पहाड़ी उकाब
...शक्ति और गरिमा से
मेरी धरती ओत-प्रोत है
तरह-तरह के विहग कि
जिनके प्यारे, मधुर तराने हैं,
उनके ऊपर उड़ते रहते, विहग देवताओं जैसे
वे उकाब, जिनके बारे में बहुत गीत हैं, गाने हैं.
इसी हेतु कि उनकी
ऊँचे नभ में झलक मिले
बने संतरी रहें, भयानक, दुर्दिन जब आएँ;
दूर, पहुँच के बाहर जो ऊँची-ऊँची चट्टानें हैं
वे रहते हैं वहीं, नीड़ उनके नभ छू जाएँ.
कभी अकेला, बड़े गर्व से वह उड़ान जब भरता है,
धुंध-कुहासे को पंखों
से चीर-चीर तब बढ़ता है,
और कभी खतरे में मानो
झुंड, बड़ा-सा दल उनका
नीले सागर और महासागर
के ऊपर उड़ता है.
बहुत दूर, ऊँचाई पर वे धरती के ऊपर उड़ते
अपनी तेज नजर से जैसे
रक्षक वन भू को तकते
भारी, गहरे स्वर में उनकी चीख, किलक सुनकर कौवे
दूर भाग जाते हैं
डरकर, दिल उनके धक-धक करते.
उसी तरह से मैं घंटों
तक, जैसे अपने बचपन में
हिम से मढ़े हुए
शिखरों को, देख अभी भी सकता हूँ,
कैसे उड़ते हैं उकाब, फैलाकर अपने पंख वहाँ
किसी प्रेम-दीवाने-सा
मैं, मुग्ध अभी हो सकता हूँ.
कभी पहाड़ों पर से
अपनी नजर दूर दौड़ाते हैं
और कभी स्तेपी-मैदानों
में वे उड़ते जाते हैं
सबसे अधिक दिलेर, साहसी पर्वतवासी जो होते
ये उकाब मेरी धरती के, सभी जगह कहलाते हैं.
जापानी
लोग सारसों को ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण पक्षी मानते हैं. उनमें ऐसा माना जाता है
कि अगर कोई बीमार आदमी कागज के एक हजार सारस बना लेता है तो वह स्वस्थ हो जाएगा.
उड़ते हुए सारसों, खास तौर पर फूजीयामा पर्वत के
ऊपर से उड़े जा रहे सारसों के साथ जापानी लोग अपनी खुशियों और गमों, मिलन और जुदाई, सपनों और प्यारी स्मृतियों के
सूत्र-संबंध जोड़ते हैं.
सारस
मुझे भी अच्छे लगते हैं. फिर भी जब जापानियों ने मुझसे यह पूछा कि कौन-सा पक्षी
मुझे सबसे ज्यादा प्यारा लगता है तो मैंने जवाब दिया - उकाब. उन्हें यह अच्छा
नहीं लगा.
लेकिन
कुछ ही समय बाद टोकियो में आयोजित प्रतियोगिता में जब हमारा पहलवान अली अलीयेव
विश्व-चैंपियन बन गया तो मेरे एक जापानी दोस्त ने मुझसे कहा -
'आपके उकाब कुछ बुरे परिंदे नहीं हैं.'
अपने
पहाड़ी लोगों से मैंने तुर्की के आकाश में उकाबों और सारसों के बीच हुई लड़ाई की
चर्चा की. जब मैंने उन्हें यह बताया कि इस लड़ाई में उकाब हार गए तो पहाड़ी लोग
हैरान रह गए और कुछ तो बुरा भी मान गए. उन्होंने मेरे शब्दों पर विश्वास नहीं
करना चाहा. मगर जो सचाई थी, वह तो सचाई ही थी.
'तुम ठीक नहीं कह रहे हो, रसूल,' आखिर एक पहाड़िये ने कहा. 'शायद उकाब लड़ाई में हारे
नहीं, बल्कि सभी मारे गए. मगर यह तो बिल्कुल दूसरी बात है.'
