चे गुएवारा के साथ रसूल |
इस पुस्तक के भाव और नाम के बारे में
जशन और खुशियों का ही तो
इस से भास सदा होता है,
कभी-कभी पर इस में कोई
गम भी, खतरा भी सोता है.
घंटे
पर आलेख
पिता वीर थे और अंत तक
थामे रहे सत्य का दामन,
पुत्र यहाँ पर जो सोता है
चमकेगा ऐसा ही वह बन.
सिर के ऊपर लटक रहा है
इसके वीर पिता का खंजर,
कृत्य सुनाए जाते उनके
इसे लोरियों में गा-गाकर.
पालने
पर आलेख
पहाड़ी
आदमी को दो चीजों की रक्षा करनी चाहिए - अपनी टोपी और अपने नाम की. टोपी की रक्षा
वही कर सकेगा, जिसके पास टोपी के नीचे सिर है. नाम की
रक्षा वह कर सकेगा, जिसके दिल में आग है.
हमारे
तंग-से पहाड़ी घर की छत में गोलियों के बहुत-से निशान हैं. मेरे पिता जी के दोस्तों
ने पिस्तौलों से ये गोलियाँ चलाई थीं - आसपास के पहाड़ों में रहनेवाले उकाबों को
यह पता लग जाना चाहिए कि उनके एक भाई ने जन्म लिया है, कि दागिस्तान में एक उकाब और बढ़ गया है.
जाहिर
है कि पिस्तौल चलाने, गोली छोड़ने से बेटा पैदा
नहीं हो सकता. मगर बेटे के जन्म की घोषणा करने के लिए तो हमेशा गोली पास में होनी
ही चाहिए.
जब
मैं पैदा हुआ और जब मेरा नाम रखा गया, तो मेरे
पिता जी के दोस्त ने दो गोलियाँ चलाई - एक छत में दूसरी फर्श पर.
अम्माँ
ने मुझे बताया कि मेरा नाम कैसे रखा गया. अपने घर में मैं तीसरा बेटा था. एक लड़की
यानी मेरी बहन भी थी, मगर हम तो मर्दों का, बेटों का जिक्र कर रहे हैं.
जेठे
बेटे का नाम तो उसके पैदा होने के बहुत पहले ही सारा गाँव जानता था. वह इसलिए कि
उसे तो उसके स्वर्गवासी दादा का नाम दिया जाना चाहिए. गाँव के हर आदमी को यह याद
था और इसलिए सभी यह कहते थे कि जल्दी ही हमजातोवों के घर में मुहम्मद पैदा होगा.
मेरे
दादा के अहाते में कुत्ते-बिल्ली को छोड़कर कभी एक भी चौपाया नहीं आया था. शायद
ही वे कभी कंबल ओढ़कर सोए हों, शायद ही उन्होंने कभी
अंडरवीयर को जाना हो. दुनिया का कोई भी डॉक्टर इस बात की डींग नहीं मार सकता था
कि उसने मेरे दादा मुहम्मद की डॉक्टरी जाँच की थी, उनके
मुँह का मुआयना किया था, नब्ज देखी थी, कभी उन्हें लंबी-लंबी और कभी रुक-रुककर साँस लेने को मजबूर किया था या यह
कि उनका जिस्म ही देखा था. इसी तरह हमारे गाँव में उनके जन्म और मृत्यु की सही
तिथि भी किसी को मालूम नहीं थी. अगर एक अर्जी पर एतबार किया जाए, जो इसलिए लिखित थी कि मेरे पिता जी पर कुछ काली छाया पड़ सके, मेरे दादा मुहम्मद थोड़ी-सी अरबी भी जानते थे. मेरे पिता जी ने उन्हीं
का नाम अपने जेठे बेटे, मेरे सबसे बड़े भाई को दिया.
मेरे
पिता जी के एक चाचा भी थे, जिनका दूसरे लड़के के जन्म
से कुछ ही पहले देहांत हुआ था. चाचा का नाम अखीलची था.
'लो, अखीलची ने नया जन्म ले लिया!' हमारे घर में जब दूसरे लड़के ने जन्म लिया, तो
गाँववालों ने खुश होकर कहा. 'हमारे अखीलची का पुनर्जन्म हो
गया. अगर उसके गरीब घर पर कौवा बैठे, तो मुसीबत नहीं,
कोई खुशी ही लेकर आए. हमारी यह तमन्ना है कि लड़का वैसा ही नेक
आदमी बने, जैसा वह था, जिसका नाम उसे
नसीब हुआ है.'
जब
मुझे जन्म लेना था, तो पिताजी का न तो कोई ऐसा
रिश्तेदार था और न ही दोस्त, जिसकी कुछ समय पहले मृत्यु
हुई हो या जो पराये इलाके में कहीं गुम हो गया हो और जिसका नाम मुझे दिया जा सकता
हो ताकि मैं दुनिया में उसकी वैसी ही इज्जत बनाए रख सकूँ.
जब
मेरा जन्म हुआ, तो पिता जी ने मेरा नाम रखने की रसम अदा
करने के लिए गाँव के सबसे बाइज्जत लोगों को अपने घर बुलाया. वे घर में आकर बड़े
इतमीनान और शान से ऐसे बैठ गए मानो सारे मुल्क की किस्मत का ही फैसला करनेवाले
हों. उनके हाथों में बालखारी के कुम्हारों की बनाई हुई बड़ी-बड़ी तोंदवाली
सुराहियाँ थीं. जाहिर है कि इन सुराहियों में फेनिल बूजा था. सिर्फ सबसे बूढे,
बर्फ की तरह सफेद सिर के बालों और दाढ़ीवाले बुजुर्ग, जो पैगंबर जैसे लगते थे, के हाथ ही खाली थे.
दूसरे
कमरे से बाहर आकर मेरी अम्माँ ने मुझे इस बुजुर्ग के हाथों में सौंप दिया. मैं
बुजुर्ग के हाथों में मचलता रहा और इस बीच अम्माँ ने कहा -
'तुमने कभी पंदूर तो कभी खंजड़ी हाथों में लेकर मेरी शादी में गाया था.
बहुत ही अच्छे थे तुम्हारे गीत. मेरे बच्चे को हाथों में लिए हुए इस वक्त तुम
कौन-सा गीत गाओगे!'
'ऐ देवी! पालना झुलाते हुए उसके लिए गीत तो गाओगी तुम, तुम उसकी माँ. इसके बाद उसके लिए गाएँ परिंदे और नदियाँ. तलवारें और पिस्तौलें
भी उसे गाने सुनाएँ. सबसे अच्छा गीत उसे सुनाए उसकी दुल्हन.'
'तो इसका नाम रख दो. तुम इस वक्त इसे जो नाम दो, वह
मैं, इसकी माँ, सारा गाँव और सारा
दागिस्तान सुने.'
