात को भी ध्यान में रखते हुए कि उसने
मेरी हर कविता और हर पंक्ति की तारीफों के पुल बाँधे हैं. मैं बड़ी बेहयाई से उसकी
सभी कविताओं की प्रशंसा करता रहा.
यह
सच है कि उसकी कुछ कविताएँ मुझे पसंद भी आई और मैंने दिल से उनकी तारीफ की. मगर
कुछ कविताएँ मुझे अचछी नहीं लगीं और उनके मामले में मैंने बेईमानी से काम किया.
हाँ,
उसी वक्त मैंने मन ही मन कास्पियन सागर की लहरों की तरफ अपनी
भुजाएँ फैला दीं, उनके सामने घुटने भी टेके और कहा - 'मेरा यह झूठ क्षमा करना.' इसके बाद मैं मन ही मन
पहाड़ों की तरफ मुड़ा, उनकी सफेद हिम-मढ़ित चोटियों की ओर
बाँहें फैलाई, उनके सामने घुटने टेके और कहा - 'मेरा यह झूठ क्षमा करना.'
एक-दूसरे
को अपनी कविताएँ सुनाने और एक-दूसरे की तारीफ करने के बाद हम कुछ देर तक चुप रहे.
मैं सागर का संगीत सुनता रहा और मेरा दोस्त, जैसा कि बाद
में सिद्ध हुआ, अपने ख्यालों में खोया हुआ था. आखिर उसने यह
बातचीत शुरू की -
'रसूल, मैं एक बहुत ही जरूरी मामले में तुम्हारी राय
लेना चाहता हूँ. मगर वादा करो कि किसी से इसका जिक्र नहीं करोगे.'
मैंने
वादा किया.
'यह तो तुम जानते ही हो कि तात जाति के हम लोगों की संख्या बहुत कम है.
इसलिए मुझे और मेरी कविताओं को घुटन-सी महसूस होती है. तुम ठीक करते हो कि मास्को
में अपने पाठक खोजते हो. मैं तुम्हारा ही अनुकरण करना चाहता हूँ, जाकर मास्को रहना चाहता हूँ. मगर मेरे तो वहाँ न रिश्तेदार हैं, न दोस्त और न जान पहचानवाले ही. सिर छिपाने की जगह भी नहीं है. तुम्हारा
क्या खयाल है, अगर मैं अपनी किताब के लिए मिलनेवाले पैसे
लेकर मास्को चला जाऊँ, तो क्या वहाँ रहने को कोई ढंग की
जगह मिल जाएगी?'
'क्यों नहीं मिल जाएगी? जेब में पैसे हों, तो कमरा किराए पर लिया जा सकता है.'
'मेरा यह मतलब नहीं था. वहाँ मुझे बीवी मिल जाएगी या नहीं? बेशक वह बूढ़ी हो, बदसूरत हो, कैसे
भी क्यों न हो, मगर प्रतिभाशाली हो, रूसी
भाषा में मेरी कविताओं का अनुवाद कर सके, मेरी रचनाओं को
लोगों तक पहुँचा सके. बाद में, अपने पैरों पर खड़े हो जाने
के बाद तो मैं अपना रास्ता ढूँढ़ लूँगा. इसके बिना तो मैं जातीय कूपमंडूक ही बनकर
रह जाऊँगा.'
मैंने
एक बार फिर से उसे बहुत गौर से देखा. जिंदगी की आग से दहकता हुआ पचीस साल का तगड़ा
काकेशियाई जवान था वह. बड़े-बड़े हाथ और उँगलियाँ बालों से ढकी हुईं, छाती के बाल दीवार में ठुकी हुई कीलों की तरह कड़े, साँवले,
लगभग गेहुँआ चेहरे पर मोटे-मोटे होंठ और झील की तरह नीली आँखें. सिर
साही जैसा लगता था, दाँत बड़े-बड़े और सफेद थे और टाँगे
लट्ठों जैसी थीं. सारे शरीर पर मांसपेशियाँ उभरी हुई थी. आदिम मानव का अच्छा
नमूना-सा था वह. कई लाख की आबादीवाले शहर में, सो भी युद्ध
के बाद के तीसरे साल में, इसे क्या कठिनाई हो सकती थी बीवी
हासिल करने में. मैंने उसे जवाब दिया -
'तुम तो बस, सड़क के बीच खड़े होकर सीटी बजा देना और
तब देखना कि बीवियाँ, जैसी भी तुम चाहो, कैसे भागी आती हैं.'
मेरा
दोस्त एक बच्चे की तरह खिल उठा. वह हाथों के बल खड़ा हो गया और इसी तरह हाथों पर
चलता हुआ पानी में, सागर में चला गया. तैरने से
पहले उसने इतना और पूछा -
'तुम क्या सलाह देते हो - हवाई जहाज से मुझे मास्को जाना चाहिए या गाड़ी
से?'
छह
महीने बीत गए. टोपी पर से नम बर्फ झाड़ते हुए मैं 'मोलोदाया
ग्वार्दिया' (तरुण गार्ड) प्रकाशन गृह की चौथी मंजिल की
सीढ़ियाँ चढ़ रहा था कि सामने से मुझे बड़ा-सा थैला बगल में दबाए वही तात कवि नीचे
उतरता दिखाई दिया, जिसने कास्पियन सागर के तट पर मेरी दावत
की थी. सबसे पहले तो इस बात की तरफ मेरा ध्यान गया कि वह बाकी लेखकों की तरह थैला
हाथ में नहीं उठाए था, बल्कि लेखपालों और खजांचियों की तरह
बगल में दबाए था. मैंने यह भी नोट किया कि आध साल में वह बहुत बदल गया है. साही
जैसे बाल लंबे हो गए थे और उनमें ढंग से चीर निकला हुआ था. गालों पर दिसंबरवादियों
जैसी कलमें थीं. कनिष्ठा उँगली का नाखून नुकीला था और संगीन जैसा लगता था. दूसरी
उँगली में नगवाली अँगूठी थी. टाई की जगह गुबरैले के पंखों जैसा कुछ लगा था. लक-दक,
बना-ठना. सलाम-दुआ के बाद उसने मेरी टाई ठीक की, जो शायद एक तरफ को खिसक गई थी. जाहिर है कि इसके लिए मैंने उसका शुक्रिया
अदा किया.
अहमद
ने अपनी बीवी से मेरा परिचय कराया.
'बड़ी खुशी हुई,' उसने कहा और अपनी तीन उँगलियाँ मेरी
तरफ बढ़ाईं.
हमारे
दागिस्तान में नारियों का हाथ चूमने की प्रथा नहीं है, इसलिए मैंने धीरे-से हाथ मिलाया. मगर वह दर्द से ऐसे चिल्ला उठी मानो
मैंने उसकी उँगलियों की सारी हड्डियाँ ही कुचल डाली हों.
'मुझ मूढ़ पहाड़ी को क्षमा कीजिए... मैंने तो ऐसा नहीं चाहा था...'
'अब तक कुछ तो तौर-तरीके सीख लेने चाहिए थे,' उसने
बिगड़कर कहा और दर्पण के सामने जाकर ऐसे मुँह बनाने लगी, मानो
वह उसकी शक्ल-सूरत को बेहतर बना सकता हो.