दो
बार सोवियत संघ के वीर की उपाधि से सम्मानित मेरा एक मशहूर दोस्त था - अहमदखान
सुलतान. उसके पिता दागिस्तानी और माँ तातार थी. वह मास्को में रहता था. दागिस्तानी
उसे अपना और तातार उसे अपना वीर मानते थे.
'तुम किसके वीर हो?' मैंने एक बार उससे पूछा.
'मैं न तो तातारों और न दागिस्तान की लाक जाति के लोगों का ही वीर हूँ.
मैं तो सोवियत संघ का वीर हूँ. किसका बेटा हूँ? अपने
माता-पिता का. क्या उन्हें एक-दूसरे से अलग किया जा सकता है? मैं - इनसान हूँ.'
शामिल
ने अपने सेक्रेटरी मुहम्मद ताहिर अल-काराही से एक बार पूछा -
'दागिस्तान में कितने लोग रहते हैं?'
मुहम्मद
ताहिर ने आबादी के आँकड़ों की किताब लेकर उनकी संख्या बता दी.
'मैं असली इनसानों के बारे में पूछ रहा हूँ,' शामिल
ने झुँझलाकर कहा.
'लेकिन मेरे पास ऐसे आँकड़े तो नहीं हैं.'
'अगली लड़ाई में उनकी गिनती करना नहीं भूलना,' इमाम
ने हुक्म दिया.
पहाड़ी
लोगों में कहा जाता है - 'किसी इनसान की असली कीमत जानने
के लिए निम्नांकित सात से उसके बारे में पूछना चाहिए -
1.
मुसीबत से.
2.
खुशी से.
3.
औरत से.
4.
तलवार से.
5.
चाँदी से.
6.
बोतल से.
7.
खुद उससे.
हाँ, इनसान और आजादी, इनसान और इज्जत, इनसान और बहादुरी - इन सबका एक ही अर्थ है. पहाड़ी लोग इस बात की कल्पना
नहीं कर सकते कि उकाब दुरंगी चाल चलनेवाला भी हो सकता है. वे कौवे को दुरंगा मानते
हैं. इनसान - यह तो केवल नाम नहीं, उपाधि है, सो भी बहुत ऊँची और इसे हासिल करना कुछ आसान नहीं.
कुछ
ही समय पहले मैंने बोत्लीख में एक औरत को ऐसे मर्द के बारे में, जो किसी लायक न हो, यह गीत गाते सुना -
तुममें
कुछ तो घोड़े जैसा
कुछ
है भेड़ समान,
अंश
चील का,
और लोमड़ी
की
होती पहचान.
कुछ
मछली-सा,
किंतु वीरता
उसका
नहीं निशान,
कहाँ
मान-सम्मान?
एक
अन्य नारी के मुँह से मैंने झूठे और कपटी पुरुष के बारे में यह गीत सुना -
तुम
हो मानव,
मैंने सोचा
राज
कहा तुमसे खुलकर,
तुम
अखरोट,
गिरी बिन निकले
खड़ी
अकेली मैं पथ पर.
बहुत
देर से तुमको समझी
मेरा
ही यह दोष, मगर
तन
के बिना लबादा हो तुम
टोपीवाले, किंतु न सिर.
अपने
लिए वर की तलाश करनेवाली युवती ने शिकवा करते हुए कहा -
'अगर मुझे समूर की टोपी पहननेवाले वर की तलाश होती तो मैंने उसे कभी का खोज
लिया होता. अगर मूँछोंवाले वर की तलाश होती तो वह भी कभी का मिल गया होता. मैं
इनसान की तलाश में हूँ.'
पहाड़ी
लोग जब भेड़ खरीदते हैं तो उसकी दुम, ऊन और
मोटापे या चर्बी की तरफ ध्यान देते हैं. जब वे घोड़ा खरीदते हैं तो उसके थूथन,
टाँगों और पूरी बाहरी आकृति को जाँचते-परखते हैं. लेकिन इनसान का
कैसे मूल्यांकन किया जाए? उसके किन लक्षणों की ओर ध्यान
दिया जाए? उसके नाम और काम की ओर... प्रसंगवश यह बताना भी
उचित होगा कि अवार भाषा में 'नाम' शब्द
के दो अर्थ हैं. पहला अर्थ तो नाम ही है और दूसरा अर्थ है किसी आदमी का काम,
उसकी योग्यता-सेवा, उसके वीर-कृत्य. जब
हमारे यहाँ बेटे का जन्म होता है तो यही कामना की जाती है - 'उसका काम उसका नाम पैदा करे.' किसी बड़े काम या
उपलब्धि के बिना नाम तो निरर्थक ध्वनि है.