बुजुर्ग
ने मुझे छत तक ऊँचा उठाया और कहा -
'लड़की का नाम सितारे की चमक या फूल की कोमलता जैसा होना चाहिए. मर्द के
नाम में तलवार की टनकार और किताबों की अक्लमंदी को अमली शक्ल मिलनी चाहिए.
किताबें पढ़ते हुए बहुत नाम जाने मैंने, तलवारों की टनकार
में भी बहुत नाम सुने मैंने. मेरी किताब और मेरी तलवारें मेरे कान में अब 'रसूल' नाम फुसफुसाती हैं.'
पैगंबर
जैसे लगनेवाले बुजुर्ग मेरे एक कान पर झुककर 'रसूल'
फुसफुसाए. फिर उनहोंने मेरे दूसरे कान पर झुककर जोर से कहा,
'रसूल!' इसके बाद उन्होंने मुझे रोते हुए को
मेरी माँ के हाथों में सौंप दिया और उसे तथा घर में बैठे सभी लोगों को संबोधित
करते हुए कहा -
'तो यह है रसूल!'
घर
में बैठै लोगों ने मूक सहमति से मेरे नाम की पुष्टि की. बड़े-बूढ़ों ने बूजा पीना
शुरू किया और हर कोई हाथ से मूँछों को साफ करते हुए काँखा.
हर
पहाड़ी को दो चीजों की रक्षा करनी चाहिए - टोपी और नाम की. टोपी बहुत भारी हो सकती
है. नाम भी. ऐसा लगता है कि दुनिया को देखे-जाने और बहुत-सी किताबें पढ़े-गुढ़े
पके बालोंवाले बुजुर्ग ने मेरे नाम में कोई अर्थ और उद्देश्य भर दिया था.
अरबी
भाशा में रसूल का मतलब है - 'दूत' या अगर इससे भी अधिक सही तौर पर कहा जाए, तो 'प्रतिनिधि'. हाँ, तो किसका दूत
या प्रतिनिधि हूँ मैं?
नोटबुक
से . बेल्जियम. मैं संसार के कवि-समागम में भाग ले रहा हूँ. विभिन्न जातियों और
देशों के प्रतिनिधि यहाँ जमा हैं. हर किसी ने मंच पर आकर अपनी जनता, जनता की संस्कृति, कविता, और
भाग्य की चर्चा की. कुछ ऐसे प्रतिनिधि भी थे - लंदन से आनेवाला हंगेरियाई,
पेरिस से आनेवाला एस्तोनियाई, सान-फ्रांसिस्को
से आनेवाला पोलैंडी... इसमें कोई कर ही क्या सकता है - किस्मत ने उन्हें
अलग-अलग देशों, सागरों और पर्वतों, उनकी
मातृभूमियों से दूर ले जाकर फेंक दिया है.
सबसे
ज्यादा तो मुझे उस कवि ने हैरान किया, जिसने यह
कहा -
'महानुभावो, आप अलग-अलग देशों से आकर यहाँ जमा हुए
हैं. आप विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि हैं. केवल मैं ही न तो किसी जाति और और न
किसी देश का प्रतिनिधि हूँ. मैं सभी जातियों, सभी देशों का
प्रतिनिधि हूँ, मैं कविता का प्रतिनिधि हूँ. हाँ, मैं कविता हूँ. मैं वह सूरज हूँ, जो सारी दुनिया को
रोशनी देता है, मैं वह बारिश हूँ जो अपनी जाति का ध्यान किए
बिना सारी पृथ्वी पर पानी बरसाती है, मैं वह पेड़ हूँ,
जो पृथ्वी के हर हिस्से में समान रूप से फूलता-फलता है.'
वह
ऐसा कहकर मंच से नीचे उतर गया. बहुतों ने तालियाँ बजाईं. मैंने सोचा, उसकी बात सही है, निश्चय ही हम कवि सारी दुनिया के
लिए उत्तरदायी हैं, मगर जिसे अपने पर्वतों से प्यार नहीं,
वह सारी पृथ्वी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता. मुझे तो वह उस आदमी
जैसा लगता है, जो अपना घर-घाट छोड़कर किसी दूसरी जगह चला जाए,
वहाँ शादी कर ले और सास को माँ कहने लगे. मैं सासों के खिलाफ नहीं
हूँ, मगर अपनी माँ को छोड़कर कोई दूसरी माँ नहीं हो सकती.
हर
व्यक्ति को अपनी किशोरावस्था से ही यह समझना चाहिए कि वह अपनी जनता का प्रतिनिधि
बनने के लिए इस दुनिया में आया है और उसे यह भूमिका निभाने की जिम्मेदारी अपने
कंधों पर लेने को तैयार रहना चाहिए.
इनसान
को नाम,
टोपी और अस्त्र दिए जाते हैं, पालने के समय
से ही उसे अपने प्यारे गीत सिखाए जाते हैं.
भाग्य
मुझे कहीं भी क्यों न ले जा फेंके, हर जगह ही
मैं अपने को उस धरती, उन पहाड़ों, उस
गाँव का प्रतिनिधि अनुभव करता हूँ, जहाँ मैंने घोड़े पर जीन
कसना सीखा. मैं हर जगह खुद को अपने दागिस्तान का विशेष संवाददाता मानता हूँ.
मगर
अपने दागिस्तान में मैं समूची मानवजाति का विशेष संवाददाता, अपने सारे देश, यहाँ तक कि सारी दुनिया का प्रतिनिधि
बनकर लौटता हूँ.
अपनी धरती के बारे में
कहना चाहा बहुत, नहीं कुछ भी कह पाया,
भरी खुरजियाँ संग लिए हूँ
हाय मुसीबत, मैं तो उनको खोल न पाया!
अपनी भाषा में दुनिया का
गाना चाहा गीत, मगर मैं गा न पाया,
लादे हूँ, संदूक पीठ पर
हाय मुसीबत, ताला पर न खुला-खुलाया!
पहाड़ी
घर की समतल छत पर हम बैठ जाते हैं और मेरे गाँववाले मुझसे पूछने लगते हैं -
'दूर-दराज के मुल्कों में कही कोई हमारा हमवतन नहीं मिला?'
'दुनिया में हमारे पहाड़ों जैसे पहाड़ भी कहीं हैं?'
'अजनबी जगहों पर क्या तुम्हारा मन उदास हुआ, तुम्हें
हमारे गाँव की याद आई?'
'दूसरे देशों में लोग हमारे बारे में जानते हैा या नहीं? उन्हें मालूम है कि इस दुनिया में हम भी रहते हैं?'
मैं
उन्हें जवाब देता हूँ -
'अगर हम खुद ही ढंग से अपने को नहीं जानते, तो वे
हमें कहाँ से जानेंगे. हम कुल दस लाख हैं. हम दागिस्तानी पहाड़ों की पथरीली
मुट्ठी में मानो बंद हैं. दस लाख लोग हैं और चालीस जबानें बोलते हैं...'