हाँ, वह बूढ़ी भी थी और बदसूरत भी और इतना पाउडर थोपे थी कि उससे दरमियाने आकार
के कमरे में सफेदी हो सकती थी. सबसे ज्यादा अफसोस तो मुझे इस बात का हुआ कि इस
वक्त अबूतालिब यहाँ नहीं था, वरना वह तो जरूर ही इसके बारे
में निशाने पर ठीक बैठनेवाले कुछ बढ़िया शब्द कहता.
कहते
हैं कि लोमड़ी और उसकी दुम से ज्यादा मक्कार और कुछ भी नहीं है. मगर वह रुपहली
लोमड़ी भी कैसी उल्लू रही होगी, जो इस बूढ़ी खूसट के
कालर के काम आई. मेरे दोस्त की बीवी पत्र-पत्रिकाओं के स्टॉल पर चली गई और कुछ
देर को हम दोनों ही रह गए.
'क्या हालचाल है, कैसी जिंदगी चल रही है, दोस्त अहमद?'
'ओ, मैं अपने को उस बैल जैसा महसूस करता हूँ, जिसे मसूर दलने के लिए जोत दिया गया है. मेरी बीवी के हाथ में ही मेरी और
मेरे काम की नकेल है. काश कि तुम्हें मालूम होता कि वह कितनी पढ़ी-लिखी है. बड़ी
ही रोशन दिमाग है. ब्लोक और मायकोव्स्की को व्यक्तिगत रूप से जानती थी.
सेर्गेई येसिनिन की दोस्त रही है. पेरिस हो आई है. खूब बढ़िया अंग्रेजी बोलती है.
हमारे पास चार कमरों का फ्लैट है और उसमें हम दोनों ही रहते हैं. हमारे बच्चे
नहीं हैं. हाँ, तोशिक नाम का जापानी कुत्ता है, बिल्ली से भी छोटा.'
'लगता है कि तुम्हारी किस्मत ने खूब साथ दिया है. इस वक्त कहाँ जा रहे
हो?'
'बाल पत्रिका 'मुर्जील्का' के
लिए कुछ कविताएँ लाया था, मगर ये लोग कहते हैं कि बच्चों की
दृष्टि से कुछ ज्यादा ही गहरी हैं. सोचता हूँ कि किशोर सामूहिक किसानों की
पत्रिका में इन्हें छपने दूँगा. उन्हें ये कविताएँ पसंद आई हैं, सिर्फ इनमें 'सामूहिक फार्म' शब्द
जोड़ना होगा. आज शाम को ऐसा करके कल फिर वहाँ ले जाऊँगा... हाँ, रसूल, ऐसे ही काम करना और जीना चाहिए... मेरी बीवी
मुझसे कहा करती है कि चलना सीखने से पहले बच्चे भी घुटनियाँ चलते हैं. बाद में
मैं भी कोई बढ़िया चीज लिख डालूँगा.'
'अल्योशा,' उसकी बीवी ने लौटते हुए प्यार और कड़ाई
से कहा. 'चलो, घर चलकर तोशिक को
खिला-पिला दें और उसके बाद हम 'क्रोकोडील' (मच्छ) और 'राबोत्निसा' (कामगारिन)
का भी चक्कर लगा आएँगे.'
इस
मुलाकात के बाद बहुत अर्से तक अहमद से फिर मिलना नहीं हुआ. एक बार मुझे उसका एक खत
मिला. उसमें उसने अनुरोध किया था कि बालखारी के कुम्हारों को एक घड़ा बनाने का
आर्डर दे दूँ, जिस पर यह लिखा हो - 'मेरी प्यारी बीवी को.' मैंने घड़े का ऑर्डर दे दिया
और सोचा -
'शायद वह सचमुच ही उसके लिए बहुत कुछ करती है.' बीवी
द्वारा अनूदित उसकी कविताओं की कभी 'मुर्जील्का', कभी 'पायनियर' और कभी 'क्रोकोडील' में झलक मिल जाती. मगर हमारे मखचकला में
उसकी तात मातृभाषा में कभी कोई कविता दिखाई नहीं दी. कई बार हमने उससे कुछ भेजने का
अनुरोध किया, पर उसका कभी कोई जवाब नहीं आया.
इस
पहली मुलाकात के पंद्रह साल बाद हम फिर मिले. मास्को में दागिस्तानी कला का दस
दिनी समारोह हो रहा था. दागिस्तान से चालीस कवि मास्को आए थे. दागिस्तान की
विभिन्न भाषाओं में हमने ट्रेड-यूनियनों के स्तंभ-भवन, क्रेम्लिन थियेटर, मोटर कारखाने और कांतेमीरोव्स्काया
गार्ड डिविजन में अपनी कविताएँ पढ़ीं.
समारोह
की अंतिम शाम को हमारा सुंदर-सुघड़ अहमद पीछे की ओर से हमारे पास मंच पर आया.
'रसूल,' उसने मेरी मिन्नत करते हुए कहा, 'मुझे मास्को से दागिस्तान ले चलो. मैं दुंबा बनना चाहता था, मगर अपनी छोटी-सी दुम भी खो बैठा.'
तो
इस तरह अहमद दागिस्तान लौट आया. मगर किसी तरह भी उसके पंदूर के तार कसे नहीं जाते, किसी तरह भी वह सुर में नहीं आ पाता. वह मिट्ठी के उस बर्तन जैसा है,
जो तिड़क गया है और उसमें से सारी शराब बह गई है. उस घड़े को बाद
में चाहे कैसे भी क्यों न जोड़ो, शराब उसमें से फिर भी
रिसती रहेगी, निकलती रहेगी.
तो
इस तरह नतीजा यह निकलता है कि अनुवादक उस व्यक्ति की प्रतिभा नहीं बढ़ा सकता, जिसमें वह है ही नहीं. कुछ लोगों का कहना है कि आफंदी कापीयेव ने सुलेमान
स्ताल्स्की का निर्माण किया. दूसरों का कहना है कि सुलेमान ने आफंदी कापीयेव को
बनाया. मगर हकीकत यह है कि वे दोनों ही प्रतिभाशाली थे. आफंदी की प्रतिभा ने आफंदी
और सुलेमान की प्रतिभा ने सुलेमान को बनाया.
मैं
ईज्या से कह दूँगी. मुझे जो अगला किस्सा याद आ रहा है, उसका उक्त शीर्षक हो सकता है.
इस
समय दागिस्तान का विख्यात लेखक मुहम्मद सुलेमानोव अवार अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान
में मेरे साथ पढ़ता था. वह बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा का धनी था - अच्छी चित्रकारी
करता था,
लोक-नृत्य नाचता था, कविताएँ रचता था. 'येव्गेनी ओनेगिन' से बहुत ही प्यार था उसे. यह
किताब तो हमेशा उसके पास रहती थी और लगभग पूरी की पूरी उसे जबानी याद थी. उन दिनों
ही वह अवार भाषा में उसका अनुवाद करने का सपना देखा करता था. युद्ध के मोर्चे पर भी
वह उसे अपने साथ ले गया.
युद्ध
के अंत में गोलियों और गोलों के टुकड़ों से छलनी होने पर उसे मास्को के एक अस्पताल
में भेज दिया गया. वहीं मरीया नाम की एक मास्कोवासिनी युवती से उसकी जान-पहचान हो
गई. घाव भर जाने पर उसने मरीया से शादी कर ली और मास्को में ही रह गया.
