(पिछली क़िस्त से आगे)
(फ़ोटो http://thegreenvillage.co.in/ से साभार) |
नब्बू डीयर की मां अपने पटांगण
में बंधी, दिन भर आवारा घूमने के बाद घर आने के बावजूद सतत भुखानी और मिमियाती
रहने वाली दो बकरियों को पत्ते डाल रही थी जब उसने बचेसिंह को सामने से आता देखा. माँ-बेटे
के हल्द्वानी से वापस आने के बाद से बचेसिंह अमूमन हर सुबह उनके घर का हाल जानने
आया करता था. सुबह के इस रोज़मर्रा बन गए कार्यक्रम में परिवार पर एक के बाद एक पड़
रही मुसीबतों की बाबत नब्बू डीयर की माँ द्वारा किये जाने वाए हाहाकारी एकालाप को बचेसिंह
मनहूस चेहरा बनाए पंद्रह-बीस मिनट तक केवल ‘हाँ-हूं’ की सहायता से सुना करता और उसके
बाद ही बागेश्वर के लिए निकलता था. ढलती संध्या के समय उसके यूं अपने आंगन में आ
जाने पर किंचित अचकचाई नब्बू की माँ ने “किलै आज बड़ी जल्दी आ गया हो बचिया ...”
कहकर अपने हाथ में पकड़ी झाडू से अपने साथी के पेट में सींग घुसेड़ने का प्रयास कर रही
बकरी को फतोड़ना चालू ही किया था कि उसकी नज़र बचिया के पीछे आये दोनों शहरी बाबुओं
पर पड़ी. पूर्वपरिचित होने के बावजूद उन्होंने पहली निगाह में गिरधारी को नहीं
पहचाना लेकिन फिर उसके असामान्य लम्बत्व पर सश्रम गौर करते ही उसके चेहरे पर हर्ष और
चिंता दोनों के भाव एक साथ उभरे.
गिरधारी, जो अपने माता-पिता
समेत किसी भी रिश्तेदार के पाँव छूने को अपनी बेइज्ज़ती समझता था, लपक कर नब्बू
डीयर की माँ के चरणों में झुका. उसकी देखा-देखी परमौत ने भी ऐसा ही किया. झाडू थामे
हाथों से ही उन्हें आशीर्वाद देते हुए तनिक संकोच के साथ बुढ़िया बोली – “जी रया
पोथा ... जी रया ... आज कहाँ से जो आ गए हुए तुम यौ बज्यौण झिंगेड़ी में हो बिस्जी ...
बैठो एक मिलट को ... नबुवा को बताती हूँ अब्बी हाँ ...” उसने झटपट झाडू नीचे फेंकी
और वहीं से “नब्बू ... ओ नबुवा ... नबू कहा ...” का लंबा आलाप शुरू करती हुई घर के
भीतर घुस गयी.
साधारण पहाड़ी घरों की तरह
नब्बू के पैतृक घर के बाहर भी पटालों से निर्मित एक आँगन अर्थात पटांगण था जिसके तीन
तरफ डेढ़-दो फुट ऊंची चहारदीवारी थी जिससे मेहमानों वगैरह के बैठने और उन्हें चाय इत्यादि प्रस्तुत करने हेतु ड्राइंग
रूम के फर्नीचर का काम भी लिया जाता था. बचेसिंह ने परमौत और गिरधारी लम्बू को उसी
पर आसन ग्रहण करने को कहा. पटांगण के बीचोबीच एक पत्थर पर छेद कर ओखली का निर्माण किया
गया था. सामने घर के दुमंजिले को जाने वाली चार-पांच सीढियां थीं. नीचे की मंजिल
पर सीढ़ी के अगल-बगल क्रमशः गाय-बछियों को बाँधने का गोठ और भूसाघर थे. इसी तरह सीढ़ी
के दोनों तरफ बेडरूम का काम करने वाले दो कमरे थे जिनकी खिड़कियों के पल्लों पर किसी
ज़माने में की गयी नक्काशी के आलीशान किन्तु घिसे हुए डिज़ाइन बताते थे कि किसी
ज़माने में घर को बड़ी मोहब्बत से बनवाया गया था. खिडकियों के आलों पर पिछली फसल के
सूखे लहसुन और भुट्टे वगैरह के गुच्छों के साथ आरसी, मंजन, तेल की शीशी, साबुनदानी
वगैरह शोभायमान थे. गोठ और भूसाघर के बाहर चंद डब्बे, कनस्तर, बाल्टियां, तसले और नहाने-धोने
की चौकी वगैरह धरे हुए थे जिनकी संगत के लिए परित्यक्त और परित्यक्त किये जाने को
तैयार तमाम मामूली चीज़ें थीं और एक निगाह में पता चल जाता था कि घर की निर्धनता ढांप-छिपा
रखे जाने की किसी भी तरह की औपचारिकता से परे जा चुकी थी.