'तो तुम ही हमारे बारे में बताओ - खुद हमें भी और सारी दुनिया में रहनेवाले
दूसरे लोगों को भी. सदियों के दौरान खंजरों और तलवारों ने हमारी दास्तान लिखी है.
इसे लोगों की भाषा में बदलकर लिख डालो. अगर तुम, जिसने त्सादा
गाँव में जन्म लिया है, ऐसा नहीं करोगे, तो कोई दूसरा तो यह करने से रहा.
'अपने विचारों को चुने हुए घोड़ों के झुंड में एकत्रित कर लो. ऐसे झुंड में,
जिसमें एक से एक तेज घोड़ा हो, घटिया घोड़ों
का नाम-निशान भी न हो. तुम्हारे विचार डरे हुए घोड़ों या पहाड़ी बकरों के झुंड की
तरह पृष्ठों पर सरपट दौड़ते हुए आएँ.
'अपने भावों को छिपाओ नहीं. छिपाओगे, तो बाद में भूल
जाओगे कि उन्हें कहाँ रख दिया. कोई कंजूस भी कभी-कभी इसी तरह अपने गुप्त खजाने
को भूल जाता और कंजूसी के कारण अपनी दौलत खो बैठता है.
'मगर अपने विचार दूसरों को भी नहीं दो. खिलौने की जगह बच्चे को कीमती साज
तो नहीं देना चाहिए. बच्चा साज को या तो तोड़ देगा या खो देगा या फिर उससे अपने
को जख्मी कर लेगा.
'अपने घोड़े की आदतों को खुद तुमसे ज्यादा अच्छी तरह और कोई नहीं जानता.'
मेरे
पिता जी की पगडंडी का किस्सा . हमारे छोटे-से त्सादा और बड़े खूंजह गाँव के बीच
मोटर सड़क है. खूंजह हलका केंद्र है. मेरे पिता जी आम रास्ते से नहीं, बल्कि अपनी बनाई पगडंडी से ही हमेशा खूंजह जाते थे. उन्होंने ही उस
पगडंडी के निशान बनाए, उसे अपने पैरों से रौंदा और हर सुबह
और हर शाम वे उस पर आते-जाते थे.
अपनी
पगडंडी पर वे अद्भुत फूल ढूँढ़ लेते थे. वे उनका गुलदस्ता तो और भी अद्भुत बनाते
थे.
जाड़े
में वे पगडंडी के दोनों ओर ताजा गिरी बर्फ से लोगों, घोड़ों
और घुड़सवारों की मूतियाँ बनाते. त्सादा और खूंजह के लोग बाद में इन आकृतियों को
देखने आते.
वे
गुलदस्ते कभी के मुरझा और सूख चुके, बर्फ से
बनाई गई आकृतियाँ भी कभी की पिघल चुकीं. मगर दागिस्तान के फूल, मगर पहाड़ी लोगों का स्वरूप मेरे पिता जी की कविताओं में जिंदा है.
जब
मैं किशोर था और मेरे पिता जी अभी जिंदा थे, तो एक बार
मुझे खूंजह जाना पड़ा. मैं बड़े रास्ते से हट गया और मैंने उस पगडंडी पर जाना
चाहा, जो मेरे अब्बा ने बनाई थी. एक बुजुर्ग पहाड़ी ने मुझे
देखकर रोका और बोले -
'पिता की पगडंडी पिता के लिए ही रहने दो. अपने लिए दूसरी, अपनी पगडंडी ढूँढ़ लो.'
बुजुर्ग
पहाड़ी की बात मानते हुए मैं नए मार्ग की खोज में चल दिया. मेरे गीतों की पगडंडी
लंबी और टेढ़ी-मेढ़ी रही, मगर अपने गुलदस्ते के लिए
अपने फूल चुनता हुआ मैं उस पर चल रहा हूँ.
इसी
पगडंडी पर चलते हुए ही पहले पहल इस किताब का ख्याल मेरे दिमाग में आया.
इरादा
बन गया - इसका मतलब है कि बिसमिल्ला हो जाए. बच्चा तो जरूर पैदा होगा, जरूरत तो है उसे सहेजने की, ठीक वैसे ही जैसे नारी
अपने गर्भ को सहेजती है और फिर प्रसव-पीड़ा सहकर, पसीने से
तर-बतर होकर बच्चे को जन्म देती है. किताब भी ऐसे ही लिखी जाती है.
मगर
बच्चे का नाम तो उसके जन्म से पहले ही चुना जा सकता है. अपनी किताब को मैं क्या
नाम दूँ?
फूलों से मैं उसका नाम लूँ? या सितारों से?
या दूसरी बुद्धिमत्तापूर्ण किताबों से चुनूँ?
नहीं, अपने घोड़े पर मैं पराया जीन नहीं कसूँगा. किसी दूसरी जगह से लिया गया नाम
तो केवल उपनाम या लकब ही हो सकता है, नाम नहीं.
यह
तो ऐसा ही है. पर यदि हम शीर्षक की खोज में होते हैं, तो पुस्तक की विषय-वस्तु, अपने सामने रखे गए लक्ष्य
को ही उसका आधार बनाना चाहिए. टोपी सिर के मुताबिक न कि इसके उलट, चुनी जाती है. पंदूर की लंबाई से ही उसके तारों की लंबाई तय होती है.
मेरा
गाँव,
मेरे पहाड़, मेरा दागिस्तान. बस, यही घोंसला है मेरे चिंतन, भावनाओं और कार्य-कलापों
का. पंख निकलने पर इसी घोंसले से मैं उड़ा था. इसी घोंसले में मेरे सभी गीत जन्म
लेते हैं. दागिस्तान - मेरा चूल्हा है, मेरा पालना है.
तो
फिर देर तक सोचने की क्या जरूरत है? पहाड़ों में
बेटे को अक्सर दादा का नाम दिया जाता है. मेरी किताब मेरा बच्चा होगी और मैं
दागिस्तान का बेटा हूँ. इसका मतलब है कि उसका नाम हुआ 'दागिस्तान'. भला इससे अधिक उचित, अधिक सुंदर और सही कोई दूसरा
नाम भी हो सकता है?
कोई
राजदूत किस देश का प्रतिनिधित्व करता है, उसकी मोटर
पर लगी झंडी से इसका पता चलता है. मेरी किताब - मेरा देश है. उसका नाम - झंडी है.