मैं
जब पढ़ने के लिए मास्को पहुँचा, तो पूछ-ताछ ब्यूरो से
मैंने अपने दोस्त का पता लगा लिया. मैं उससे मिलने को बहुत उत्सुक था और वह
मुझसे. मरीया ने हमारी दिली और जोशीली बातचीत में किसी तरह का खलल नहीं डाला. अच्छी-सी
शराब पीते हुए हम तीनों देर तक बैठे रहे. मुहम्मद युद्ध की चर्चा करता रहा और मैं
दागिस्तान, अपने प्यारे पहाड़ों और अपने जन्म-गाँव की.
मैं उन्हें अपनी और अन्य जवान अवार कवियों की कविताएँ सुनाता रहा. बाद में मैंने
मुहम्मद से पूछा कि वह किस काम में अपना जीवन लगाना चाहता है.
'मैंने इस सवाल पर बहुत सिर खपाया कि मैं क्या करूँ. मगर मरीया की एक मौसी
है और मौसी का ईज्या है, जो मास्को में बहुत ही प्रभावशाली
व्यक्ति है. मौसी ने देखा कि मैं किसी सोच में डूबा हुआ घुलता रहता हूँ. वह बोली
- 'तुम इस तरह परेशान क्यों रहते हो, मुहम्मद.
मैं ईज्या से कह दूँगी और वह सब कुछ ठीक-ठाक कर देगा.' और
सचमुच ऐसा ही हुआ. ईज्या ने विज्ञान अकादमी में मेरे लिए अच्छी-सी नौकरी ढूँढ़
दी. अब मैं वहीं काम करता हूँ.'
'तुम्हारी चित्रकारी का क्या हुआ?'
'गोलियों ने मेरे बदन पर जो चित्रकारी कर दी है, वही
काफी है.'
'और कविता?'
'वह बचपन था, रसूल. अब मैं खासी उम्र का संजीदा आदमी
हूँ और मुझे कोई संजीदा काम ही करना चाहिए.'
'और 'येव्गेनी ओनेगिन'?'
मेरा
दोस्त सोच में डूब गया. हाँ, मैंने उसकी दुखती रग पर
हाथ रख दिया था.
'तुम दागिस्तान क्यों नहीं लौटना चाहते?'
'तब मरीया का क्या होगा?'
'उसे अपने साथ ले चलो?'
'मेरी पास तो गाँव के सिवा और कहीं कोई घर नहीं है. मरीया को लेकर तो मैं
गाँव में नहीं जा सकता. वह तो मेरी माँ से भी बातचीत नहीं कर सकेगी. इसलिए कि
मरीया मेरी माँ की बात समझ सके और माँ मरीया की, मैं
दुभाषिया तो साथ लेकर जाने से रहा.'
मुहम्मद
के लिए इस कष्टप्रद बातचीत को यहीं बंद करने के लिए मैंने मुहम्मद, मरीया और 'येव्गेनी ओनेगिन' के
नाम पर जाम उठाया.
अगली
बार जब मैं अपने दोस्त के यहाँ गया, तो मरीया ने
मुझसे कहा कि मुहम्मद तो मानो बिल्कुल बदल गया है. दिनों और रातों को तथा फुरसत
के हर मिनट में वह भूख-प्यास, आराम और नींद की परवाह किए
बिना कुछ लिखता रहता है, लिखकर कागज फाड़ डालता है, फिर से लिखता है और फिर से कागज के टुकड़े-टुकड़े कर डालता है.
मरीया
की मौसी कुछ समय तक मुहम्मद को ऐसा करते देखती रही और आखिर उसने यह जानना चाहा कि
वह क्या लिखता है और क्यों लिखे हुए कागजों को फाड़ डालता है.
'मैं कवि बनना चाहता हूँ,' मुहम्मद ने जवाब दिया. 'येव्गेनी ओनेगिन' का अनुवाद करना चाहता हूँ.'
'तो फिर इसमें क्या मुसीबत है और क्यों तुम इस तरह परेशान होते रहते हो?
मैं ईज्या से कह दूँगी और वह सब कुछ ठीक-ठाक कर देगा.'
'नहीं मेरी प्यारी मौसी, न तो ईज्या, न उसका अफसर, यहाँ तक कि ईज्या की बीवी भी कवि बनने
में मेरी मदद नहीं कर सकती. वह तो सिर्फ मैं खुद ही बन सकता हूँ.'
कुछ
ही समय बाद मुहम्मद ने मुझे 'येव्गेनी ओनेगिन'
के पहले अध्याय का अवार भाषा में अपना अनुवाद सुनाया. तीन साल बाद
सभी अवार इस महान प्रणय-काव्य को अपनी मातृभाषा में पढ़ सके.
किसका
फोटो छापा जाए? कहते हैं कि हिम्मती बीवी अपने पति की
कामयाबी में बहुत हाथ बँटा सकती है. हाँ, ऐसी उत्साही
बीवियों से हमारा भी पाला पड़ा है. एक नामी दागिस्तानी कवि की ऐसी ही बीवी थी.
उसका नाम सुनते ही लेखक-संघ, सभी प्रकाशनगृहों और
समाचारपत्रों के संपादकीय कार्यालयों में लोगों को जूड़ी चढ़ जाती थी. मैं भी उससे
थोड़ा डरता था और उसे फुसलाने के लिए ही मैंने अपने कमरे में उसके पति की फोटो भी
लगा लिया. मैंने सोचा कि वह खुश होगी और मेरे साथ नर्मी से पेश आएगी. मगर इसका उस
पर बहुत कम असर हुआ. बात यह थी कि उसके पति का फोटो मेरे कमरे में लटकने से उसे तो
एक कोपेक भी नहीं मिला था.
एक
बार उसने प्रकाशन गृह से यह माँग की कि फौरन ही उसके पति की कविताओं का संकलन छापा
जाए. डायरेक्टर ने डरते-डरते कहा कि इस साल की योजनाओं की पुष्टि हो चुकी है, कागज की कमी है और इसलिए वह संकलन अगले साल निकालना मुमकिन होगा...
'बिल्कुल बेहया आदमी हो तुम.' वह औरत आग-बबूला होकर
बोली. 'तुम्हें डर है कि लोग यह देख सकेंगे कि मेरे पति की
कविताएँ तुम्हारी कविताओं से कहीं अधिक अच्छी हैं. इसीलिए तुम कागज की कमी और
योजनाओं का राग अलाप रहे हो. मैं तुम्हारी रग-रग पहचानती हूँ. तुम मेरी आँखों में
धूल नहीं झोंक सकते. देखूँगी. कैसे तुम मेरे पति का कविता-संकलन नहीं निकालते.'
इतना
कहकर उस औरत ने फटाक से दरवाजा बंद किया और चली गई.
दो
घंटे बाद डायरेक्टर के टेलीफोन की घंटी बजी. प्रादेशिक समिति के सेक्रेटरी की
आवाज सुनाई दी.
'खुदा के लिए कुछ ऐसा करो कि यह औरत फिर कभी मेरे दफ्तर में न आए,' सेक्रेटरी ने मिन्नत करते हुए कहा. 'आए दिन तो मैं
अपनी मेज का शीशा नहीं बदलवा सकता. वह हर बार मेज पर मुक्का मारकर उसे तोड़ डालती
है.'