अम्माँ
मुझे सीख दिया करती थीं - नाम से बड़ा कोई पुरस्कार नहीं, जिंदगी से बड़ा कोई खजाना नहीं. इसे सहेजकर रखो.
सींगी
पर आलेख :
साल
हजारों-लाखों बीते
धीरे-धीरे
तब बंदर
मानव
बना,
पियक्कड़ फिर से
बना
जानवर,
हाय, मगर!
शामिल
ने जब गुनीब पहाड़ पर मजबूत किलेबंदी कर ली तो उसे पराजित करना किसी तरह भी संभव
नहीं रहा. किंतु एक ऐसा गद्दार निकल आया जिसने दुश्मन को गुप्त पगडंडी दिखा दी.
फील्ड-मार्शल प्रिंस बर्यातीन्स्की ने इस पहाड़िये को बहुत-सा सोना इनाम दिया.
बाद
में जब बंदी शामिल कालूगा पहुँच चुका था तो यह गद्दार अपने घर लौटा. लेकिन उसके
पिता ने कहा -
'तू गद्दार है, पहाड़िया नहीं, इनसान
नहीं. तू मेरा बेटा नहीं.'
इतना
कहकर उसने उसकी हत्या कर दी, गला काट दिया और सोने के
साथ उसे चट्टान से नदी में फेंक दिया. देशद्रोही का पिता भी अब अपने इस गाँव में
नहीं रह सकता था और लोगों से नजरें नहीं मिला सकता था. बेटे के कारण उसका सिर भी
शर्म से झुक जाता था. वह कहीं चला गया और तब से उसका कोई अता-पता नहीं.
उस
जगह के करीब से गुजरते हुए, जहाँ गद्दार का सिर फेंका गया
था, पहाड़ी लोग आज तक पत्थर फेंकते हैं. कहा जाता है कि इस
चट्टान के ऊपर से उड़ते हुए परिंदे भी 'गद्दार, गद्दार!' चिल्लाते हैं.
एक
बार मखाच दाखादायेव अपनी सेना में सैनिक भर्ती करने के लिए गाँव में आया. गोदेकान
में उसने दो पहाड़ी लोगों को ताश खेलते देखा.
'अससलामालेकुम. आपके मर्द लोग कहाँ हैं, उन्हें जरा
इकट्ठा करो.'
'हमारे सिवा गाँव में और कोई मर्द नहीं है.'
'भई वाह! मर्दों के बिना भी क्या गाँव! कहाँ हैं वे?'
'लड़ रहे हैं.'
'तो यह बात है! इसका यह मतलब हुआ कि आप दोनों के सिवा आपके गाँव में बाकी
सब मर्द हैं.'
अबूतालिब
के साथ एक बार यह किस्सा हुआ. एक घड़ीसाज के यहाँ वह घड़ी ठीक करवाने गया. इस वक्त
घड़ीसाज करीब बैठे हुए एक नौजवान की घड़ी की मरम्मत करने में व्यस्त था.
'बैठो,' घड़ीसाज ने अबूतालिब से कहा.
'देख रहा हूँ कि तुम्हारे पास लोग बैठे हैं. मैं फिर कभी आ जाऊँगा.'
'तुम्हें लोग कहाँ दिखाई दे गए?' घड़ीसाज ने हैरान
होकर पूछा.
'यह नौजवान?'
'अकर यह सही मानी में इनसान होता तो तुम्हारे यहाँ आते ही उठकर खड़ा हो
जाता और अपनी जगह पर तुम्हें बिठा देता... दागिस्तान को इस बात से क्या
लेना-देना है कि इस निकम्मे की घड़ी ठीक वक्त बताती है या नहीं, लेकिन तुम्हारी घड़ी ठीक ढंग से चलनी चाहिए.' अबूतालिब
ने बाद में बताया कि जब उसे दागिस्तान के जन-कवि की उपाधि दी गई तो उस वक्त उसे
इतनी खुशी नहीं हुई थी जितनी इस घड़ीसाज की दुकान पर.