लेखक
के विचार हर पृष्ठ पर, हर पंक्ति में, हर शब्द के लिए आपस में उलझते हैं. तो मेरे विचार भी किसी अंतरराष्ट्रीय
गोष्ठी में कार्य-सूची से आरंभ करके लगातार शब्दों की हाथापाई में उलझनेवाले
मंत्रियों की तरह पुस्तक के नाम के बारे में बहस शुरू कर रहे हैं
तो
एक मंत्री ने भावी पुस्तक को एक शब्द 'दागिस्तान'
नाम देने का सुझाव पेश किया. दूसरे मंत्री को यह नहीं रुचा. अपने
सामने कागज खोलते हुए उसने एतराज किया -
'यह नाम नहीं चलेगा. ठीक नहीं रहेगा. छोटी-सी किताब को भला सारे देश का नाम
कैसे दिया जा सकता है? बाप की टोपी तो बच्चे के सिर पर नहीं
रखी जा सकती, बच्चे का सिर ही उसमें गायब हो जाएगा.'
'क्यों ठीक नहीं रहेगा?' सुझाव देनेवाले मंत्री ने
उसकी बात काटी. 'चाँद जब आसमान में तैरता है और सागर या नदी
की चिकनी सतह पर प्रतिबिंबित होता है, तो उसके प्रतिबिंब को
भी चाँद ही कहते हैं, न कि कुछ और. इस प्रतिबिंब के लिए क्या
कोई दूसरा नाम गढ़ने की जरूरत है? हाँ, यह सही है कि एक किस्से में लोमड़ी भेड़िये को चाँद का प्रतिबिंब दिखाकर
उसे यह विश्वास दिला देती है कि वह चर्बी का टुकड़ा है और भेड़िया बेवकूफ बनकर नदी
में कूद पड़ता है. मगर लोमड़ी तो जानी-मानी धोखेबाज और मक्कार है.'
'नहीं चलेगा. ठीक नहीं रहेगा,' दूसरा मंत्री अपनी बात
पर अड़ा रहा. 'दागिस्तान तो सबसे पहले भौगोलिक अर्थ का सूचक
है. पर्वत, नदियाँ, दर्रे, सोते, यहाँ तक कि सागर भी. मुझसे तो जब कोई 'दागिस्तान' कहता है, तो सबसे
पहले भौगोलिक मानचित्र ही मेरे सामने उभरता है.'
'जी नहीं!' मैंने दखल देते हुए कहा. 'मेरा दिल दागिस्तान से लबालब भरा हुआ है, मगर वह
भौगोलिक मानचित्र नहीं है. मेरे दागिस्तान की भौगोलिक या दूसरी भी कोई सीमाएँ
नहीं हैं. न ही मेरा दागिस्तान सुंदर, क्रमबद्ध रूप से एक
सदी से दूसरी सदी की धारा में बहता है. मेरी किताब, अगर
मैंने उसे कभी लिख लिया, तो वह दागिस्तान के बारे में
पाठयपुस्तक जैसी नहीं होगी. मैं सदियों को घुला-मिला दूँगा, फिर ऐतिहासिक घटनाओं का सार, जनता और 'दागिस्तान' शब्द का निचोड़ निकाल लूँगा.'
ऐसा
लग सकता है कि दागिस्तान सभी दागिस्तानियों के लिए एक जैसा है, समान है. फिर भी हर दागिस्तानी का अपना दागिस्तान है.
मेरा
भी अपना दागिस्तान है. इस रूप में केवल मैं ही इसे देखता हूँ, केवल मैं ही जानता हूँ. दागिस्तान में मैंने जो कुछ देखा, जो कुछ अनुभव किया, मुझसे पहले के और मेरे साथ
जीनेवाले सभी दागिस्तानियों ने जो कुछ अनुभव किया, गीतों और
नदियों, कहावतों और चट्टानों, उकाबों
और नालों, पहाड़ी पगडंडियों और यहाँ तक कि पहाड़ों की
प्रतिध्वनि से भी मेरे अपने दागिस्तान का रूप बना है.
नोटबुक
से . किस्लोवोद्स्क. कमरे में हम दो जने रहते हैं. एक मैं हूँ और दूसरा उज्बेक
है. सूर्योदय और सूर्यास्त के समय हमें खिड़की में से एल्बुज की दोनों चोटियाँ
नजर आती हैं.
मैं
सोचता हूँ कि ये शामिल के दो मुरीदों, दो दोस्तों
के घुटे हुए और जख्मों से भरे सिर जैसी हैं.
इसी
वक्त मेरा उज्बेक साथी कहता है -
'दो सिरोंवाला यह पहाड़ मुझे बुखारा के सफेद बालोंवाले उस बुजुर्ग की याद
दिलाता है, जो पुलाव की दो प्लेटें लिए जा रहा था और सुबह
के वक्त घाटी के नजारे से मुग्ध होकर अचानक रुका और जहाँ-का-तहाँ बुत बना खड़ा
रह गया.'
नोटबुक
से. कलकत्ते में महान रवींद्रनाथ टैगोर के घर में मैंने एक पक्षी का चित्र देखा.
ऐसा पक्षी पृथ्वी पर कहीं नहीं है और न कभी था ही. टैगोर की आत्मा में उसका जन्म
हुआ और वहीं वह रहा. वह उनकी कल्पना का परिणाम था. मगर, जाहिर है कि अगर टैगोर ने हमारी दुनिया के असली पर्रिदे न देखे होते,
तो वे अपने इस अद्भुत पक्षी की भी कल्पना न कर पाते.
मेरा
भी ऐसा ही अनूठा परिंदा है - मेरा दागिस्तान. तो इसलिए कि पुस्तक का नाम बिल्कुल
सही हो,
उसे 'मेरा दागिस्तान' कहना
चाहिए. ऐसा इसलिए नहीं कि वह संपत्ति के रूप में मेरा है, बल्कि
इसलिए कि उसके बारे में मेरी कल्पना दूसरे लोगों की कल्पना से भिन्न है.
सो
तय हो गया. मुखावरण पर लिखा जाएगा 'मेरा दागिस्तान'.
मंत्रियों
की सभा में कुछ देर तक खामोशी रही, किसी ने कोई
आपत्ति नहीं की. मगर अचानक तीसरा मंत्री, जो अभी तक चुपचाप
बैठा रहा था, अपनी जगह से उठकर मंच की तरफ चल दिया.
'मेरा दागिस्तान. मेरे पर्वत. मेरी नदियाँ. कुछ बुरा नहीं है इसमें. केवल
युवावस्था, विद्यार्थी जीवन के दिनों में ही होस्टल में
रहना अच्छा होता है. बाद में आदमी का अपना कमरा या अपना फ्लैट होना चाहिए. 'मेरा चूल्हा' - इतना कहना ही काफी नहीं है, चूल्हे में आग भी होनी चाहिए. 'मेरा पालना'-
इतना कहने से ही काम नहीं चलता, पालने में बच्चा
भी होना चाहिए. 'मेरा दागिस्तान'- इतना
कहना ही काफी नहीं, इन शब्दों की तह में कोई विचार - दागिस्तान
का भाग्य, उसका आज का दिन भी होना चाहिए. दागिस्तान के कवि
सुलेमान स्ताल्स्की अपनी सूझबूझ के लिए विख्यात हैं. वे उस बात को समझते थे,
जो मैं अब कहना चाहता हूँ. उन्होंने कहा है, 'मैं न तो लेजगीन, न दागिस्तानी और न काकेशियाई कवि
हूँ. मैं सोवियत कवि हूँ. मैं इस समूचे विराट देश का स्वामी हूँ.' तो ऐसा कहा है पके बालोंवाले अक्लमंद सुलेमान ने. मगर तुम एक ही रट लगाए
जा रहे हो - मेरा गाँव, मेरे पर्वत, मेरा
दागिस्तान. ऐसा सोचा जा सकता है कि तुम्हारे लिए दागिस्तान से ही सारी दुनिया
का आरंभ और अंत होता है. मगर क्या क्रेम्लिन से ही दुनिया की शुरुआत नहीं हुई?