इस
सारे किस्से का नतीजा क्या हुआ? लेव तोलस्तोय का
लघु-उपन्यास 'हाजी-मुराद' और हमजात त्सादासा
की बच्चों की एक किताब भी योजना से निकालनी पड़ी. इन दो किताबों की बलि उेकर उस
लड़ाकी औरत के पति का कविता-संकलन योजना में शामिल किया गया.
हमें
लगा कि अब शांति रहेगी. मगर नहीं, जल्दी ही नया बखेड़ा उठ
खड़ा हुआ. उसका कारण यह था कि संकलन में कवि का फोटो नहीं छापा गया था.
'कैसे बेहया लोग हैं.' गुस्से से पागल होती हुई वह
औरत चिल्लाई. 'तुम्हें इसी बात का डर है न कि लोग यह देख
सकेंगे कि तेरा पति तुम सभी से कितना ज्यादा खूबसूरत है. इसीलिए तुमने उसका फोटो
नहीं छापा.'
'नहीं, ऐसी बात नहीं है,' प्रकाशन
गृह के डायरेक्टर ने जवाब दिया. 'हम यह नहीं जानते थे कि इस
किताब में किसका फोटो छापा जाए - तुम्हारा या तुम्हारे मियाँ का?'
'हाँ, यह भी एक सवाल है,' इस
औरत ने दाँत निपोरे. 'कौन जाने, मेरे
बिना वह कवि भी बन पाता या नहीं.'
अबूतालिब
ने उस कवि से भेंट होने पर कहा -
'कूसा, मेरी एक बात मान लो. एक हफ्ते के लिए मुझे
अपनी बीवी दे दो. मुझे फौरन स्तालिन पुरस्कार मिल जाएगा.'
'हटाओ भी इस बात को अबूतालिब. मैं दस साल से उसके साथ रह रहा हूँ और मुझे
हाजी क्रासिम का इनाम भी नहीं मिला.'
'तो उससे कुछ प्रतिभा माँग लो.'
अबूतालिब
और खातिमत का किस्सा. अबूतालिब शुरू में भेड़ें चराते रहे. इसके बाद वे टीनगर बन
गए. मगर चरवाहे की अपनी मुरली वे तब भी अपने साथ ही रखते और फुरसत के वक्त उसे
बजाते. अपने धंधे के सिलसिले में वे गाँव-गाँव जाते. कुछ लोगों का कहना है कि कूली
गाँव में,
और दूसरों के मुताबिक गूमूक में खातिमत नाम की एक लड़की गागर की
मरम्मत कराने के लिए अबूतालिब के पास आई.
बहुत
देर तक अबूतालिब उस गागर की मरम्मत करते रहे. कभी वे उसे एक तरफ रखकर इतमीनान से
सिगरेट पीने लगते, तो कभी मुरली बजाना शुरू करते
और कभी खातिमत को झूठे-सच्चे किस्से-कहानियाँ सुनाने लगते.
खातिमत
उससे जल्दी करने को कहती हुई चिल्लाई -
'तुम अपनी सिगरेट ही कुछ कम लंबी लपेटो.'
'अरे, यह तुम क्या कह रही हो, मेरी
प्यारी खातिमत. अब मैं गज भर लंबी सिगरेट बनाऊँगा ताकि वह और ज्यादा देर तक जलती
रहे.'
आखिर
लड़की बिल्कुल ही आप से बाहर हो गई और अबूतालिब को मजबूर होकर गागर उसे लौटानी
पड़ी. गागर ऐसे चमचम करती थी मानो नई हो. इतनी अधिक कोशिश से अबूतालिब ने उसकी
मरम्मत की थी. मगर लड़की ने जैसे ही उसमें पानी भरा कि वह चूने लगी. गुस्से से
भुनभुनाती, बड़ी मुश्किल से अपने दुख के आँसुओं को रोकती
हुई वह फिर से अबूतालिब के पास आई.
'इतनी देर तक तुमने गागर की मरम्मत की और वह पहले से भी ज्यादा चूती है.'
'अल्लाह करे कि दिलेर और खूबसूरत लड़के हर दिन तुम्हारी गागर पर कंकड़
फेंकें. तुम नाराज क्यों हो रही हो, खातिमत, मैंने तो जान-बूझकर उसमें सूराख छोड़ दिया था ताकि तुम फिर से मेरे पास आओ
और मैं तुम्हें देख सकूँ.'
'अच्छा हो कि लड़के मेरी गागर पर नहीं, तुम्हारे
सिर पर कंकड़ फेंकें.' खातिमत चिल्लाई और फिर कभी अबूतालिब
के पास नहीं आई.
अबूतालिब
को उसकी बड़ी याद आती. खातिमत के प्रति उनका प्यार बढ़ता ही चला गया. प्यार
जितना बढ़ा, याद उतनी ही ज्यादा सताने लगी. इस तरह उस
लड़की की याद में घुलते हुए अबूतालिब ने एक गीत रचा, जिसमें
उसने खातिमत और उसके प्रति अपने प्यार को अभिव्यक्ति दी. इसके बाद उन्होंने
दूसरा, फिर दसवाँ, फिर बीसवाँ गीत रचा
और इस तरह वे टीनगर की जगह जाने-माने कवि बन गए.
इसी
बीच खातिमत ने हाजी नाम के एक आदमी से शादी कर ली. कुछ अर्से बाद उसे तलाक देकर
किसी मूसा की बीवी बन गई.
एक
दिन ख्यातिलब्ध कवि अबूतालिब बाजार में से जा रहे थे, तो किसी ने उन्हें आवाज दी -
'ऐ अबूतालिब, गागर की मरम्मत नहीं कर दोगे?'
कवि
ने मुड़कर देखा तो बूढ़ी, झुकी हुई और बीमार खातिमत को
अपने सामने पाया.
'शायद अब तुम्हारा दिमाग आसमान पर जा चढ़ा है, अबूतालिब.
ऐसा तो होना ही था. अब तुम सर्वोच्च सोवियत के सदस्य हो, तमगा
लगाए हो. लगता है कि अपना टीनगरी का धंधा भूल गए हो. पर अगर मामले की गहराई में
जाया जाए, तो मैंने ही तुम्हें कवि बनाया है, अबूतालिब. उस वक्त अगर मैं मरम्मत के लिए गागर तुम्हारे पास न लाती,
तो तुम अभी तक उसी तरह बाजार में बैठे हुए टीनगरी करते होते.'
'ओ खातिमत, अगर तुममें सचमुच ऐसी ताकत है, अगर तुम सचमुच ही लोगों को कवि बना सकती हो, तो
तुमने अपने पहले पति मिलीशियामैन हाजी को क्यों नहीं कवि बना दिया? और हाँ, तुम्हारे दूसरे पति मूसा के गीत भी अब तक
सुनने को नहीं मिले...'
अबूतालिब
तो चले भी गए, मगर खातिमत यह न समझ पाते हुए कि क्या
जवाब दे, जहाँ की तहाँ मुँह बाए खड़ी थी. बारिश की बूँदों से
ही वह सँभली.
तो
इस तरह अगर कोई खुद ही शायर नहीं बनता, तो किसी भी
दूसरे आदमी में उसे शायर बनाने की ताकत नहीं है.