परमौत का मन इस सबको देखकर
रुआंसा होने का था कि “हौजूरो ... ओ हौजूरो ...” कहता नेपाली डोटियाल सामान लादे
पहुँच गया. जब सामान नीचे रखा जा रहा था परमौत ने नोटिस किया कि दूसरी मंजिल की एक
बंद खिड़की झिरी भर को खुली जिससे साफ़ अंदेशा होता था कि उन्हें देखा जा रहा था.
नब्बू डीयर की माँ भीतर जा कर अदृश्य हो गयी लगती थी क्योंकि डोटियाल का पेमेंट
किये जाने और उसके लौट जाने के बाद भी उसका कोई पता नहीं था. परमौत ने सवालिया
निगाहों से बचेसिंह को देखा तो उसने कहा – “चहा बना रही होगी सायद ... आती होगी ...
मैं देख के आता हूँ सैप ..” और वह भी “नवीन
... ओ नवीन कहा ... नवीनौ ... ओ रे नब्बू ...” कहता घर में घुस कर अलोप हो गया.
गिरधारी ने एकांत का लाभ
उठाते हुए परमौत से कहा – “ऐसी जगे में क्या जो मन लगता होगा नबदा का यार परमौद्दा
... हैं. कहाँ साली हल्द्वानी की रंगत कहाँ ये गाँव की फुसकट लाइफ ... बीमार हो
जाने का ही काम हुआ ऐसे में ... नहीं?”
परमौत उत्तर दे पाता कि
सामने से नब्बू डीयर नमूदार हुआ. बचेसिंह के कंधे का सहारा लेकर उसने पहली सीढ़ी पर
कदम रखा ही था कि गिरधारी लम्बू और परमौत लपक कर उस तक पहुँच गए.
“अबे गिरुवा लमलेट ये परमौती
वस्ताज को कां से ले आया यार ... गजब ... गजब ...”
वह अपना वाक्य पूरा करता
उसके पहले ही दोनों दोस्तों के कंधे उसके दाएं-बाएं तैनात हो गए थे. वहीं सीढ़ियों
पर वे एक दूसरे से लिपट गए. परमौत को अपनी आँखों की कोरों पर गीलापन महसूस हुआ
जबकि गिरधारी बाकायदा “नबदा ... नबदा यार गुरु ...” कहता सुबकने लगा था.
हल्द्वानी वाला काइयां और
तंदुरुस्त नब्बू डीयर सूख कर आधा हो गया था और परमौत ने उसकी पसलियाँ अपने सीने पर
गड़ती महसूस कीं. नब्बू डीयर ने उनसे घर के भीतर आने को नहीं कहा और वे वापस पटांगण
के किनारे जाकर बैठ गए.
लिपटने, हाथ मिलाने और एक
दूसरे को भरपूर देख लेने का सिलसिला सैटल होने के उपरान्त परमौत ने नब्बू डीयर से कहा
– “साले हल्द्वानी से जा के तो तू घाट ले जाने को जैसा तैयार हो गया यार नब्बू ...
अब बचता नहीं है भलै ...” और उसकी पीठ पर एक दोस्ताना धौल जमाई. नब्बू को खांसी का
दौरा पड़ा और वह दोहरा हो गया.
“अरे ... जादे तब्यत खराब हो
रई यार नबदा की तो ...” नब्बू को अपनी मज़बूत बांहों में थामते गिरधारी ने चितित
स्वर में बचेसिंह से पूछा – “हो क्या रा है इसको ... डाक्टर के पास नईं ले गए
बिचारे को ...”
“क्या डाक्टर होने वाला हुआ
यहाँ भूड़ जैसे गाँव में सैप! परसों छंजर को ले गए थे बागेश्वर. डाक्टर गया रहा छुट्टी
तो कम्पौंडर नेई देखा ... टीबी-हीबी जैसा कुछ हो गया बता रा था ... ट्यस्ट कराने
पड़ेंगे बल ... अब यहाँ कहाँ से होने वाला हुआ ट्यस्ट. डाक्टर कब्बी नईं रैने वाला हुआ यहाँ. अब दो-चार दिन में देखते
हैं अल्मोड़े-हल्मोड़े का कुछ ...” अपनी बात को इन शॉर्ट कहकर बचेसिंह चुप होकर पटांगण
के पत्थरों का मुआयना करने लगा.