यही है, जो मुझे किताब के तुम्हारे नाम में
महसूस नहीं होता. तुमने सीना तो बना दिया, मगर उसमें धड़कता
हुआ दिल रखना भूल गए. तुमने आँखें तो बना दीं, मगर उसमें
धड़कता हुआ दिल रखना भूल गए. तुमने आँखें तो बना दीं, मगर
उनमें भावों की चमक पैदा करना भूल गए. ऐसी निर्जीव आँखे अंगूरों के समान होती हैं.'
मंच
से ऐसी बढ़िया उपमा देकर यह तीसरा मंत्री मोटी-मोटी और बड़ी गंभीर पुस्तकों के
उद्धरणोंवाला कागजों का पुलिंदा बगल में दबाकर बड़ी शान से अपनी सीट की तरफ चल
दिया. साथ ही उसने दूसरों की तरफ ऐसे देखा मानो उसके शब्दों के बाद वे उसी तरह
कुछ न कह सकते हों, जैसा कि जज के फैसले के बाद
होता है.
मगर
इसी वक्त सभा में भाग लेनेवाला एक अन्य मंत्री भागकर मंच पर आ खड़ा हुआ. वह
जिंदादिल,
खुशमिजाज और दूसरों के मुकाबले में कुछ कम उम्र भी था. उसने अपना
भाषण दूसरों की तरह नहीं, बल्कि कविता से आरंभ किया-
जब तक कोई बैठा है, हम जान न पाएँ
लंगड़ा है वह, या कि नहीं है वह लंगड़ा,
जब तक कोई सोता है, हम जान न पाएँ
अंधा है वह, या कि नहीं है वह अंधा,
जब तक कोई खाता है, हम जान न पाएँ
बुजदिल है वह, या कि वीर है बहुत बड़ा,
जब तक कोई चुप रहता, हम जान न पाएँ
सच्चा है वह या कि झूठ उसका धंधा.
'तो मैं यह कहना चाहता हूँ,' उसने अपनी बात जारी रखते
हुए कहा, 'निश्चय ही जब कोई विचार हो, तो अच्छा रहता है, विशेषकर ऐसा विचार, जिसका मुझे पहलेवाले वक्ता ने उल्लेख किया है. मगर कुछ ज्यादा
विचारोंवाले साथी भी तो होते हैं. ऐसे लोगों से तो केवल विचार को ही हानि पहुँचती
है. मैं इत्तला गाँव के एक ऐसे ही मिखाईल की याद दिलाना चाहता हूँ...'
सभा
में चूँकि हर वक्ता के लिए समय निर्धारित नहीं किया गया था, इसलिए भाषणकर्ता ने प्रसंगवश हमें अपने मिखाईल का किस्सा भी सुना दिया.
खूंजह
हलका पार्टी कमिटी में मिखाईल ग्रिगोरियेविच हुसैनोव साईस का काम करता था. दरअसल, वह मिखाईल नहीं, मुहम्मद था. गृह-युद्ध के दिनों
में किसी दूसरी जगह रहा और अपने जन्म-स्थान पर मुहम्मद नहीं, बल्कि मीशा बनकर लौटा. मतलब यह कि उसने अपना दागिस्तानी नाम बदल लिया.
उसके बूढ़े बाप ने तब इस नवजात मीशा से कहा -
'तुम्हारी माँ तुम्हारा मातम मनाए! बेशक मैंने तुम्हें मुहम्मद नाम
दिया था, फिर भी यह तुम्हारा नाम है और तुम उसके साथ जैसा
भी चाहो, बर्ताव करने का हक रखते हो. मगर मेरे साथ ऐसा
बर्ताव करने की इजाजत तुम्हें किसने दी? हसन को ग्रिगोरी
में बदलने का हक तुम्हें किसने दिया? मैं तुम्हारा बाप हूँ,
अभी जिंदा हूँ! और हसन ही रहना चाहता हूँ!'
गृह-युद्ध
में भाग लेनेवाला अटल रहा. वह मिखाईल ग्रिगोरियेविच ही बना रहा और इसी उपाधि के
साथ खूंजह हलका पार्टी कमिटी में साईसी करता रहा.
उसकी
समझ-बूझ के घोड़े बहुत कम और कमजोर थे, मगर वह अपने
को अत्यधिक विचारवान व्यक्ति मानता था और सभी जगह इसकी चर्चा करता था. बहुत से
लोग उसे विचारों का सबसे उत्साहशील संघर्षकर्ता भी मानने लगे.
एक
बार हमारे उस्ताद हाजी की इसलिए मलामत की गई कि उसके दूर के रिश्ते का एक भाई
शायद कोई शाहजादा था. उस्ताद हाजी ने अपने पार्टी-फार्म में यह नहीं लिखा था.
पार्टी
की इस मलामत की वजह से भारी मन लिए हाजी धीरे-धीरे अपने बातलाहीच गाँव जा रहा था.
रास्ते में हलका पार्टी कमिटी का साईस मिखाईल ग्रिगोरियेविच उससे आ मिला. हाजी ने
उससे अपनी मुसीबत का जिक्र किया.
'मलामत तो बहुत कम है तुम्हारे लिए! पार्टी से निकाल दिया जाना चाहिए था.
तुम कैसे पार्टीवाले हो, कैसे कम्युनिस्ट हो? असली कम्युनिस्ट को तो जहाँ जरूरी था, खुद ही सब
कुछ लिख देना चाहिए था... बेशक वह दूर के रिश्ते का ही नही, सगा भाई, सगी बहन या सगा बाप ही क्यों न होता...'
उस्ताद
ने नजर ऊपर उठाई, मिखाईल ग्रिगोरियेविच की तरफ
देखा और कहा -
'सही तौर पर ही तुम्हें अत्यधिक विचारवान माना जाता है. हैरानी होती है
कि कैसे तुमने दागिस्तान के सभी पर्वतों को अब तक समतल नहीं कर दिया. सीधे खड़े
पर्वतों की तुलना में समतल स्थान अधिक 'विचारपूर्ण' और सुगम-सरल होते हैं. पर खैर तुम जैसों से बात करना बेकार है.'