पिता
जी ने यह बात सुनाई कि जब मैं अपनी पहली कुछ कविताएँ, रच चुका था, तो पिता जी के एक पुराने मित्र दागिस्तान
के एक प्रसिद्ध और सम्मानित व्यकित ने उनसे कहा -
'बहुत अच्छा रहे कि रसूल अब किसी को जी-जान से प्यार करने लगे. इससे कोई
फर्क नहीं पड़ेगा कि अपने प्यार से उसे खुशी मिलेगी या गम, उसमें
उसे कामयाबी होगी या नाकामयाबी. शायद यह तो ज्यादा अच्छा ही होगा कि दूसरी तरफ
से उसे प्यार न मिले, कि प्यार उसके लिए पीड़ा और वेदना ही
लेकर आए. तब वह एकदम बड़ा कवि बन जाएगा.'
मेरे
पिता जी के दोस्ते ने तो ऐसी सुंदर किशोरी भी खोज ली, जिसे मुझे बदकिस्मत आदमी, मगर बड़ा कवि बनाना था.
मेरे
पिता जी ने अपने दोस्त को यह जवाब दिया -
'देखो तो दुनिया में कितनी ही लोग हैं प्यार करनेवाले, पर क्या उनमें से हर कोई कवि है? दिल से प्यार
करने के लिए भी प्रतिभा की जरूरत होती है. प्रतिभा को प्यार की जितनी जरूरत है,
शायद प्यार को प्रतिभा की उससे कहीं अधिक आवश्यकता है. इसमें शक
नहीं कि प्यार से प्रतिभा पनपती है, मगर वह उसकी जगह नहीं
ले सकता. प्रेम के प्रतिकूल भावना यानी घृणा के बारे में भी में यही कह सकता हूँ.'
'मगर मिसाल के लिए प्यार के गायक कवि महमूद को लिया जा सकता है...'
'तुम सही कहते हो. कवि के रूप में हम जैसे महमूद को जानते हैं, वह अपनी प्रेयसी की बदौलत ही बहुत हद तक वैसा बना. मगर मेरा खयाल है कि
उसकी प्रेयसी का अगर इस दुनिया में अस्तित्व भी न होता, तो
भी महमूद बड़ा कवि बनता. उसकी बेचैन और अलंकारी भावनाएँ उसी तरह अपना मार्ग खोज
लेतीं जैसे घास की कोमल-सी पत्ती नम, बोझिल और अँधेरी मिट्टी
में से सूरज की ओर अपना रास्ता बना लेती है. अरे, कभी-कभी
तो वह पत्थर के नीचे से भी बाहर निकल आती है.'
हाँ, यह आसानी से माना जा सकता है कि जिस तरह आग सूखी लकड़ियों से भड़कती है,
उसी तरह प्रतिभा के पनपने के लिए प्रबल मानवीय भावनाएँ - प्यार और
घृणा - आवश्यक होती हैं, कि खिली मुस्कान या सलोने आँसुओं
से ही कविता जन्म लेती है. मगर मैं आपके सामने दो उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता
हूँ.
उस
माँ के दुख, उस माँ की व्यथा से अधिक तीव्र व्यथा
किसकी हो सकती है, जिसके बेटे की मृत्यु हो जाती है?
बेटे को दफनाने की तैयारी होने लगती है, लोग
जमा हो जाते हैं. मगर माँ चुपचाप बस रोती ही जाती है, वह शब्दों
में, ऐसे शब्दों में अपना दुख-शोक व्यक्त नहीं कर पाती कि
सभी उसकी तरह रोने लगें जैसे वह स्वयं रो रही है.
इसी
समय विलाप करने की कला में दक्ष नारियाँ आती हैं. उनकी आँखों में आँसू नहीं होते, क्योंकि उनका अपना नहीं, पराया दुख होता है. मगर
जैसे ही वे अपनी भयानक कला का प्रदर्शन करने लगती हैं, वैसे
ही आस-पास सभी सिसकने लगते हैं.
मैंने
इस कला को भयानक कला कहा है. वह वास्तव में ही बड़ी निर्मम और भयानक है. इसलाम
में इसीलिए तो यह कहा गया है कि दूसरी दुनिया में विलाप करनेवालियों को ढोंगियों, पाखंडियों और चुगलखोरों की तरह ही लगातार कष्ट दिए जाते हैं. मगर वह तो
कला ही ऐसी है, जिसका काम लोगों को रुलाना ही है.
अब
इसके उलट उदाहरण लीजिए. ऐसे माँ-बाप से ज्यादा सुखी कौन हो सकता है, जिनका बेटा हृष्ट-पुष्ट और जवान मर्द हो गया है तथा अब शादी करना चाहता
है. शादी तो हँसी-खुशी का जशन होती है. शादी के मौकों पर लोग नाचते और गाते हैं.
जाहिर है कि दूल्हे के माता-पिता ही सबसे ज्यादा खुश होते हैं. मगर क्या सभी
माता-पिता शब्दों में, गीत में, ऐसे
गीत में अपनी खुशी जाहिर कर सकते हैं कि वहाँ उपस्थित सभी लोग चहक उठें और उनके
लिए शादी की यह पराई खुशी अपनी खुशी बन जाए?
नहीं, वे ऐसा नहीं कर पाते. इसीलिए वे पहले से ही गाँवों में जाकर अच्छे गायकों
को आमंत्रित कर आते हैं. गायक आ जाते हैं. एक दिन पहले वे किसी दूसरे की शादी में
गाते रहे थे और अगले दिन किसी अन्य की शादी में गाएँगे. उन्हें इस बात से कोई
फर्क नहीं पड़ता. किंतु उनकी प्रतिभा से लोग रंग में आ जाते हैं और उन्हें सच्ची
खुशी मिलती है.
तो
शायद प्रतिभा जीवन के लंबे अनुभव से पनपती है? और कला में
प्रतिभा का व्यक्त होना विस्तृत ज्ञान, कठिन भाग्यों तथा
महान कार्यों का परिणाम है?
पर
यदि ऐसा होता, तो क्या चौदह वर्षीय और सो भी अंधा अवार
लड़का अपने पंदूर-वादन से अवार गाँवों के लोगों को आश्चर्यचकित और मंत्र-मुग्ध
कर सकता था?
मुहम्मद
रजबोव नाम के एक अन्य किशोर ने, जो बचपन से ही चारपाई
थामे हुए है, माँ के बारे में एक ऐसा गीत रचा है, जिसे शायद ही कोई अवार न जानता और न गाता हो. इस गीत को स्वरबद्ध किया
अहमद त्सूरमीलोव ने, जिनकी दोनों टाँगों को लकवा मार गया है.
उन्हीं के बारे में मैंने ये पंक्तियाँ लिखी थीं -
तेरी
मेंडोलिन में केवल आठ तार
किंतु
धुनें हैं आठ हजार...
प्रतिभाशाली
अंधा आँखोंवाले प्रतिभाहीन व्यक्ति से कहीं ज्यादा देखता है. किसी ने यह भी कहा
है कि बुद्धिमान अपने कमरे में बैठा हुआ ही सारी दुनिया का चक्कर लगानेवाले मूर्ख
की तुलना में कहीं कुछ ज्यादा देख सकता है.