परमौत नब्बू की खराब हालत के
बावजूद उस पर भड़क पड़ा और धीमी आवाज़ में झाड़ पिलाता हुआ बोला – “अबे नब्बू, हम साले
मर गए थे कोई ... हैं ... पैन्चो ...! एक खबर देने के लायक नहीं समझा यार परमौती को
तूने ... वैसे तो खूब वस्ताज-वस्ताज कैता था दारू पीने के टैम ... हैं ... कल सुबे
जा रहे हैं हल्द्वानी .... समझ रा है ... देख गिरधर कैसे भी बहाने बनाएगा ना ये
पैन्चो नबुवा ना, इसको ले के तो कल जाते ही हैं यहाँ से ...” ऐसा कहते-कहते परमौत
को अहसास हो गया कि मरीज़ की हालत को देखते हुए वह कुछ ज़्यादा बक गया है सो
न्यूट्रलाइज करने के अभिप्राय से उसने नब्बू डीयर को धीमे से पसली में कोंचकर आँख
मारते हुए– “नब्बू बेटे ... भौंरा टाइप कि पतंगा टाइप ... क्या कहना हुआ तेरी भाबी
से बे ...” कहा और उसी की नक़ल बनाते हुए अचारी आवाज़ निकालते हुए ‘चाँद सी मैबूबा
हो मेरी’ गुनगुनाना शुरू किया.
नब्बू कुछ प्रतिक्रिया देता उसके
पहले ही थाली में धरे चाय के गिलास थामे सीढ़ियों से उतरती उनकी तरफ आ रही उसकी माँ
दिखाई दे गयी. बचेसिंह थाली थाम रहा था जब परमौत ने अपना एयरबैग खोलते हुए कहा –
“ये सामान अन्दर रखा देते जरा हो बचदा ... और ये भी ...” दो बड़े-बड़े कट्टों को
देखकर नब्बू डीयर ने दयनीय सा स्वर निकालते हुए कहा – “क्या यार परमौती गुरु ...
पूरी बजार उठा लाया हल्द्वानी की मल्लब ...”
नब्बू डीयर के प्रति इतनी
दूर से आये उसके मित्रों का लाड़, मिठाई के डिब्बे और सामान से भरे कट्टे देखकर भावुक होती उसकी माँ ने अपनी मैली धोती का
छोर होंठों में दबा लिया और जल्दी-जल्दी वापस घर में घुस गयी. खिड़की की खुली हुई झिरी अब कुछ और खुल गयी थी - जितना भर दिख रहा था उससे परमौत समझ गया नब्बू के लकवाग्रस्त पिता बरामदे में चल रही किसी भी गतिविधि से महरूम रहना नहीं चाहते.
चाय सुड़की जाने लगी जिससे पैदा
हुई ऊष्मा ने मित्रों के वार्तालाप को और भी अन्तरंग बनाने में सहायता की. नब्बू
बोला – “हल्द्वानी-फल्द्वानी जाने की बात तो देखी जाएगी परमौती ... पहले ये बता वो
उसका क्या हुआ तेरी वो अनारकली मैड्यम का ... मल्लब ... क्या नाम कहते हैं उसका ... अबे
वोई कम्पूटर वाली ...”
“पिरिया ...” यह गिरधारी
लम्बू था.
“हां मल्लब ... कुछ बात आघे
बड़ी या वोई साला रात भर डाड़ाडाड़ ही चल्ला हुआ अभी भी ...” नब्बू ने अपनी कृश बाँहें
परमौत के कंधे के गिर्द डालते हुए उसे छेड़ा.
ऐसी अटपट सिचुएशन में अपनी
पिरिया का ज़िक्र छिड़ने से चिढ़ने के बजाय भावविभोर होता हुआ परमौत बोला - “बस सादी की तयारी है गुरु ... रुमाल तक तो
पहुँच गया हुआ तुम्हारा ... वो क्या कहते हैं ... शागिर्द! बस पिछौड़े-लहंगे तक
पौंचने की देर हुई ...” परमौत ने उचकते हुए अपनी पीछे की जेब में खुभाया हुआ मुसमुसा
गया रूमाल निकाला और नब्बू के हाथ में थमा दिया – “ल्लै ... क्या याद करेगा नबदा
गुरु ... असली वाला है साला ... हीरोइन के रुमाल की मौज काट ले बेटा ... क्या याद
करेगा ...”