यद्यपि
दोनों को एक ही गाँव जाना था, तथापि हाजी सड़क छोड़कर
पासवाली पगडंडी पर हो लिया.
'कहाँ चल दिए तुम?' मिखाईल ग्रिगोरियेविच को आश्चर्य
हुआ.
'तुम्हें इससे क्या मतलब है - हमारा रास्ता एक नहीं है.'
'मगर मैं तो कम्युनिज्म की तरफ जा रहा हूँ. अगर तुम इसकी उल्टी दिशा में
जाना चाहते हो, तो...'
'कम्युनिज्म की तरफ भी मैं तुम्हारे साथ नहीं जाना चाहता. देखेंगे कि
हममें से कौन वहाँ जल्दी पहुँचता है.'
यह
किस्सा खत्म करके वक्ता ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा -
एक
कवि ने चरवाहे के बारे में ऐसी कविता लिखी है -
लो, पहाड़ों में कुहासा छँट गया है
रास्ता है साफ, अब उज्ज्वल,
कम्युनिज्म में, रे गड़रिये
तू सभी भेड़ें, लिए चल.
या
फिर विचारों के ऐसे ही एक दूसरे दीवाने ने हलका पार्टी कमिटी को यह अर्जी लिख भेजी
- 'मेरे सारे प्रयासों, यहाँ तक कि शारीरिक जोर-जबर्दस्ती
के बावजूद मेरी पत्नी पर्याप्त लगन के साथ 'कम्युनिस्ट
पार्टी (बोल्शेविक) का संक्षिप्त इतिहास' नहीं पढ़ती.
वैचारिक शिक्षा में सहायता देने के उद्देश्य से मैं हलका कमिटी से अपनी पत्नी पर
प्रभाव डालने का अनुरोध करता हूँ.'
या
फिर दागिस्तान के लेखक संघ के दरवाजे पर एक बार यह भयानक घोषणा दिखाई दी - 'गहरी सैद्धांतिक तैयारी के बिना तुम्हें इस दरवाजे को लाँघने का अधिकार
नहीं है.'
मशहूर
बुजुर्ग शायर अबूतालिब गफूरोव किसी काम से लेखक-संघ जा रहे थे, मगर यह चेतावनी पढ़कर लौट गए.
या
फिर बहुजातीय नगर, मखचकला में ईसाइयों, मुसलमानों और यहूदियों के अलग-अलग कब्रिस्तान हैं. जनतंत्र से सक्रिय
कार्यकर्ताओं की बैठक में एक अत्यधिक विचारवान साथी ने अपने भाषण में यह कहा -
'हम जातियों के बीच मैत्री सुदृढ़ करने के लिए हर दिन अथक संघर्ष कर रहे
हैं. मगर फिर भी हमारे यहाँ कितने ही अलग-अलग कब्रिस्तान हैं. अब एक साझा कब्रिस्तान
बनाने का वक्त आ गया है. उसके नाम के बारे में भी सोचा जा सकता है. मिसाल के तौर
पर 'एक ही परिवार के बच्चे' यानी कुछ
ऐसा ही... उदाहरण के लिए, मेरे माँ-बाप भगवान को मानते थे,
उसकी पूजा करते थे. भला मैं, जो 1937 से पार्टी का सदस्य हूँ, एक ही कब्रिस्तान में
उनके साथ कैसे लेट सकता हूँ. नहीं, बहुत पहले से ही हमारे
शहर में अधिक ऊँचे वैचारिक स्तर पर कब्रिस्तान बनाया जाना चाहिए था.'
कहते
हैं कि कुछ ही समय पहले वह बेचारा चल बसा और नया काब्रिस्तान नहीं देख पाया.
'इसलिए मैं यह कहता हूँ' आवाज ऊँची करते हुए मंत्री
ने अपनी बात जारी रखी, 'मेरा दागिस्तान - यह तो जैसे टोपी
है. अधिक महत्वपूर्ण क्या है, टोपी या सिर! मैं आपको यह
किस्सा सुनाता हूँ कि तीन शिकारियों ने कैसे एक भेड़िये का शिकार करना चाहा.
शिकारी
का सिर था या नहीं! तीन शिकारियों को यह पता चला कि गाँव से थोड़ी ही दूर दर्रे
में एक भेड़िया छिपा हुआ है. उन्होंने उसे खोजने और मार डालने का फैसला किया. कैसे
उन्होंने उसका शिकार किया, लोग अलग-अलग ढंग से यह बात
सुनाते हैं. मुझे तो बचपन से यह किस्सा इस तरह याद है.
शिकारियों
से बचने के लिए भेड़िया गुफा में जा छिपा. उसमें जाने का एक ही, और वह भी बहुत तंग रास्ता था- सिर तो उसमें जा सकता था, मगर कंधे नहीं. शिकारी पत्थरों के पीछे छिप गए, अपनी
बंदूकें उन्होंने गुफा के मुँह की तरफ तान लीं और भेड़िये के बाहर आने का इंतजार
करने लगे. मगर लगता है कि भेड़िया भी कुछ मूर्ख नहीं था. वह आराम से वहाँ रहा. मतलब
यह कि हार उसकी होगी, जो बैठे-बैठे और इंतजार करते-करते पहले
ऊब जाएगा.
एक
शिकारी ऊब गया. उसने किसी-न-किसी तरह गुफा में घुसने और वहाँ से भेड़िये को निकालने
का फैसला किया. गुफा के मुँह के पास जाकर उसने उसमें अपना सिर घुसेड़ दिया. बाकी
दो शिकारी देर तक अपने साथी की तरफ देखते और हैरान होते रहे कि वह आगे रेंगने या
फिर सिर बाहर निकालने की ही कोशिश क्यों नहीं करता. आखिर वे भी इंतजार करते-करते
तंग आ गए. उन्होंने शिकारी को हिलाया-डुलाया और तब उन्हें इस बात का यकीन हो गया
कि उसका सिर नहीं है.
अब
वे यह सोचने लगे - गुफा में घुसने के पहले उसका सिर था या नहीं? एक ने कहा कि शायद था, तो दूसरा बोला कि शायद नहीं
था.
सिर
के बिना धड़ को वे गाँव में लाए, लोगों को घटना सुनाई. एक
बुजुर्ग ने कहा, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि शिकारी
भेड़िये के पास गुफा में घुसा, वह एक जमाने से ही, यहाँ तक कि पैदाइश से ही सिर के बिना था. बात को साफ करने के लिए वे उसकी
विधवा हो गई बीवी के पास गए.
'मैं क्या जानूँ कि मेरे पति का सिर था या नहीं? सिर्फ
इतना ही याद है कि हर साल वह अपने लिए नई टोपी का आर्डर देता था.'
विचार
तो शब्दों में नही, काम में होना चाहिए. वह स्वयं
पुस्तक में होना चाहिए, न कि मुखावरण से चिल्लाए. वह शब्द,
जो भाषण के अंत में कहा जा सकता है, उसे शुरू
में ही कहने की जरूरत नहीं होती.