इतना
ही नहीं,
अंधा मुहम्मद बाजार में माँगे हुए भीख के पैसों की गिनती करते समय
भी कभी गलती नहीं करता था.
नोटबुक
से. अगर सिर्फ नजर में ही प्रतिभा का रहस्य छिपा है, तो लेजगीन कवि कोचखियूरस्की कैसे उसके बाद भी काव्य-रचना करता रहा,
जब खान ने उसकी दोनों आँखें निकलवा दी थीं? अगर
धन में ही प्रतिभाशक्ति निहित है, तो गरीब और यतीम लेजगीन
कवि यतीम आमीन कैसे विख्यात हो गया? अगर शिक्षा ही में
प्रतिभा-शक्ति छिपी है, तो सुलेमान स्वाल्स्की, जो अपना नाम तक नहीं लिख सकता था और हस्ताक्षर की जगह स्याही में अँगूठा
भिगोकर लगाता था, 'बीसवीं शताब्दी का होमर' कैसे बन गया? अगर बहुत पढ़ने-लिखने और पांडित्य में
ही प्रतिभा-शक्ति है, तो क्यों इतने पढ़े-लिखे और विद्वान
लोगों से मेरा वास्ता पड़ा है, जो ढंग की एक पंक्ति भी नहीं
लिख सकते थे?
पहले
पहाड़ों में बहुत ही दिलचस्प प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती थीं. एक तरफ होते थे
शिक्षित,
अवार भाषा में लिख-पढ़ सकनेवाले मुतअल्लिम (विद्वान) और दूसरी तरफ
अनपढ़, अपने धंधे के सिवा और कुछ भी न जाननेवाले चरवाहे. इन
दोनों पक्षों के बीच शेरो-शायरी का मुकाबला होता था. इस मुकाबले में अक्सर चरवाहे
ही जीतते थे. हरी-भरी ढालों पर हवा की भाँति स्वच्छंद-स्वतंत्र रूप से उड़नेवाले
गीत सुशिक्षित लोगों की नपी-तुली आवाज पर हावी हो जाते थे, उनपर
अपनी जीत का झंडा गाड़ देते थे.
मगर
इन दोनों को ही वे कवि जीत जाते थे, जो एक साथ
मुतअल्लिम और चरवाहे होते थे. ऐसी प्रतियोगिता में अगर महमूद या मेरे पिता हमजात
हिस्सा लेते, तो वे दूसरे कवियों का साथ नहीं, बल्कि आपस में मुकाबला करते. दूसरे कवि बहुत पीछे रह जाते.
शायद
अक्ल ही प्रतिभा की शक्ति का आधार है? मगर मास्को
और दुनिया के अनेक देशों में बहुत ही बुद्धिमान लोगों से मेरी भेंट हो चुकी है.
अगर उनकी अक्ल अचानक कविताओं या कहानियों या उपन्यासों का रूप ले लेती, तो कला की अमूल्य रचनाएँ हमारे सामने आ जातीं. मगर न जाने क्यों,
उनके बुद्धिमत्तापूर्ण विचार कागज पर नहीं उतर पाते, हवा में बिखरकर रह जाते हैं या उनके साथ ही कब्रों में चले जाते हैं.
तो
शायद प्रतिभा की शक्ति अत्यधिक श्रम में, एड़ी-चोटी
का पसीना एक कर देने में निहित है? बहुत बार मुझे यह सुनने
को मिला है कि प्रतिभा नाम की तो कोई चीज है ही नहीं, कि वह
तो केवल कठोर श्रम से ही सामने आ सकती है. मगर जहाँ तक मेरा संबंध है, शाखा पर मजे से बैठी बुलबुल का तराना मुझे भारी बोझ ले जानेवाले गधे के
रेंकने से कहीं ज्यादा अच्छा लगता है.
छकड़े
को खींचनेवाला नहीं, बल्कि उस पर सवारी करनेवाला
ही गाने गाता है.
ऐ
मेरे अल्लाह, कितनी बेमेल बातें हैं इस दुनिया में! अगर
गीत छकड़े पर बैठे इनसान की काहिली का नतीजा हैं, तो शायद
सारी कला ही काहिली और फुरसत, माली बेफिक्री और सभी तरह की
निश्चिंतता का परिणाम है?
मगर
क्या गरीबों के झोंपड़ों में जन्म लेनेवाले गीत अमीरों के महलों में नहीं गाए
जाते?
खानों और अमीरों के बारे में गरीबों ने ही तो सारे किस्से गढ़े हैं.
शामखाल ने इरचे गाजाख को साइबेरिया निर्वासित कर दिया. इरचे गाजाख वहाँ जाकर भी
कविताएँ रचता रहा. इरचे गाजाख की कविताओं से ही लोग अब कुमीक शामखाल के बारे में
जानते हैं.
जार्जिया
के जवान राजकुमार दावीद गुरमिश्वीली को पहाड़ी लोग उड़ा ले गए. उन्होंने ऊनसूकूल
में एक गढ़े में ले जाकर उसे डाल दिया. नम गढ़े में बैठा, अपने नीलाकाशवाले सुंदर जार्जिया के लिए तड़पता हुआ राजकुमार कविता रचने
लगा. इस सिलसिले में कुछ हद तक यह कहा जा सकता है कि पहाड़ी लोगों ने राजकुमार
गुरमिश्वीली को कवि बना दिया.
खूंजह
के खान की बेटी ऐशात को एक जवान और सुंदर चरवाहे से प्यार हो गया था. पिता को जब
यह मालूम हुआ, तो उसने बेटी को घर से निकाल दिया. जाड़े
की ठंडी रात थी. भयानक ठंड, घुटनों तक बर्फ और तन चीरती हवा
में हल्का-सा फ्राक पहने ऐशात ने अपना पहला गीत रचा था.
पर
यदि ऐसा है, तो शायद इनसानी कमजोरी और गरीबी में ही
प्रतिभा की सारी शक्ति छिपी है? शायद दुर्भाग्य और
दुख-मुसीबत से ही सर्वश्रेष्ठ गीतों का जन्म होता है? कविता,
तुम कौन हो और तुम्हें क्या चाहिए? बातीराई
के पास तुम तब आई, जब वह बीमार और बूढ़ा था और भूखे पेट ठंडे
और बुझे हुए चूल्हे के पास बैठा था. महमूद के पास तुम तब आई, जब वह कारपेथियंस की खंदकों में ठिठुर रहा था और उसकी वह प्रेयसी, जो उसे सूरज, पृथ्वी और जीवन से भी ज्यादा प्यारी
थी, किसी दूसरे की बीवी बन गई थी. तुम अबूतालिब के पास तब आई,
जब वह खुरजी और लाठी लिए गाँव-गाँव फिरा करता था और जब उसके दिल की
रानी खातिमत ने उसे ठुकराकर एक मिलीशियामैन से शादी कर ली थी. तुम अलदारिलाव के
पास तब आई, जब उसने अपने हत्यारों के हाथ से जहर का प्याला
लिया. संगदिल जंदिनायब ने धागों से आँखील-मारीन का मुँह सी दिया था और तभी मारीन
ने अपना सबसे अच्छा गीत रचा था. इस गीत ने बाकी सारे जीवन के लिए नायब का चैन और
उसकी नींद हर ली थी.