दागिस्तान
में तीस जातियों के लोग रहते हैं, किंतु कुछ बुद्धिमान यह
दावा करते हैं कि दागिस्तान में सिर्फ दो आदमी रहते हैं.
'यह कैसे मुमकिन है?'
'बिल्कुल मुमकिन है. एक अच्छा आदमी और एक बुरा आदमी.'
'अगर इसी दृष्टिकोण से देखा जाए,' दूसरे ने उसकी भूल
सुधारी, 'तो दागिस्तान में सिर्फ एक आदमी रहता है, क्योंकि बुरे आदमी तो आदमी नहीं होते.'
कुशीन
के कारीगर समूर की टोपियाँ बनाते हैं. किंतु कुछ लोग तो उन्हें सिरों पर पहनते
हैं,
जबकि दूसरे खूँटियों पर टाँगते हैं.
अमगूजिन
के लुहार खंजर बनाते हैं. लेकिन कुछ तो उन्हें अपनी पेटियों में लटकाते हैं और
कुछ कीलों पर.
आंदी
के कारीगर लबादे बनाते हैं. मगर कुछ तो उसे बुरे मौसम में पहनते हैं, जबकि दूसरे संदूकों में छिपाते हैं.
लोगों
के बारे में भी यही सही है. कुछ तो हमेशा काम-काज में जुटे रहते हैं, धूप और हवा का सामना करते हैं, जबकि दूसरे संदूक में
बंद लबादे, खूँटी पर लटकी समूर की टोपी और कील पर लटके खंजर
के समान हैं.
एक
प्रकार से यों कहा जा सकता है मानो तीन प्रकार के बुद्धिमान बुजुर्ग दागिस्तान पर
नजर टिकाए हुए हैं. वे मानो कई सदियों तक जी चुके हैं, उन्होंने सब कुछ देखा है और वे सब कुछ जानते हैं. उनमें से एक इतिहास की
गहराई में जाकर, प्राचीन कब्रों पर नजर डालकर और आकाश में
उड़ते पक्षियों के बारे में सोचते हुए कहता है - 'दागिस्तान
में कभी असली इनसान थे.' दूसरे बुजुर्ग आज की दुनिया पर नजर
डालते, दागिस्तान में जगमगाती बत्तियों की ओर इशारा करते और
दिलेरों-बहादुरों के नाम लेते हुए कहता है - 'हाँ, दागिस्तान में इनसान हैं.' तीसरे ढंग का बुजुर्ग मन
ही मन भविष्य पर नजर डालते, उस नींच का मूल्यांकन करते हुए
जो हमने भविष्य के लिए आज रखी है, यह कहता है - 'दागिस्तान में कभी इनसान होंगे.'
संभवतः
तीनों प्रकार के बुजुर्ग सही हैं.
कुछ
समय पहले विख्यात अंतरिक्ष-नाविक आंद्रियान निकोलायेव दागिस्तान में पधारा. वह
मेरे घर भी आया. मेरी छोटी बिटिया ने पूछा -
'क्या दागिस्तान का अपना अंतरिक्ष-नाविक नहीं है?'
'नहीं है,' मैंने जवाब दिया.
'होगा?'
'हाँ, होगा!'
इसलिए
होगा कि बच्चे जन्म लेते हैं, कि हम उन्हें नाम देते
हैं, कि वे बड़े होते हैं और हमारे देश के साथ कदम मिलाकर चलते
हैं. हर कदम के बढ़ने पर वे अपने वांछित लक्ष्य के करीब पहुँचते जाते हैं. हमारी
तो यही कामना है कि दूसरी जगहों पर दागिस्तान के बारे में वैसा ही कहा जाए,
जैसा हम उस गाँव के संबंध में कहते हैं जिसमें व्यवस्था और शांति
है - वहाँ इनसान है.
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