नवजात
शिशु की छाती पर अक्सर गंडा-ताबीज लटका दिया जाता है ताकि उसकी जिंदगी आराम-चैन
से कटे,
वह बीमार न हो, उसे दुख-मुसीबतों का सामना न
करना पड़े. हम इस बहस में नहीं पड़ेंगे कि गंडे-तावीज से कोई फायदा होता है या
नहीं, मगर इतना सभी जानते हैं कि उसे कमीज के नीचे पहना जाता
है, उसकी बाहर नुमाइश नहीं की जाती.
हर
किताब में ऐसा ही गंडा-तावीज होना चाहिए, जिसका लेखक
को पता हो, जिसके बारे में पाठक अनुमान लगाए, मगर जो कमीज के नीचे छिपा हो.
या
फिर जब उर्बेच बनाया जाता है, तो उसमें थोड़ा-सा शहद
मिला दिया जाता. शहद मीठा और सुगंधित पेय में बदल जाता है, मगर
उसे न तो देखा और न छुआ जा सकता है.
या
फिर बंबई में एक ऐसा बाग है, जो हमेशा हरा-भरा रहता
है. इर्द-गिर्द खुश्की और बेहद गर्मी के बावजूद वह न तो कभी मुरझाता है और न
सूखता है. मामला यह है कि बाग के नीचे किसी को भी नजर न आनेवाली झील है, जो वृक्षों को ठंडी, प्राणदायी नमी प्रदान करती है.
विचार
वह पानी नहीं है, जो शोर मचाता हुआ पत्थरों पर
दौड़ लगाता है, छींटे उड़ाता है, बल्कि
वह पानी है, जो अदृश्य रूप से मिट्टी को नम करता है और
पेड़-पौधों की जड़ों को सींचता है.
'इसका क्या मतलब निकला है!' उछलकर खड़े होते और मेज
पीटते हुए उस मंत्री ने चिल्लाकर कहा, जो किताबों और
उद्धरणों से घिरा हुआ था. 'इसका मतलब यह निकलता है कि टोपी
को सफेद पगड़ी, लाल फीते या पाँच नोकोंवाले सितारे-किस चीज
से सजाया जाता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? इसका तो यह मतलब निकलता है कि आदमी छाती पर लाल तमगा लगाता है या काली
सलीब, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? आपके
मुताबिक तो सिर्फ नेक दिल का होना ही काफी है. तानूस्सी गाँव के हसन की तरह एक
आदमी को एक साथ गोनोह में अध्यापक, गीनवचूतल में युवा कम्युनिस्ट
संघ का सेक्रेटरी और खूंजह में मुल्ला नहीं होना चाहिए. किताब पर भी यही बात लागू
होती है. नहीं, नहीं, हरगिज नहीं!
विचार - यह तो झंडा है और उसे नजर से नहीं छिपाना चाहिए. उसे ऊँचा उठाकर ऐसे ले
जाना चाहिए कि सभी लोग देखें और उसके पीछे चलें.'
'अहा! जो तुम्हारे शब्दों का विरोध करे, उसकी बीवी
उसे दगा दे,' अपेक्षाकृत युवा मंत्री ने फिर से कहना शुरू
किया, 'मगर तुम ऐसे करना चाहते हो कि झंडा अलग हो और उसे
देखनेवाले लोग अलग हों. मतलब यह कि विचार लोगों की आत्माओं और हृदयों से अलग जिएँ.
तुम उन्हें दो अलग-अलग घोड़ा-गाड़ियों अगर अचानक अलग-अलग दिशा में चल दीं, तो? तुम कहते हो कि आदमी को न तो अवार, न दागिस्तानी, बल्कि सिर्फ सोवियत होना चाहिए. मगर
मिसाल के लिए, मैं अपने को अवार, दागिस्तान
का बेटा, और साथ ही सोवियत संघ का नागरिक अनुभव करता हूँ. क्या
ये भावनाएँ एक दूसरी का विरोध करती हैं?'
जैसा
कि सभी जानते हैं, क्रेम्लिन से दुनिया शुरू
होती है. मैं भी इससे सहमत हूँ. मगर मेरे लिए इसके अलावा दुनिया का आरंभ मेरे चूल्हे,
मेरे पहाड़ी घर की दहलीज, मेरे गाँव से भी
होता है. क्रेम्लिन और गाँव, कम्युनिज्म के विचार और
मातृभूमि की भावना-पक्षी के दो पंख हैं, मेरे पंदूर के दो
तार हैं.
'तो फिर एक टाँग पर भचककर चलने की क्या जरूरत है? तब
किताब का दूसरा नाम भी सोचना चाहिए ताकि वह उसका आंतरिक सार अभिव्यक्त करे.'
मैंने
उसे हर जगह तलाश किया. भारत की यात्रा करते हुए मैं दागिस्तान के बारे में सोचता
रहा. उस देश की पुरातन संस्कृति, उसके दर्शन में मुझे
किसी रहस्यपूर्ण कंठ की ध्वनियाँ सुनाई दीं. मगर मेरे लिए मेरे दागिस्तान की ध्वनि
सर्वथा वास्तविक है और वह तो पृथ्वी पर बहुत दूर तक भी सुनाई देती है. कभी वह
वक्त भी था, जब वीरान दर्रे और नंगी चट्टानें ही 'दागिस्तान' शब्द को प्रतिध्वनित करती थीं. अब वह
सारे देश, सारी दुनिया में गूँजता है और करोड़ों दिलों में
उसकी प्रतिध्वनि होती है.
नेपाल
के बौद्धमठों में, जहाँ बाईस स्वास्थ्यप्रद
धाराएँ बहती हैं, मैंने दागिस्तान के बारे में सोचा. मगर
नेपाल अभी तराशा हुआ हीरा नहीं है और मैं अपने दागिस्तान से उसकी तुलना नहीं कर
सकता था, क्योंकि दागिस्तान का हीरा तो कई शीशे काट चुका
है.
अफ्रीका
में भी मैंने दागिस्तान के बारे में सोचा. तब मुझे ऐसे खंजर की याद आई, जो म्यान से केवल एक-चौथाई बाहर निकाला गया हो. दूसरे देशों - कनाडा,
इंग्लैंड, स्पेन, मिस्र,
जापान में भी मैं दागिस्तान के बारे में सोचता रहा - उनके साथ
दागिस्तान की समानता या भिन्नता खोजता रहा.
युगोस्लाविया
की यात्रा करते हुए एक बार मैं एड्रियाटिक सागर के तटवर्ती, अद्भुत दुब्रोव्निक नगर में जा पहुँचा. इस नगर में घर और सड़कें दर्रों और
चट्टानों, अनेक उभारों और समतल स्थानों से मिलती-जुलती हैं.