प्रतिभा, कहो तो किस चीज में तुम्हारी शक्ति निहित है? कौन
हो तुम-आत्मा की आवाज, प्रतिष्ठा, साहस
या शायद डर? कायर भी तो रात के वक्त अपनी मंजिल तय करता हुआ
गाता है और इस तरह साहस बटोरता है.
तुम
सौभाग्य हो या दुर्भाग्य, पुरस्कार हो या दंड? क्या तुम वह सुंदरता हो जिसके कारण लोग व्यथित होते हैं या वह वेदना हो,
जिससे सुंदरता जन्म लेती है? या तुम समय और
घटनाचक्र की संतान हो? पत्थरों के आपस में टकराने से
चिनगारियाँ पैदा होती हैं. युद्ध से पृथ्वी पर लोग नहीं बढ़ते, मगर उससे वीरों की संख्या बढ़ जाती है.
मुझे
मालूम नहीं कि प्रतिभा किसे कहते हैं, ठीक उसी तरह
जैसे मैं यह नहीं बता सकता कि कविता क्या होती है. मगर कभी-कभी य तो घर जाते समय,
या किसी पराई जगह पर, या फिर सोते वक्त (मानो
मेरे नमदे के लाबदे का पल्ला उठाते हुए) या फिर जब मैं हरी-हरी घास पर कदम रखता
हूँ (मानो सजीव हरियाली में से मेरे भीतर घुसकर घुसकर मेरे रक्त में घुल-मिल जाती
है), या फिर खाने के समय, या फिर संगीत
सुनते वक्त, तो परिवार के लोगों के बीच बैठे हुए या फिर
हो-हल्ला मचानेवाले दोस्तों के साथ गप-शप के समय, या फिर
उस वक्त जब मैं किसी बच्चे को गोद में उठाकर मानो उसे उसके लंबे जीवन-पथ के लिए
आशीर्वाद देता हूँ, या फिर उस समय जब मैं अपने किसी दोस्त
को उसकी आखिरी मंजिल पर पहुँचाने के लिए उसके जनाजे को कंधा देता हूँ, या फिर जिस वक्त मैं अपनी प्रियतमा को ध्यान से देखता हूँ - तो उस समय
मुझे किसी दुर्लभ, अद्भुत, रहस्यपूर्ण
और शक्तिशाली चीज की अनुभूति होती है. वह कभी तो खुशी से छलकती होती है, तो कभी दुख में डूबी हुई, मगर हमेशा ही वह मुझे कुछ
करने को प्रेरित करती है, हमेशा ही बोलने को विवश करती है.
वह बिन बुलाए और अनुमति के बिना ही आती है.
वह
आती है और उसके पीछे ही मुझे लंबा चेर्केसी कोट पहने तथा हाथ में पंदूर लिए
प्रेम-दीवाना महमूद, जो अपने गीतों में पूरी तरह
अपना दुख-दर्द नहीं उँड़ेल पाया, उदासी भरी नाजुक मुस्कानवाले
मेरे पिता जी, हाथों में जहर का प्याला लिए अलदरिलाव,
संगदिल नायब द्वारा सिए गए रक्त-रंजित होंठोंवाली मारीन आदि आते
जान पड़ते हैं और उनके पीछे, कहीं बहुत दूरी पर साहित्यिक
महारथियों - दांते, तोलस्तोय, शिलर,
ब्लोक, गेटे, बल्जाक,
दोस्तोयेव्स्की की झलक-सी मिलती है. कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि
किरण से छिन्न-भिन्न हुए कुहासे में से स्वयं भगवान का रूप झिलमिलाता है.
'क्या हो तुम?' मैं इस चीज से पूछता हूँ.
'मैं तुम्हारी प्रतिभा हूँ, तुम्हारी कविता हूँ.'
'कहाँ से आई हो तुम?'
'मैं तो हर जगह पर हूँ.'
'क्या तुम्हारी मेरी ही जितनी उम्र है?'
'ओह नहीं, मेरी उम्र एक क्षण भी है और हजारों
शताब्दियाँ भी. मुझमें बच्चे का भोलापन है, सिरफिरे नौजवान
का जुनून है और बुजुर्ग की समझ-बूझ है. मेरी कोई उम्र नहीं. मैं वह अलाव हूँ,
जो कभी नहीं बुझ सकता. मैं वह गीत हूँ, जिसे
कभी कोई पूरी तरह से नहीं गा सकता. मैं ऐसी उड़ान हूँ, जो
किसी के बस की बात नहीं. मैं तुमसे बहुत दूर हूँ और खुद तुममें हूँ. मुझे अपने
भीतर सहेजना प्रसन्नता है, परमानंद है और साथ ही भारी व्यथा
और पीड़ा है. मुझसे अधिक सुखद और अधिक दुखद कुछ भी नहीं.
'अगर मैं हूँ, तो वायलिन के तारों के कंपन से ठंडी
चट्टानें टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगी. अगर मैं हूँ, तो
जुरना-वादन से खड्डों में पहाड़ी बकरे नाचने लगेंगे. अगर में हूँ, तो हत्यारे के हाथ से खंजर गिर जाएगा और प्रेमी चुंबनों में खो जाएँगे.
'आनदी गाँव की पाती का जब बुरका उतारा गया, तो मैं
वहाँ थी. मरियम को जब घोड़े पर डालकर भगा ले जाया गया था, तो
मैं वहाँ थी. जॉन ऑफ आर्क ने जब म्यान से तलवार निकालकर अपने द्वारा प्रेरित
सेनाओं को आगे बढ़ने के लिए ललकारा था, तो मैं वहीं थी. जब
आदमी ने पंख बनाकर छज्जे से छलाँग लगा दी थी, तो मैं वहाँ
थी. जब मेगेलन या कोलंबस ने अपने जहाजों के पाल ऊपर उठाए थे, तो मैं वहाँ थी. जब 'सिसतीन मादोना' का चित्र बनाया जा रहा था, तो मैं वहाँ थी.
'सभी युग और सारी पृथ्वी मेरा कर्म-क्षेत्र हैं. विभिन्न महाद्वीप और
राज्य हैं, पाटियाँ और सरकारें हैं, वर्ग
और जातियाँ हैं. मगर इनसान भी हैं. इनसानों के पास मस्तिष्क और आत्माएँ हैं. वे
किसी भी महाद्वीप में क्यों न हों, प्यार और घृणा करते हैं,
उनमें साहस और भय है, सज्जनता और दुष्टता है,
आत्मत्याग और झूठ है, वे महात्मा हैं और
चुगलखोर भी. लोगों का मस्तिष्क और आत्मा - ये हैं मेरी रंग-भूमि, मेरी विजय-पराजय के क्षेत्र, मेरी सिद्धि और उपलब्धि.'
'तो मुझसे सच-सच कह दो कि मैं किस लायक हूँ? क्या
मैं उस बर्फ जैसा तो नहीं हूँ, जो अगले दिन पिघल जाएगी,
उस गागर में तो पानी डालने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, जिसके तल में सूराख है? तुम्हारी कभी न बुझनेवाली
आग की एक चिनगारी तो मेरी आत्मा में आ गिरी है या नहीं, तुम्हारी
उत्तेजित और मस्त कर देनेवाली सुरा की एक बूँद तो मेरे होंठों पर आ गिरी है या
नहीं?'