रूमाल के निकाले जाने पर
गिरधारी लम्बू और नब्बू डीयर के भीतर हज़ार सवालों के फव्वारे फूटने लगे जिनका
उत्तर देने के लिए बकौल हरुवा भंचक ग्यारह दिन और ग्यारह रातें चाहिए थीं. गिरधारी
लम्बू हैरत कर रहा था कि हल्द्वानी से झिंगेड़ी तक के सफ़र भर में परमौत उस तारीखी
चीथड़े को अपनी जेब में लिए-लिए घूम रहा था और उसने उससे इस बात का ज़िक्र तक नहीं
किया था. नब्बू डीयर जैसे काइयां और प्यारे हरामी के सामने पड़ते ही परमौत ने दोस्ताना
खुसफुस में अपनी प्रेमकथा में हाल के दिनों में आए मरहलों की छोटी-मोती रिपोर्ट
अपने प्रेम पथ-प्रदर्शक के सम्मुख प्रस्तुत की जिसकी तफसीलें बाद में बताने का वायदा
हुआ.
नब्बू डीयर के बीमार चेहरे पर
मनहूस किस्म की ख़ुशी तो दिखाई दी लेकिन वह उस रूमाल को पिरिया का रूमाल मानने को तैयार
नहीं था.
“परमौती बेटे ... पैली बात तो
ये है कि लौंडियों के रूमाल इतने गंदे नहीं होते ... दूसरे ये कि उनमें से खुसबू आनी
चइये ... और तीसरी बात ये कि लौंडिया रुमाल जभी देती है जब लौंडा उसको सोने के कंगन
देता है ... और चौथी बात आप समझ लें कि पिक्चरों में जब हीरोइन ...”
नब्बू डीयर की खुड़पेंच निकालने
की पुरानी आदत से वाकिफ परमौत ने उसे बीच में रोकते हुए कहा – “साले नब्बू ... ये नईं कि जरा सा खुस हो जाओ, तुम साले चाहने वाले
ही नहीं हुए कि परमौती की सादी हो जाए. मल्लब मैं बी साला तेरी तरै भुसकैट मोब्बत करते-करते
ड्वां-ड्वां बस डाड़ाडाड़ हालता रहूँ ... हैं ... और हाँ रुमाल जो है वो गंदा हुआ तेरा
ठैरा मेरी जेब में रखे-रखे. तू क्या समज रहा उसने सिंगाणा पोछ के दे रखा है ... और
पैली बात तो ये है कि रुमाल उसने मुझे जो क्या दिया ... वो तो जब वो क्लास को गयी तब
मुझको नीचे गिरा हुआ मिला ...”
“यौ ... अब बता रहा कि नीचे गिरा
मिला कर के ... मल्लब परमौती वस्ताज इस बात का सबूत क्या हुआ कि नीचे गिरा हुआ रुमाल
पिरिया का ही होगा. अरे किसी भी औरत का हो सकने वाला हुआ. मल्लब ऐसा भी तो पॉसिबुल
हुआ कि सौदा-पत्तर लेने आई किसी मुटल्ली का रुमाल नीचे गिर गया हो और परमौती गुरु उसी
को सूंघ-सूंघ के काम चला रहा हुआ ...” नब्बू डीयर ने अपनी ट्रेडमार्क कमीनी हंसी हंसते
हुए गिरधारी लम्बू की तरफ देखा. बेवकूफों की तरह मुंह और आंखें फाड़े, पिरिया के रुमाल
को अपने हाथ में थामे उसमें किसी सुन्दरी का नक्श तलाशता हुआ गिरधारी तय नहीं कर पा
रहा था कि किसके पक्ष में मतदान करे.
“हाँ हाँ ... नहीं है साला पिरिया
का ... क्या उखाड़ लेगा नब्बू लाल ... हैं! है साला, सूपनखा का है माचो! लल्ता पवार
का है साला! ... तेरे से जो है ना ... खुसी तो किसी देखी ही नहीं जाने वाली हुई ...”
परमौत थोड़ा सा उखड़ता हुआ बोला.
नब्बू के चेहरे पर अपने कमीन
तर्कों से आशिक परमौत के अरमानों और सपनों का कचूमर निकाल चुकने की उपलब्धि का स्वाभाविक
हरामीपन दिपदिपाने लगा. हफ्ते भर से गंभीर बीमारी के चलते शैय्याग्रस्त होने के बावजूद
वह मुस्करा रहा था और लग रहा था कि मुकेश के किसी अनिष्टकारी गीत की तान उसने अब छेड़ी
तब छेड़ी.
गोदाम जीवित हो रहा था.
(जारी)
5 comments:
आह और वाह दोनों एक साथ निकलना हुआ वस्ताज!
वाह।
इंतजार रहता है, धकाधक लिखिए
कमाल है वाह
bahut khoob.. padna jaari hai..
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