घर के दरवाजे कभी-कभी तो चट्टान को तोड़कर बनाए गए गुफाद्वार जैसे लगते हैं. मगर
मध्ययुगीन और उनसे भी अधिक प्राचीन घरों की बगल में ही आधुनिक मकान भी बन रहे हैं.
हमारे
दरबंद शहर की भाँति सारे नगर के गिर्द एक दीवार है. इसी दीवार पर मैं तंग, खड़े रास्तों और पथरीली सीढ़ियों से चढ़ा. सारी दीवार के साथ-साथ समान
फासले पर पथरीली मीनारें खड़ी हैं. हर मीनार में दो कठोर आँखों की तरह दो सूराख
हैं. ये मीनारें बड़ी लगन और वफादारी से खिदमत करनेवाले किसी इमाम के मुरीदों के
समान लगती हैं.
दीवार
पर रेंगते हुए मैं मीनारों के भीतर बने सूराखों में से झाँकना चाहता था. मैंने
फौरन ऐसा किया होता, मगर वहाँ यात्रियों की भीड़
लगी थी और मैं सूराखों के करीब न जा सका. दूर से सूराखों के बीच से मुझे आसमानी
रंग के छोटे-छोटे टुकड़ों की ही झलक मिली. ये टुकड़े सूराखों जितने और सूराख हथेली
के बराबर थे.
आखिर
जब मैंने नजदीक जाकर सूराख के साथ अपना चेहरा सटाया, तो
जनवरी महीने की धूप में हहराता हुआ विराट सागर देखकर दंग रह गया. वह बड़ा प्यारा-सा
था, क्योंकि एड्रियाटिक सागर फिर भी दक्षिणी सागर है,
और साथ ही वह बड़ा बेचैन था, क्योंकि आखिर तो
जनवरी का महीना था. सागर आसमानी नहीं, रंग-बिरंग था. वह अपनी
लहरों को तटवर्ती चट्टानों पर फेंकता था, वे तोप का सा धमाका
करती हुई चट्टानों से टकरातीं और वापिस लौट जातीं. सागर में जहाज तैर रहे थे और
उनमें से प्रत्येक हमारे गाँव के बराबर था.
मैं
अभी भी यात्रियों के पीछे खड़ा था और विराट संसार पर नजर डाल लेने के लिए पंजों पर
उचका हुआ था. आखिर खिड़की के पास जाकर उसे अच्छी तरह देख लेने के बाद मुझे फिर से
दागिस्तान का ध्यान हो आया.
दागिस्तान
भी तो अपनी बारी के इंतजार में पीछे ही खड़ा रहा था, वह
भी तो अपने पंजों पर उचका रहा था और आगे खड़े खुशकिस्मतों की चौड़ी पीठें उसके
लिए भी तो बाधा बनी रही थीं. अब उसने किले की दीवार की छोटी-सी खिड़की में से मानो
सारी दुनिया को देख लिया है. विराट संसार में वह खुद घुल-मिल गया है, अपने रस्म-रिवाजों, तौर-तरीकों, गीतों और अपनी गरिमा को उसने उसका अंग बना दिया है.
दागिस्तान
के बारे में अपनी भावना को व्यक्त करने के लिए विभिन्न कवियों ने विभिन्न
समयों में विभिन्न उपमाएँ ढूँढ़ीं. दर्द भरे गायक महमद ने दागिस्तान की जातियों
के बारे में यह कहा था कि वे पहाड़ी नदियों के समान हैं, जो लगातार घुल-मिलकर एक धारा बन जाना चाहती हैं, मगर
ऐसा नहीं कर पातीं और हरेक अलग-अलग ही बहती जा रही है. उन्होंने यह भी कहा है कि
दागिस्तान की जातियाँ उन्हें तंक दर्रे के फूलों की याद दिलाती हैं, जो एक-दूसरे की तरफ झुकते हैं, मगर गले नहीं लग पाते.
मगर क्या दागिस्तान की जातियाँ अब एक पहाड़ी धारा नहीं बन गई, उन्होंने एक गुलदस्ते का रूप नहीं ले लिया?
बातीराई
ने कहा है कि जिस तरह गरीब आदमी भेड़ की खाल का अपना फटा-पुराना कोट किसी कोने में
फेंक देता है, उसी तरह टुकड़े-टुकड़े हुआ दागिस्तान
पहाड़ी दर्रों में फेंक दिया गया है.
दागिस्तान
का इतिहास पढ़ने के बाद मेरे पिता जी ने दागिस्तान की तुलना सींग के उस जाम से की
थी,
जिसे पीने के वक्त शराबी एक-दूसरे की तरफ बढ़ाते जाते हैं.
मैं
किससे तुम्हारी तुलना करूँ, मेरे दागिस्तान?
तुम्हारे भाग्य, तुम्हारे इतिहास के बारे
में अपने विचार व्यक्त करने के लिए कौन-सी उपमा ढूँढ़ूँ? शायद
बाद में मुझे बेहतर और अधिक जँचते हुए शब्द मिल जाएँ, मगर
आज तो मैं यही कहता हूँ - 'संसार के महान महासागर की ओर छोटी
खिड़की.' या अधिक संक्षिप्त रूप से - 'महान महासागर में खुलनेवाली छोटी खिड़की.'
तो
साथी मंत्रियो, यह है दूसरा नाम उस किताब का, जो मैं लिखने जा रहा हूँ. मैं यह समझता हूँ कि दूसरे देश मेरे दागिस्तान
के पड़ोसी भी अपने बारे में ऐसा ही कह सकते हैं. इसमें क्या बुरी बात है, बेशक उसके हमनाम भी हों.
तो
लीजिए 'मेरा दागिस्तान' है मेरी टोपी और 'महान महासागर में खुलनेवाली छोटी खिड़की' है उस पर
लगा हुआ सितारा.
मैंने
अपना दो तारोंवाला पंदूर सुर कर लिया है और मैं उसे बजाने को तैयार हूँ. सिलाई
करने के लिए तैयार व्यक्ति की भाँति मैंने सूई में धागा डाल दिया है.
मेरे
मंत्रियों ने किताब का नाम स्वीकार कर लिया, उसी तरह
जैसे अंतरराष्ट्रीय सभा में मंत्रीगण आखिर तो कार्य-सूची को स्वीकार कर लेते हैं.
ऐसा
भी होता है कि दो भाई बड़े प्यार से एक ही घोड़े पर सवार होकर जाते हैं. ऐसा भी
होता है कि एक नौजवान दो घोड़ों को एक ही लगाम से पानी पिलाने ले जाता है.
अबूतालिब
ने कहा है कि टोपी तो उसने लेव तोलस्तोय जैसी खरीद ली, मगर वैसा सिर कहाँ खरीदेगा?
कहते
हैं कि नाम तो उसका अच्छा है, मगर वह बड़ा होकर खुद
कैसा आदमी बनेगा?
(जारी)
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