मेरी
आँखों से हर्ष-विषाद के आँसू बह रहे हैं. मगर कुछ दूसरे आँसू भी हैं, जो मेरी आँखों की गहराई में छिपे हुए हैं, ठीक उसी
तरह जैसे शिकारी की पद-चाप सुनकर डरपोक पक्षी छिप जाता है. मगर इन छिपे हुए आँसुओं
में भी एक प्यार का है, दूसरा दुख का, एक दुर्भाग्य का है, दूसरा सौभाग्य का. मेरे सिर
पर बाल भी दो रंग के हैं - काले और सफेद. मेरी एक टाँग जवानी में है और दूसरी
बुढ़ापे में. बुढ़ापा और जवानी हमेशा आपस में जूझते रहते हैं और उनकी रंग-भूमि है
मेरी आत्मा.
प्यारा
मुझे चिनार, तने दो बड़े-बड़े
एक
सूखता,
मगर दूसरा, पत्तों पर इतराता
प्यारा
मुझे उकाब, पंख दो बड़े-बड़े
गिरता
जाए एक,
दूसरा, नभ में शान दिखाता.
टीस
रहे हो घाव वक्ष में भी मेरे
रिसे
एक तो,
मगर दूसरा प्रतिदिन भरता जाता
ऐसे
ही होता है, आती खुशी कभी
उसे
हटाकर एक तरफ, दुख फिर से वापस आता.
जीवन
की सीमाएँ हैं, वह छोटा है और कल्पनाएँ है असीम. खुद मैं
अभी सड़क पर चला जा रहा हूँ, मगर कल्पना घर पर पहुँच चुकी
है. खुद मैं प्रेमिका के घर जा रहा हूँ, मगर कल्पना उसकी
बाँहों में भी पहुँच चुकी है. खुद मैं इस वक्त साँस ले रहा हूँ, मगर कल्पना कई साल आगे पहुँच जाती है. वह उन सीमाओं से भी दूर पहुँच जाती
है, जहाँ जीवन अँधेरे में जाकर खत्म हो जाता है. कल्पना
अगली सदियों की उड़ान भरती है.
अपनी
कल्पनाओं में मैं जिन खेतों को जोतता हूँ, वे उनकी
तुलना में कहीं अधिक विस्तृत हैं, जिन्हें मैं वास्तव में
जोतता हूँ. प्रतिभा, तुम किसकी सेवा करोगी, मेरी या मुझसे बहुत दूर उड़ जानेवाली मेरी कल्पनाओं की?
हाँ, तुम कभी न बुझनेवाली आग हो. तुम वह गीत हो, जिसे कोई
भी अंत तक नहीं गा सकता. तुम वह उड़ान हो, जो किसी के बस की
बात नहीं. मगर तुम्हारे चिरंतन गीत में क्या मैं अपनी एक धुन, अवार धुन जोड़ सकता हूँ? संभव है कि तब सारा गीत ही
अधिक सुंदर हो जाए?
क्या
मैं तुम्हारी अमर ज्वाला से ली गई एक चिनगारी से दागिस्तान के शिखरों पर
छोटी-सी आग जला सकता हूँ? क्या मैं तुम्हारी अनंत और
अंतहीन उड़ान को थोड़ा-सा, बेशक एक चट्टान से दूसरी तक ही,
बढ़ा सकता हूँ?
मेरा
गाँव है - त्सादा. इसका अर्थ है - आग. एक बार किसी दूसरे गाँव के एक आदमी ने
मुझसे पूछा -
'कहाँ के रहनेवाले हो तुम, नौजवान?'
'त्सादा का.'
वह
बोला -
'पहले अपनी कुछ कविताएँ सुनाओ और तब मैं तुम्हें यह बताऊँगा कि उनमें आग
है या ठंडी राख.'
संदेह
मुझ पर हावी हो जाते हैं. क्या मैं उस वक्त तो अपना नमदे का लबादा नहीं पहन रहा
हूँ,
जब ठंडे-बुरे मौसम का अंत हो चुका है और छिन्न-भिन्न होते बादलों
के पीछे से सूरज फिर झाँकने लगा है? क्या मैं उस वक्त तो
बाड़े के दरवाजे को ताला नहीं लगा रहा हूँ, जब चोर बैल को
भगा भी ले जा चुके हैं? क्या वही कुछ नहीं सुना रहा हूँ,
जिसे सभी अनेक बार सुन चुके हैं? क्या उन
लोगों को मैं दावत पर नहीं बुला रहा हूँ, जो अभी-अभी किसी
अच्छे मेजबान के यहाँ से खूब खा-पीकर निकले हैं? मुझे अपनी
किताब लिखनी भी चाहिए या नहीं?
'अगर लिखे बिना रह सकते हो, तो न लिखो.'
'क्या मैं लिखे बिना रह सकता हूँ? रोगी को जब बहुत
पीड़ा होती है, तो क्या वह कराहे बिना रह सकता है, क्या कोई सुखी आदमी मुस्कराए बिना रह सकता है? क्या
बुलबुल चाँदनी रात की निस्तब्धता में गाए बिना रह सकती है? जब नम और गर्म मिट्टी में बीज फूट चुका है, तो घास
बढ़े बिना कैसे रह सकती है? वसंत का सूरज जब कलियों को
गर्माता है, तो फूल कैसे खिले बिना रह सकते हैं? जब बर्फ पिघल जाती है और पत्थरों से टकराता तथा शोर मचाता हुआ पानी नीचे
बहने लगता है, तो पहाड़ी नदियाँ सागर की ओर बहे बिना कैसे रह
सकती हैं? टहनियाँ अगर सूख चुकी हों और उनमें शोला भड़क चुका
हो, तो अलाव कैसे जले बिना रह सकता है?'
बचपन
में ही मुझे अलावों से प्यार हो गया था. मैं रातों को चरवाहों के यहाँ, नदी-तट पर, चट्टान के दामन में, इर्द-गिर्द के पहाड़ों की चोटियों या घरेलू चूल्हों में आग जलते देखा
करता था. मैं जानता हूँ कि आग जलाना तो आधा काम है और बुरे मौसमवाली लंबी रात में
उस आग को जलाए रखना कहीं अधिक कठिन होता है.
मैं
अनुभव करता हूँ कि मेरे दिल में आग है. लेकिन मैं क्या करूँ, किस तरह का व्यवहार करूँ कि यह आग ठंडी न हो जाए, किसी
को गर्माए बिना, अँधेरे में किसी का पथ रोशन किए बिना बुझ न
जाए? अपनी प्रतिभा को सुरक्षित रखने और सुदृढ़ बनाने के लिए
मैं क्या करूँ?
पिता
जी के संस्मरण से. एक पहाड़ी आदमी ने पिता जी के पास आकर कहा -
'मैं कोशिश करके देख चुका हूँ और मुझे इस बात का विश्वास हो गया है कि मैं
तुक मिला सकता हूँ. मगर मुझे यह मालूम नहीं कि वास्तविक कविता रचने के लिए क्या
करना चाहिए.'
पिता
जी ने जवाब दिया -
'वायलिन के तारों को सुर में करना ही काफी नहीं, उसे
बजाना आना चाहिए. जमीन का होना ही काफी नहीं, उसे जोतना-बोना
आना चाहिए.'
'कविता रचने के लिए मैं क्या करूँ?'
'क्या करूँ? काम में जुटा जाओ
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